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सत्ता की कठपुतलियाँ बनी केन्द्रीय एजेंसियाँ 

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              पुष्पा गुप्ता 

    जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं, केन्द्रीय एजेंसियों के काम का बोझ और अधिक बढ़ता जा रहा है। ख़ास तौर पर ई.डी व सीबीआई का। ये दोनो एजेंसियाँ भाजपा के कार्यकाल में काफ़ी सक्रियता से काम कर रही हैं। इनके अफ़सरों को तो एक दिन की छुट्टी भी नहीं मिलती। अगर यक़ीन नहीं हो रहा तो कुछ आँकड़ों के माध्यम से समझिए।

       2022 के अन्त तक “ई.डी प्रिवेंशन ऑफ़ मनी लॉन्ड्रिंग” एक्ट के तहत 3010 रेड मार चुकी है, जिसमें क़रीब 99,356 करोड़ रुपए ज़ब्त कर चुकी है। (इसके बाद ये आँकड़े आने बन्द हो गये, जैसे कि बेरोज़गारी के बन्द हो गये)। 

     वहीं कांग्रेस के कार्यकाल यानी 2004-14 तक ईडी ने सिर्फ़़ 112 रेड की और इसमें 5346 करोड़ रुपए ज़ब्त किये। बताते चलें कि केन्द्रीय एजेंसियों द्वारा 2014-22 तक फॉरेन एक्सचेंज मैनेजमेण्ट एक्ट (FEMA) के तहत 22,320 केस दर्ज़ किये गये हैं। कोई भी व्यक्ति कह सकता है कि इसमें क्या बुराई है, देश को बचाने के लिए ई.डी व सीबीआई जी-जान से लगे हुए हैं।

      मगर अब आते हैं सिक्के के दूसरे पहलू की तरफ़ कि आख़िर यह सब कारवाई ईडी व सीबीआई ने कितने “निष्पक्ष” तरीके से की! ईडी व केन्द्रीय एजेंसियों द्वारा की गयी ये कार्रवाइयाँ 95 प्रतिशत विपक्षी नेताओं पर थी। क़रीब 121 नेताओं पर यह कारवाई हुई, जिसमें से 115 विपक्ष के थे। 

      सिर्फ़़ ऐसा नहीं है यह कार्रवाइयाँ विपक्षी नेताओं पर ही हुई हो, केन्द्रीय एजेंसियों द्वारा यह दमन हर्ष मन्दर, तीस्ता सीतलवाड़ जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं, ऑल्ट न्यूज के पत्रकार मोहम्मद ज़ुबैर और भीमा कोरेगाँव में शामिल राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर भी किया गया है। साथ ही समय-समय पर भाजपा के खिलाफ़ बोलने पर तमाम पत्रकारों व चैनलों पर इसकी गाज़ गिरी है। 

      भास्कर ग्रुप के ऊपर भी आईटी विभाग की रेड हुई थी, जब कोरोना काल में भाजपा कुप्रबन्धन के खिलाफ़ भास्कर ने लिखा था। अदाणी द्वारा ख़रीदे जाने से पहले एनडीटीवी पर भी सीबीआई रेड पड़ी थी। न्यूज क्लिक के दफ़्तर पर भी दिल्ली पुलिस ने “चीन से फ़ण्डिंग” को लेकर छापा मारा था। लगातार जारी कार्रवाइयों का यह सिलसिला साफ़ दर्शाता है कि आज केन्द्रीय एजेंसियाँ पूरी तरह भाजपा के इशारे पर काम कर रही हैं।

इसपर भी कई भलेमानुष कह सकते हैं कि विपक्ष तो है ही भ्रष्टाचारी, 70 साल तक इन्होंने देश को लूटा, अब भाजपा इनको सबक सिखा रही है! तब सवाल यह बनता है कि जब यही विपक्षी नेता रेड पड़ने के बाद भाजपा में शामिल हो जाते हैं, तब ईडी व सीबीआई नर्म क्यों पड़ जाती है!

