नीलम ज्योति
अपने पिता को यदुवंशियों के विनाश की सूचना देकर कृष्ण वन में अपने भाई बलराम के पास वापस लौट आये थे। यदुकुल की स्त्रियों की रक्षा का भार उन्होंने अपने सारथी बाहुक के माध्यम से अर्जुन पर छोड़ दिया था।
अब इस धरा पर वे बस अपने भाई के साथ कुछ क्षण व्यतीत करना चाहते थे।
बलराम एक वृक्ष के नीचे निश्चेष्ट बैठे हुए थे। प्राणवान अथवा प्राणहीन, यह देखने भर से पता नहीं चल रहा था। कृष्ण उनकी समाधि को भंग नहीं करना चाहते थे, अतः वहीं निकट ही बैठ गए। कुछ ही क्षण बीते होंगे कि उन्हें बलराम के सिर के पीछे से एक विशाल नाग निकलता हुआ दिखा, जो देखते ही देखते तनिक दूर पर स्थित समुद्र में समा गया।
समुद्र तट पर वासुकी, कर्कोटक, शँख, अतिषण्ड इत्यादि नाग एवं स्वयं वरुण देव उसके स्वागत और अगवानी हेतु खड़े थे।
बलराम का शरीर लुढ़क गया। बड़े भाई को मृत जान श्रीकृष्ण तनिक दूर जाकर लेट गए। क्या वे जीवन से थक गए थे? या उन्हें भी संसार छोड़ने की इच्छा हो आई थी। लेटे-लेटे ही उन्हें अपना पूरा भूतकाल स्मरण हो आया। मैया यशोदा की डांट, यमुना का वो तट, राधा के साथ रास, कंस का वध, द्वारिका की स्थापना, रुक्मिणी का प्रेम, संयन्तक मणि, पुत्र प्रद्युम्न, बुआ कुंती, मित्र द्रौपदी, अर्जुन और उसके भाई, महाभारत का युद्ध और अंततः यादवों का विनाश।
अभी उनकी विचारधारा बह ही रही थी कि उन्हें अपने एक तलवे में पीड़ा का आभास हुआ। नेत्र खोलकर देखा तो एक बाण धँसा हुआ था।
एक व्याध दौड़ता हुआ आया और कृष्ण के पैरों पर गिरकर रोने लगा। उसने उन गुलाबी चरणों को अपनी गोद में रख लिया और बारम्बार क्षमा मांगने लगा। कृष्ण बोले, “क्यों रोते हो मित्र? तुमसे क्या अपराध हुआ है?”
“क्षमा करो राजन! मृगों को मारने निकला था। तुम्हारे चरणों की झलक दिखी। उन्हें मृग समझ तीर छोड़ दिया। क्षमा करो। मैं अभी इस बाण को निकालकर औषधि लगा देता हूँ।”
“रुको व्याध। पहले अपना नाम तो बताओ!”
“मेरा नाम जरा है राजन!”
“तो मित्र जरा! शांत हो जाओ। तुमसे कोई पाप नहीं हुआ है। और मैं कोई राजा नहीं, देवकी और वसुदेव का पुत्र कृष्ण हूँ।”
कृष्ण का परिचय सुन वह व्याध और अधिक दुख में डूब गया। जिसके जीवित रहते ही संसार ईश्वर मानने लगा हो, उसी के साथ यह अपराध कर दिया उसने! व्याध हिचकियाँ लेते हुए बोला, “यदि आप वे ही कृष्ण हैं, जो मैं समझ पा रहा हूँ तो आप तो साक्षात ईश्वर हैं। आपको तो मुझ जैसे नगण्य व्यक्ति के बाण से घायल होना ही नहीं चाहिए था। और अब हो भी गए तो बिना औषधि के भी आपका घाव ठीक हो जाएगा। है न?”
“ऐसा क्यों कहते हो मित्र? क्या कृष्ण मानव नहीं है? उसे भी घाव लग सकते हैं। महाभारत युद्ध में कितनी ही बार मुझे महारथियों, रथियों, यहाँ तक कि सामान्य पदाति सैनिकों तक से अनगिनत घाव मिले हैं। यह अवश्य है कि वे सभी घाव शीघ्र ही ठीक हो गए। परन्तु तुम्हारा दिया घाव विशिष्ट है मित्र।”
“ऐसा क्या विशिष्ट है मेरे दिए घाव में?”
“यह मेरी मृत्यु का कारण जो बनेगा।”
“हे राम!”, लगा कि व्याध के सिर पर पहाड़ गिर पड़ा हो, वह व्याकुल होकर बोला, “ऐसा क्यों कहते हैं कृष्ण? भला मेरे बाण में ऐसी सामर्थ्य कि वह स्वयं ईश्वर के अवतार का अंत कर दे?”
