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गांठमुक्त है प्रकृति और पुरुष का वैवाहिक गठबंधन 

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         सोनी कुमारी, वाराणसी 

प्रकृति और पुरुष का विवाह होता है। इस गठबन्धन में गाँठ नहीं होती। यही इस विवाह की विशेषता है। अतः गाँठ खुलने वा टूटने का भय नहीं रहता। यह शाश्वत विवाह है। ये दोनों एक साथ रह कर भी एक साथ नहीं रहते। 

     इनमें निकटता रहती है। किन्तु स्पर्श / संश्लेषण / अद्वैत नहीं होता। इस का मैं प्रत्यक्ष द्रष्टा हूँ। पुरुष की निकटता होते ही प्रकृति की साम्यावस्था भंग होती है। उसके गर्भ से तीन पुत्र पैदा होते हैं- सत, रज, तम ये गुण है। 

      प्रकृति एवं पुरुष की संधि का नाम त्रैगुण्य है। इस का संधान नैकट्य (सामीप्य) है। अधिकरण चराचरजगत् है। 

      काम त्रिगुणात्मक है। सत, रज, तम ये तीन गुण परस्पर एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी एक दूसरे के आश्रित, एक दूसरे के अनुवर्ती तथा एक दूसरे से संयुक्त रहने वाले हैं। सब भूतों में प्रकाश (ज्ञान), लघुता (गर्वहीनता), श्रद्धा (विनम्रता ) यह सत्व गुण का रूप है। रजोगुण प्रकृतिरूप है। 

    उत्पत्ति एवं प्रवृत्ति इसका स्वरूप है। तमोगुण अन्धकार (अज्ञान), जडता (भूर्खता) का नाम है। 

       तमोगुण के कार्य :

मोह, अज्ञान, त्याग का अभाव, संग्रह, अनिर्णय, द्वन्द्व निन्दा, गर्व, भय, लोभ, शुभकर्मों में दोष देखना, स्मरण शक्ति का अभाव, परिणाम न सोचना, नास्तिकता, विवेक (अच्छे बुरे के ज्ञान) का अभाव, इन्द्रियों की शिथिलता, शयन, अशक्तता, हिंसा में प्रवृति उल्टी समझ (ज्ञान को अज्ञान तथा अकार्य को कार्य जानना), शत्रुता विरोध, काम में मन न लगना, अश्रद्धा, मूर्खता पूर्ण विचार, कुटिलता, बात को न समझना, हठ, आलस्य, स्थूलदेहता, भक्ति का अभाव, क्रोध, अभिमान, असहिष्णुता, मात्सर्य, व्यर्थ चेष्टा, अदान, अतिवाद, पाप (निषिद्ध) कर्म अवनति, पतन।

     रजोगुण के कार्य :

  सन्ताप, रूप, आयास, प्रयास, श्रम, कष्ट, सुख दुःख, सर्दी-गर्मी, ऐश्वर्य, विग्रह सन्धि, हेतुवाद (वर्क वितर्क), मन की खिन्नता, सहनशक्ति, बल, शूरता, मद, रोष, व्यायाम, कलह, ईर्ष्या, इच्छा, छिद्रान्वेषण, युद्ध करना, ममता, कुटुम्ब पालन, बंध, बन्धन, क्लेश, क्रय विक्रय, छेदन भेदन, विदारण का प्रयत्न, दूसरों के मर्म को विदीर्ण करना, उपता, निष्ठुरता, क्रूरता, कृच्छ्रता, चिल्लाना, चिन्ता करना पश्चाताप करना, नाना प्रकार के सांसारिक भावों से भावित रहना, असत्य भाषण, मिथ्यादान, संशयपूर्ण विचार, तिरस्कार करना, निन्दा स्तुति, प्रशंसा करना, प्रताप, बलात्कार, स्वार्थबुद्धि से व्यवहार करना, तृष्णा, पराश्रय में रहना, ईर्ष्या, व्यवहार कुशलता, नीति, प्रमाद, अपव्यय, परिवाद, परिग्रह, संताप, अविश्वास, भ्रम/ सकाम भाव से व्रतनियमों का पालन, काम्य कर्म, नाना प्रकार के पूर्त (पुण्य) कर्म, स्वाहाकार, स्वधाकार, वषट्कार, नमस्कार, याजन, अध्यापन, यजन, अध्ययन, दान, प्रतिषह, प्रायश्चित, मंगलकार्य द्रोह, माया, शठता, मान, चोरी, आक्रमण, घृणा, परिताप, जागरण, दम्भ, दर्प, राग, सकाम भक्ति, विषय, वादन, नटन, भोगों में प्रवृत्ति मनमाना बर्ताव

