पिछले कुछ वर्षों में जहां भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार संकटग्रस्त होती जा रही है, वहीं भाजपा लगातार अमीर होती जा रही है। जो पैसा उसने अपने सैकड़ों भव्य कार्यालयों के निर्माण पर, और अपने चुनाव प्रचार अभियान पर खर्च किया है, पार्टी द्वारा घोषित आय की तुलना में वह कई गुना ज्यादा है।
कृष्णागिरि। उत्तर-पश्चिमी तमिलनाडु में बैंगलोर-चेन्नई राष्ट्रीय राजमार्ग पर, कृष्णागिरि शहर से तीन किलोमीटर दूर, एक चमकदार नई इमारत खड़ी है। यह तमिलनाडु के कृष्णागिरि जिले में भाजपा का नया पार्टी कार्यालय है।
पिछले साल ही इस पांच मंजिला इमारत का उद्घाटन किया गया था। यह लगभग 12 मीटर चौड़ी और 16 मीटर लंबी; नारंगी हाइलाइट्स के साथ क्रीम और सफेद रंग में रंगी हुई है, जैसे कोई आवासीय अपार्टमेंट हो। लेकिन दो चीजें अजीब हैं।
एक, तो सामने काफी बड़ी पार्किंग है जिसका क्षेत्रफल भवन के क्षेत्रफल से तीन गुना ज्यादा है। दूसरे, इसके ऊपर भारतीय जनता पार्टी का ट्रेडमार्क भगवा और हरा कमल उकेरा गया है।
अगस्त 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी, कि सभी राज्यों और जिलों में “सभी आधुनिक संचार सुविधाओं से सुसज्जित” पार्टी के कार्यालय होने चाहिए। अगले ही साल बीजेपी ने देश के 694 में से 635 जिलों में नये कार्यालय बनाने का फैसला किया। मार्च 2023 तक, उस लक्ष्य को बढ़ाकर 887 जिला पार्टी कार्यालयों तक कर दिया गया था।
इसके पीछे एक ठोस तर्क था। जैसा कि भाजपा के महासचिव अरुण सिंह ने 2020 में इकोनॉमिक टाइम्स को बताया था, “पहले कोई विधायक या स्थानीय नेता अपने घर में कार्यालय बनाता था। इस वजह से कई अन्य नेता कार्यालय नहीं आते थे। चूंकि पार्टी बड़ी हो गयी है, इसलिए उसके पास लाइब्रेरी, कॉन्फ्रेंस हॉल और वीडियो और ऑडियो कॉन्फ्रेंसिंग रूम जैसी सभी सुविधाओं से सुसज्जित अपने कार्यालय होने चाहिए।”
मार्च 2023 में, कृष्णागिरि कार्यालय पहुंच कर उसका उद्घाटन करते हुए, तथा उसी के साथ तमिलनाडु के नौ अन्य कार्यालयों का वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से उद्घाटन करते हुए, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने संवाददाताओं से कहा कि 290 जिला कार्यालयों पर काम पूरा हो चुका है। बाकी पर काम चल रहा है। भाजपा की इन निर्माण परियोजनाओं पर अभी तक उतना ध्यान नहीं दिया गया है, जितना चाहिए था।
भाजपा का निर्माण अभियान
आकार के लिहाज से, कृष्णागिरि में पार्टी कार्यालय कोई अजूबा नहीं है। जैसा कि ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने 2016 में बताया था, ओडिशा में भी, भाजपा के नये जिला कार्यालयों का निर्माण क्षेत्र लगभग 10,000 वर्ग फुट, प्रचुर पार्किंग स्थान और 250-300 लोगों के बैठने की क्षमता वाला एक सम्मेलन कक्ष है। अन्य जिला कार्यालय भी काफी बड़े हैं, चाहे मणिपुर में हों (जैसे कि थौबल में पार्टी कार्यालय, जिसे हाल ही में जला दिया गया), केरल (कन्नूर) या हिमाचल प्रदेश (ऊना) में।
ये 290 से अधिक जिला कार्यालय केवल शुरुआत हैं। भाजपा बड़े शहरों में भी पार्टी कार्यालय बना रही है। इनमें से कई काफी बड़े हैं, अच्छी तरह से सुसज्जित हैं और बेहद खास जगहों पर बनाये गये हैं।
उदाहरण के लिए, 2018 में, पार्टी ने मध्य दिल्ली के दीन दयाल उपाध्याय मार्ग पर अपने नये 1,70,000 वर्ग फुट के मुख्यालय का अनावरण किया, जो शहर के कनॉट प्लेस शॉपिंग परिसर से एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर है। इसके पहले भाजपा के मुख्य कार्यालय, अशोक रोड के लुटियंस बंगलो, 11 नंबर, और उससे सटे हुए, 9 नंबर के क्षेत्रफल की तुलना शायद ही इस नये भव्य कार्यालय परिसर से की जा सके। इसके उद्घाटन के मौके पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि नया कार्यालय दुनिया के किसी भी अन्य राजनीतिक दल के कार्यालय से बड़ा है। जबकि भाजपा अभी भी 11, अशोक रोड का उपयोग अपने आईटी सेल के मुख्यालय और अपने चुनाव ‘वॉर रूम’ के रूप में कर रही है।