      तब उतने ही “कठोर” तरीके से इनपर कारवाई क्यों नहीं होती, जितनी तब हो रही थी जब ये विपक्ष में थे! आइए चन्द उदाहरणों से देखते हैं :

1. सुवेन्दु अधिकारी जो पहले तृणमूल कांग्रेस में थे। भाजपा ने विधानसभा चुनाव के पूरे अभियान में अधिकारी को शारदा चिट फ़ण्ड घोटाले का आरोपी बताया। जैसे ही अधिकारी भाजपा में शामिल हुए उनके खिलाफ़ जारी सभी जाँच को रोक दिया गया।

2. हेमन्त बिस्वा शर्मा जो आज असम के मुख्यमन्त्री हैं, यह 2015 में भाजपा में शामिल हुए, इससे पहले यह कांग्रेस में थे। भाजपा द्वारा इन्हे पानी घोटाले का आरोपी बताते हुए इनके घोटालों पर एक पुस्तिका भी निकाली थी। अब इसी व्यक्ति को भाजपा ने मुख्यमन्त्री बना दिया। इनके द्वारा भी किये गये तमाम घोटालों के जाँच को अब रोका जा चुका है।

3. मुकुल रॉय भी पहले तृणमूल कांग्रेस में शामिल थे। इन्हे भी शारदा चिट घोटाले का आरोपी बताया गया। जब ये भाजपा में शामिल हुए, उसके बाद यह भी साफ़-सुथरे हो गये। पर नीतीश कुमार की तरह पलटी मारते हुए फिर यह वापस तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गये।

4. अजीत पवार के बारे में तो ख़ुद मोदीजी ने कहा था कि ये सबसे बड़े घोटालेबाज़ हैं। उनके यह बोलने के कुछ दिन बाद ही अजीत पवार भाजपा में शामिल हो गये और घोटालेबाज़ से सभ्य-सुसंस्कृत-सम्माननीय बन गये।

यह फ़ेहरिस्त काफ़ी लम्बी है जैसे : छगन भुजबल, नारायण राणे, प्रेम खाण्डू, प्रफुल्ल पटेल आदि। ये कुछ प्रतिनिधिक नाम थे, जो भाजपा में शामिल होने से पहले भ्रष्टाचारी थे और भाजपा में शामिल होने के बाद सदाचारी बन गये। भाजपा में शामिल होने से पहले तमाम केन्द्रीय एजेंसियाँ इनके पीछे पड़ी थीं और भाजपा में शामिल होने के बाद इनके सारे पाप धुल गये और इनपर जारी सभी जाँचों को रोक दिया गया।

अगर सिर्फ़़ घोटालों की ही बात करें तो क्या भाजपा में घोटालेबाज़ नहीं हैं? क्या घोटालेबाज़ सिर्फ़़ विपक्षी पार्टियों में है! असल में कहा जाये तो भाजपा को भ्रष्टाचारी जन पार्टी कहना ज़्यादा सही होगा। शिवराज सिंह चौहान के व्यापम घोटाले को कौन भूल सकता है। राफेल घोटाला, पीएम केयर घोटाला, एनपीए घोटाला, अदाणी घोटाला, सेन्ट्रल विस्टा घोटाला… इसकी भी फ़ेहरिस्त काफ़ी लम्बी है।

      ये सब घोटाले मोदीराज के दौरान ही हुए हैं, इनपर तो कभी ईडी या सीबीआई ने जाँच नहीं की। चालीस से ज़्यादा पूँजीपति देश के लोगों का पैसा लेकर भाग गये, इनपर तो ईडी-सीबीआई ने कभी कारवाई नहीं की। समर्पण की मिसाल देखिए कि ईडी-सीबीआई भाजपा के लिए चन्दा वसूलने तक का काम कर रही है। कई कम्पनियाँ जिन्होंने भाजपा को चन्दा नहीं दिया या फिर मोदी के यार अडाणी के रास्ते में बाधा बने उनपर भी ईडी व सीबीआई ने छापेमारी की। कारण साफ़ है कि तमाम केन्द्रीय एजेंसियाँ अपने आका के खिलाफ़ नहीं जा सकतीं।

      वैसे तो मौजूदा मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था अपने आप में घोटालों और भ्रष्टाचार का अन्तहीन चक्र है। देश में आज़ादी के बाद से ही घोटालों और भ्रष्टाचार का इतिहास रहा है। जो व्यवस्था बाक़ायदा मुनाफ़ाखोरी को बढ़ावा दे, जो व्यक्तिगत लाभ को सर्वोच्च बताये, जो साम-दाम-दण्ड-भेद से धन और सत्ता को हासिल करने को ही लक्ष्य बताये, जो समाज की आवश्यकताओं के अनुसार सभी वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन व वितरण न करे, बल्कि जिसमें मुट्ठी भर धन्नासेठों के मुनाफ़े से संचालित उत्पादन व वितरण हो, जहाँ मुनाफ़े की अन्धी हवस का ही राज हो, वहाँ मुनाफ़ाखोरी केवल क़ानूनी सीमा में सीमित थोड़े ही रहेगी!