    सत्वगुण के कार्य :

 आनन्द प्रसन्नता, उन्नति, प्रकाश, उदारता, निर्भयता, संतोष, श्रद्धा, क्षमा, धैर्य, अहिंसा, समता, सत्य, सरलता, अक्रोष, दोषदर्शन का अभाव, अद्रोह, शुद्धि विश्वास, लज्जा, वितीक्षा, त्याग, पवित्रता, अनालस्य, अमोह, कोमलता, दया, करुणा, विनय, अनासक्ति, ब्रह्मचर्य, निष्कामता, निराशा, उदासीनता, निरपेक्षता धारणा, ध्यान, समाधि ये तीनों गुण अविच्छिन्न हैं। इनका अलग अलग रहना सम्भव नहीं ये मिले हुए रह कर अपना • अपना प्रभाव दिखाते हैं। सर्वत्र तीनों गुणों को सत्ता है। ये नित्य एवं अविनश्वर हैं। तीनों गुणों को प्रकृति कहते हैं। तम, व्यक्त, शिव, धाम, रज, योनि, सनातन, विकार, प्रलय, प्रधान, प्रभव, अप्यय, अनून, अनुद्रिक्त, अकम्प, अचल, ध्रुव, सत्, असत्, अव्यक्त, त्रिगुणात्मक -ये २१ प्रकृति के नाम है। अध्यात्मतत्व का चिन्तन करने वाले लोगों को प्रकृति के इन नामों को जानना चाहिये। जो मनुष्य प्रकृति के इन नामों, सत्वादि गुणों तथा सभी गतियों को ठीक ठीक जानता है, वह तत्वविद् है उस के ऊपर सांसारिक दुःखों का प्रभाव नहीं पड़ता। वह गुणों के बन्धन से छूट जाता है- आनन्द में रहता है। 

     अव्यक्तनामानि गुणांश्च तत्वतो यो वेद सर्वाणि गतींश्च केवला:।

 विमुक्त देह प्रविभागतत्ववित् स मुच्यते सर्वगुणैर् निरामयः॥

   ~महाभारत (आश्व ३९ /३९)

 काम की पीठ को पुरुष तथा पेट को प्रकृति कहते हैं। पीठ बंजर (उत्पत्तिहीन) है। पेट से उत्पत्ति होती है। प्रकृति का पहला उत्पाद महत्तत्व है। इसे महान्, आत्मा, मति, विष्णु, जिष्णु, शम्भु, वीर्यवान, बुद्धि, अज्ञा, उपलब्धि, ख्याति, धृति, स्मृति नाम से जाना जाता है। इसे जानने वाला कभी मोह में नहीं पड़ता। महत्तत्वाय नमः । महत्तत्व प्रथम सर्ग है। दूसरा सर्ग अहंकार है। भूतों का आदि कारण होने से इसे वैकारिक कहते है। यही तेजस एवं चेतना है। 

    यह प्रजासर्ग का धारक, है, इसलिये यही प्रजापति है। यह इन्द्रियों एवं मन का उत्पत्ति स्थान एवं स्वयं देव स्वरूप है। यह त्रिलोककृत् है। अहंकार के कारण सम्पूर्ण जगत् अभिमता (अभिमान युक्त) है। अहंकाराय नमः। सात्विक अहंकार से मन, राजस अहंकार से इन्द्रियाँ तथा तामस अहंकार से इन्द्रियों के विषय एवं भूत उत्पन्न होते हैं। 

      पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ (विषय) तथा पाँच भूत (महाभूत) के संघात का नाम सृष्टि है।

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