राजेंद्र शुक्ला, मुंबई
आत्मशक्ति एक ऐसी दिव्य विभूति है, सामर्थ्यों का भाण्डागार है, जो प्रसुप्त चेतना को जगाती एवं मानव में देवत्व का उदय सार्थक कर दिखाती है। इसी जीवन का परमानन्द प्राप्त कराने वाली इस प्रसुप्त सामर्थ्य से बहुसंख्य व्यक्ति अनभिज्ञ ही बने रहते हैं।
आत्मशक्ति प्राप्त करने के लिए जो साधना करनी पड़ती है, उसके दो पक्ष हैं- एक क्रियाकाण्ड, भजन-पूजन का उपचार। दूसरा ब्रह्माण्डीय चेतना के उत्कृष्टता, देवात्मा के साथ योग, एकात्म्य। उपचारों में जप, भजन, व्रत, उपवास जैसे शरीरसाध्य कृत्य करने पड़ते हैं।
योग भावना प्रधान है, उसमें समर्पण स्तर की भाव-श्रद्धा जगानी पड़ती है। भक्ति का, प्रेम का अभ्यास करना और स्वभाव बनाना पड़ता है।
मनावीय आदर्शों के प्रति समर्पित व्यक्तित्व को योगी कहते हैं, जबकि मात्र कर्मकाण्डों में ही निरत रहने वाले भावशून्यों को अधिक-से-अधिक पुजारी की संज्ञा दी जा सकती है। उपचारों को तीर और योग एकात्म्य को धनुष कहते हैं।
तीर उतनी ही दूर जाता, उतनी ही चोट करता है जितना कि प्रत्यंचा का खिंचाव उसे प्रेरणा देता है। धनुष के बिना तीर की कोई चमत्कृति नहीं, किन्तु अकेला धनुष किसी छोटे- से कंकड़ को फेंककर लगभग तीर लगने जैसा परिणाम उत्पन्न कर सकता है।
उपचार का कोई महत्त्व नहीं, सो बात नहीं। लेखक को कलम, दर्जी को सुई, चित्रकार को तूलिका, वादक को वीणा जैसे उपकरणों का सहारा लेना पड़ता है। इतने पर भी उनकी अन्तश्चेतना का प्रखर-प्रवीण होना आवश्यक है; अन्यथा वे उपकरण हाथ में रहते हुए भी किसी सफलता का श्रेय प्रदान न कर सकेंगे।
पूजापरक उपचारों के संबंध में भी यही बात है। वे अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं।
उनकी उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा।हथौड़ी के बिना लुहार, बाजे के बिना वादक अपने कौशल का परिचय कैसे देगा ? उस्तरा न हो तो नाई किस प्रकार किसी की हजामत बनाए ?