       इसकी वज़ह यह है कि मौजूदा व्यवस्था जिसे हम लोकतन्त्र कहते हैं, वह असल में मुट्ठी भर बड़े धन्नासेठों, अमीरज़ादों, मालिकों, ठेकेदारों, बड़े दुकानदारों, बिल्डरों, धनी फ़ार्मरों आदि के एक वर्ग की बहुसंख्यक आम मेहनतक़श जनता के ऊपर तानाशाही ही होती है। इसलिए सभी पार्टियों में पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर घोटाले करती ही हैं, यह दीगर बात है कि भाजपा ने घोटालों में भी पुराने सभी रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया है।

लोकसभा चुनाव से पहले ईडी व सीबीआई द्वारा यह धरपकड़ और तेज़ हो गयी है और दिन की उजाले के तरह साफ़ हो चुका है कि केन्द्रीय एजेंसियाँ भाजपा की कठपुतली की तरह काम कर रही हैं। इसका कारण है पूरी सत्ता व मशीनरी में फ़ासीवादियों की पोर-पोर में पहुँच। फ़ासीवाद भारत में जिस कार्यपद्धति को लागू कर रही है उसकी भी जर्मन और इतालवी फ़ासीवादियों की कार्यपद्धति से काफ़ी समानता रही है। 

     जर्मनी और इटली की तरह यहाँ पर भी फ़ासीवादी जिन तौर-तरीकों का उपयोग कर रहे हैं, वे हैं सड़क पर की जाने वाली झुण्ड की हिंसा; पुलिस, नौकरशाही, केन्द्रीय एजेंसी, सेना और मीडिया का फ़ासीवादीकरण; क़ानून और संविधान का खुलेआम मख़ौल उड़ाते हुए अपनी आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देना और इस पर उदारवादी पूँजीवादी नेताओं की चुप्पी; शुरुआत में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना और फिर अपने हमले के दायरे में हर प्रकार के राजनीतिक विरोध में ले आना। यह दुनिया भर के फ़ासीवादियों की साझा रणनीति रही है। फ़ासीवादी हमले का निशाना संस्थाएँ नहीं बल्कि व्यक्ति हुआ करते हैं और भारत में भी विरोधियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को आतंकित करने की यही नीति फ़ासीवादियों द्वारा अपनायी जा रही है।

      इसके खिलाफ़ प्रतिरोध की उम्मीद आज के दौर में कांग्रेस या किसी भी विपक्षी पार्टियों से करना, रेगिस्तान में पानी ढूँढ़ने के जैसा है। उनके नेता तो ख़ुद पर गाज़ गिरते ही पाला बदल कर भाजपा में शामिल हो जाते हैं। इसलिए आज भगतसिंह की बात को याद करना ज़रूरी है। भगतसिंह ने लिखा था कि क़ानून की पवित्रता तभी तक क़ायम रखी जा सकती है जब तक वह जनता के दिल यानी भावनाओं को प्रकट करता है। जब यह शोषणकारी समूह के हाथों में एक पुर्ज़ा बन जाता है तब अपनी पवित्रता और महत्व खो बैठता है। आज साफ़ है केन्द्रीय एजेंसियाँ भी फ़ासीवादी मोदी सरकार का पुर्ज़ा बन चुकी हैं।

       आज देश में तमाम भ्रष्टाचार और घोटालों को क़ानूनी जामा पहनाया जा चुका है। सरकारें पूँजीपतियों के हित में सभी क़ानूनों को तोड़-मरोड़ देती हैं या उनकी धज्जियाँ उड़ाती रहती हैं। बदले में पूँजीपति वर्ग उनकी पार्टियों को अरबों रुपये चन्दों के रूप में देते हैं। 

     आज भाजपा ही ऐसी पार्टी है जो आज के संकट के दौर में हर तरह के नियमों-क़ानूनों को ताक पर रखकर, हर तरह के साम-दाम-दण्ड-भेद की सहायता लेकर पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की गिरती दर को पूरा कर सकती है और दूसरी ओर जनता के असन्तोष को जाति-धर्म, मन्दिर-मस्ज़िद, हिन्दू-मुसलमान के नाम पर उलझा सकती है। 

    स्पष्ट है कि जैसे-जैसे पूँजीवाद का यह संकट बढ़ेगा, भाजपा का चाल-चेहरा-चरित्र भी इसी तरह उजागर होता जायेगा।

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