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पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक:वल्लभाचार्य

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भारत अनेकता में एकता रखने वाला देश है। यहां पर विभिन्न धर्म, विभिन्न संस्कृतियों के लोग वास करते हैं। यहां तो प्रकृति में भी विविधता देखने को मिलती है। कहीं बहुत तेज गर्मी तो कहीं कडक़ड़ाती ठंड, कहीं दूर-दूर तक सुनहरा रेगिस्तान तो कहीं पहाड़ ही पहाड़। इन्हीं भिन्नताओं में जो एक चीज हमें बांधे रखती है, वह है हमारी भारतीयता और भारतीयों का अध्यात्म से बहुत गहरा नाता रहा है। अध्यात्म भी हमारे यहां भिन्न प्रकार का मिलता है, कई प्रकार की भक्ति मिलती है। कोई ईश्वर के साकार यानी सगुण रूप को मानता है तो कोई निराकार यानी निर्गुण रूप को।

जब भी भक्ति या अध्यात्म की बात होती है तो याद आती है भारत में भक्ति की अविरल धाराओं की जो शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, आचार्य निंबार्क और वल्लभाचार्य से होती हुई अभी तक नए-पुराने रूपों में बहती चली आ रही हैं। वल्लभाचार्य कृष्ण भक्ति शाखा के वह आधारस्तंभ हैं जिन्होंने साधना के लिए पुष्टिमार्ग से परिचित करवाया, जिन्होंने सूरदास को पुष्टिमार्ग का जहाज बनाया। पुष्टिमार्ग के इस प्रवर्तक की जयंती वैशाख के पावन मास में मनाई जाती है। माना जाता है कि वैशाख मास की कृष्ण एकादशी को कृष्णभक्ति के मार्ग को दिखाने वाले सूरदास को लीलाधर की लीलाओं से परिचित कराने वाले वल्लभाचार्य का जन्म हुआ था।

वल्लभाचार्य का जीवन परिचय

पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य जी का जन्म विक्रमी संवत 1535 में दक्षिण भारत के कांकरवाड़ ग्राम, जो कि वर्तमान में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निकट चंपारण है, में तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मण भट्ट जी के घर हुआ। उनकी माता का नाम इल्लमागारू था। उनके जन्म को लेकर एक किंवदंती भी प्रचलित है जिसके अनुसार कहा जाता है कि उनका जन्म माता इल्लमागारू के गर्भ से अष्टमास में ही हो गया था। उनको मृत जान माता-पिता ने छोड़ दिया जिसके पश्चात श्री नाथ जी ने स्वयं स्वप्न में माता इल्लमागारू को दर्शन दिए और कहा कि स्वयं श्री नाथ जी उनके गर्भ से प्रकट हुए हैं। जिस शिशु को आप मृत जान छोड़ आए हैं, वह जीवित है। तत्पश्चात माता-पिता उन्हें वापस ले जाने हेतु उसी स्थान पर पहुंचे तो देखा कि अग्निकुंड के बीच वह अंगूठा चूस रहे हैं और अग्निकुंड के इर्द-गिर्द सात अवगढ़ साधु बैठे हैं।

जब उन्होंने साधुओं से कहा कि शिशु उनका है तो उन्होंने अग्निकुंड से शिशु को निकालने में अपनी असमर्थता प्रकट की। तब उन्होंने श्री नाथ जी का ध्यान लगाया और अपने शिशु को अग्निकुंड से निकाला। इसी कारण श्री वल्लभाचार्य जी को अग्नि-अवतार भी माना जाता है और चंपारण पुष्टिमार्गी साधना का स्थल माना जाता है। श्री वल्लभाचार्य जी के अनुसार ब्रह्म, जगत और जीव की सत्ता को स्वीकार्य तत्त्व मानते हैं। उन्होंने ब्रह्म के आधिदैविक, आध्यात्मिक और अंतर्यामी आदि तीन स्वरूप बताए हैं। पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण को वह परब्रह्म स्वीकार करते हैं। उनके लोक को विष्णु लोक से ऊपर बताते हैं और गोलोक गमन को ही जीव की सर्वोत्तम गति मानते हैं, क्योंकि वहीं पर यमुना, वृंदावन, निकुंज व गोपियों को वह नित्य विद्यमान बताते हैं। वहीं पर वह लीलाधर की लीलाएं नित्य देखते हैं।

वल्लभाचार्य की रचनाएं

उन्होंने स्वयं तो ग्रंथ लिखे ही हैं, साथ ही सूरदास जैसे कवि को लीलाधर की लीलाओं से परिचित करवाकर उन्हें भी लीलागान की प्रेरणा दी जिसके कारण हम श्री कृष्ण की बाल लीलाओं से रूबरू होते हैं। उन्होंने अनेक भाष्य, ग्रंथ, नामावलियां, स्तोत्र आदि की रचना की है। उनकी प्रमुख सोलह रचनाओं को षोडष ग्रंथ के नाम से जाना जाता है। इनमें हैं : यमुनाष्टक, बालबोध, सिद्धांत मुक्तावली, पुष्टि प्रवाह मर्यादा भेद, सिद्धांत रहस्य, नवरत्न स्तोत्र, अंत:करण प्रबोध, विवेक धैर्याश्रय, श्री कृष्णाश्रय, चतु:श्लोकी, भक्तिवर्धिनी, जलभेद, पञ्चपद्यानि, संन्यास निर्णय, निरोध लक्षण, सेवाफल आदि।

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