“तुम्हारा बाण महादेव का प्रसाद है मित्र।” व्याध के नेत्रों में जीवंत प्रश्न देख माधव बोलते गए, “बहुत पहले एक बार द्वारिका में एक साधु आया था। वो जोर-जोर से बोल रहा था कि उसका स्वभाव बड़ा क्रोधी है। वो शाप देने में देरी नहीं करता। उसकी इच्छा द्वारिका में कुछ दिन रहने की है। यदि द्वारिका का कोई नागरिक उसके क्रोध को सहन कर सके तो ही उसे आमंत्रित करे।
“उस अत्यंत लंबे और पतले साधु के बारे में समस्त संसार जानता है। दुर्वासा थे वे। जब किसी ने भी उन्हें अपने घर नहीं बुलाया तो मैं आगे बढ़ा और उन्हें अपने घर लिवा लाया। अद्भुत थे वे। कभी खाना खाते तो खाते ही चले जाते। दस लोगों का भोजन कम पड़ जाता। कभी एक ग्रास खाकर उठ जाते। कभी अचानक ही सोने चले जाते तो कभी अचानक ही उठ जाते।
इसलिए उनके लिए सदैव ही भोजन, शयन की उत्तम व्यवस्था रखनी पड़ती। एक बार तो शैया सहित सब कुछ जलाकर चल पड़े, और थोड़ी ही देर में सोने चले आये। उन्होंने अपनी ओर से बहुत प्रयास किया कि उनकी सेवा में उन्हें कोई कमी दिख जाए। परन्तु मैंने और मेरे परिवारजनों ने ऐसा कोई अवसर ही नहीं दिया।
“एक बार उन्होंने बहुत सारी खीर बनवाई। मैं और रुक्मिणी उन्हें खीर परोसने के लिए खड़े थे। उन्होंने उस स्वादिष्ट खीर में अपनी एक उंगली डुबोई और बस उतना सा ही खाकर बोले कि इस खीर को अपने पूरे शरीर पर मल लूं। मैंने निःसंकोच उनकी आज्ञा का पालन किया। उन्होंने रुक्मिणी की ओर देखा। उनकी इच्छा समझ मैंने रुक्मिणी को भी खीर लगा दिया। तत्पश्चात वे बाहर आये और एक रथ के घोड़ों को हटाकर उसमें रुक्मिणी को ही जोत दिया। जैसे अश्वों पर कशाघात होते हैं, वैसे ही रुक्मिणी को भी कशाघात सहने पड़े।
द्वारिका की वीथियों पर उस रथ पर बैठे वे साधु रुक्मिणी की पीठ पर प्रहार करते हुए चले जा रहे थे। अंततः वे उतरे और पैदल ही एक दिशा में चलने लगे। हम उनके पीछे भागे।
“वे एक स्थान पर रुके और रुक्मिणी से बोले कि उनकी परीक्षा पूर्ण हुई। घावों को त्वरित रूप से ठीक करने के लिए औषधि देते हुए उसे अनन्त आशीर्वाद दिया और मुझसे बोले, ‘मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। संसार ने तुम्हारी उदण्डता को कई बार देखा है। अपनी माता और ग्रामवासियों को सताने से लेकर पापी राक्षसों, असुरों और अन्यायी राजाओं का वध करते आये हो।
तुमने सदैव अपने मन की ही की है। आज संसार ने तुम्हारा विनय भी देख लिया। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। आगे एक महायुद्ध होने वाला है। मुझे ज्ञात है कि उस युद्ध में तुम्हें असंख्य बार असंख्य घाव लगेंगे, और तुम उनका प्रतिकार भी नहीं करोगे। अतः, शरीर के जिस भी अंग पर तुमने खीर का लेपन किया है, वह घावों को सहन कर लेगा। वे अतिशीघ्र भर जाएंगे। परन्तु कृष्ण, तुमने अपने तलवों पर खीर नहीं मला। चलो, यह भी ठीक ही हुआ। तुम्हें भी एक बहाना मिल जाएगा।”
व्याध, जो अपने हाथ से माधव के तलुओं से निकलते रक्त को रोकने का प्रयास करते हुए उनकी बात सुन रहा था, बोला, “बहाना कैसा कृष्ण? और तुमने कहा था कि मेरा बाण महादेव का प्रसाद है। सो कैसे?”
“मृत्यु तो निश्चित है न मित्र। मृत्यु के लिए कोई न कोई तो बहाना चाहिए ही। मेरा जीवन पूर्ण हुआ। जिस उद्देश्य के लिए मेरा जन्म हुआ था, वह पूर्ण हुआ। वे साधु, वे महात्मा दुर्वासा महारुद्र के ही अंश हैं। उन्होंने ही मेरे पूरे शरीर को निरोगी होने का आशीर्वाद दिया था और एक स्थान छोड़ दिया कि मेरी मृत्यु को मार्ग मिल सके।”
“तो क्या आप सच में मर जाएंगे? फिर संसार का क्या होगा?”
“संसार तो मेरे होने से पहले भी था मित्र, और मेरे जाने के बाद भी होगा। धर्म की स्थापना हो चुकी है। मेरा उद्देश्य पूर्ण हो चुका है। जीवन नश्वर है। पर धर्म और अधर्म का युद्ध शाश्वत है। पूर्वकाल में भी जब-जब धर्म की हानि हुई, कोई न कोई आया था। भविष्य में भी जब-जब पुनः अधर्म प्रबल होगा, कोई न कोई किसी अन्य रूप में आएगा ही।
“अब तुम जाओ मित्र। बहुत बोल लिया मैंने। जीवन भर बोलता ही तो रहा हूँ। अब बस शांति चाहता हूँ। जाओ, अपने मन पर कोई बोझ न रखो। जाओ। तुम्हारा कल्याण हो।”
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