एक और उदाहरण लेते हैं। 2021 में, भाजपा ने दिल्ली-जयपुर एक्सप्रेसवे पर सिग्नेचर टॉवर क्रॉसिंग पर गुड़गांव भाजपा के लिए एक नये कार्यालय का अनावरण किया। कार्यालय के बारे में बताते हुए, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने बताया कि यह “लगभग 100,000 वर्ग फुट के क्षेत्र में फैला हुआ है… इसमें पुस्तकालय, मीडिया कक्ष, आईटी कक्ष और विभिन्न पार्टी प्रकोष्ठों के लिए अलग-अलग अहाते हैं।” इसमें बेसमेंट पार्किंग की भी दो मंजिलें हैं; एक सभागार है जहां 600-700 लोग बैठ सकते हैं; दो बड़े सम्मेलन कक्ष; और अन्य जिलों और राज्यों से आने वाले पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए आवासीय व्यवस्था है। इसकी लागत अज्ञात है।
दो साल बाद, मोदी ने भाजपा के इस नये मुख्यालय वाली सड़क के पार बने एक आवासीय-सह-सभागार परिसर का उद्घाटन किया। मीडिया ने बताया कि इसका उपयोग पार्टी के महासचिव/मंत्री स्तर के नेताओं और बड़ी पार्टी बैठकों के लिए किया जाएगा।
भारत के कई अन्य शहरों में भी नये कार्यालय खुले हैं, जैसे कि त्रिवेन्द्रम और ठाणे में। पार्टी दिल्ली भाजपा और मध्य प्रदेश भाजपा के लिए भी नये कार्यालय बना रही है।
‘इकोनॉमिक टाइम्स’ की 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भाजपा के दिल्ली कार्यालय में दक्षिण भारतीय मंदिर वास्तुकला से भी डिजाइन ली गयी है। यह मध्य दिल्ली में 825 वर्ग मीटर के भूखंड पर बन रहा है; और इसका निर्मित क्षेत्र 30,000 वर्ग फुट है। दिल्ली बीजेपी के कोषाध्यक्ष विष्णु मित्तल ने अखबार को बताया, ‘‘इमारत में 50 वाहनों की पार्किंग के लिए दो बेसमेंट होंगे।’’
जैसा कि मित्तल ने अखबार को बताया, इसके भूतल पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कक्ष, रिसेप्शन और कैंटीन होगी। प्रथम तल पर 300 लोगों की बैठने की क्षमता वाला एक सभागार है। दूसरी मंजिल पर दिल्ली भाजपा के प्रकोष्ठों और कर्मचारियों के कार्यालय हैं। तीसरी मंजिल पर पार्टी उपाध्यक्षों, महासचिवों और सचिवों के कार्यालय हैं। और, शीर्ष मंजिल पर, दिल्ली भाजपा अध्यक्ष और महासचिव (संगठन) के कार्यालयों के अलावा दिल्ली के सांसदों और राज्य इकाई के प्रभारियों के लिए कमरे हैं।
हलांकि इन सभी इमारतों की लागत अज्ञात है, फिर भी, भोपाल में मध्य प्रदेश भाजपा के नये कार्यालय की लागत लगभग 100 करोड़ रुपये होने का अनुमान है। इसी तरह, असम भाजपा का पार्टी कार्यालय एक लाख वर्ग फुट में बनाया गया है, जिसमें एक गेस्ट हाउस, एक आधुनिक मीडिया सेंटर, पांच मीटिंग हॉल और 350 सीटों वाला सभागार है, जिसमें 5,000 लोग रह सकते हैं और इसकी कीमत 25 करोड़ रुपये है।
कुल मिलाकर, इन निर्माण कार्यों का पूरा विवरण अज्ञात है। अतीत में, नड्डा ने 900 नये पार्टी कार्यालयों का अनुमान बताया था। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कितने कस्बों और शहरों में बन रहे हैं। इस ताबड़तोड़ निर्माण अभियान के पीछे एक जटिल प्रश्न छिपा हुआ है।
एक विचित्र विरोधाभास की कहानी
जब तक यह लेख प्रेस में जाएगा, 2024 के चुनावों के पहले दो चरण ख़त्म हो चुके होंगे। इस बार चुनाव पहले की तुलना में अधिक फीका लग रहा है। इसके संभावित कारणों पर काफी लिखा गया है। जैसे कि, एक मजबूत विपक्ष की अनुपस्थिति; एक ऐसा चुनाव जिसमें आधिकारिक तौर पर मुद्दे ही नहीं हैं; या कई चरणों और महीनों तक विस्तृत मतदान अवधि। इन सबके अलावा मतदाता की थकान भी एक कारण है। जब तक वे नोटबंदी और जीएसटी के आर्थिक झटकों से उबर पाते, भारतीयों पर कोविड का हमला हो गया, जिसमें राज्य ने उनके साथ बेहद खराब व्यवहार किया। नतीजा यह हुआ कि अर्थव्यवस्था काफी ग़ैर-बराबरी के साथ पटरी पर लौटी, जिसमें बेहद अमीरों को बेहिसाब मुनाफा हुआ, जबकि शेष पूरा देश बेरोजगारी के भंवर में फंस गया। आज का समय ऐसा है जब भारत में आय असमानता 100 साल के उच्चतम स्तर पर है; और लोग पहले की तरह बचत नहीं कर पा रहे हैं।
लेकिन आम देशवासियों के इस संघर्ष के विपरीत, भाजपा की अर्थव्यवस्था में नाटकीय सुधार देखा गया है। यह न केवल चुनावों में प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ रही है, बल्कि मार्च 2023 तक भाजपा ने 5,400 करोड़ रुपये की भारी-भरकम नकदी का भंडार बनाये रखते हुए भी इसने बेहिसाब अचल संपत्ति भी जमा कर लिया है।
इमारतों में पार्टी का निवेश तो साफ-साफ दिख रहा है। लेकिन इसने राज्य और राष्ट्रीय चुनावों में किये गये खर्च के मामले में भी अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। 2019 के चुनावों और वर्तमान चुनावों, दोनों में यही स्थिति है। भाजपा पर, अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए, बार-बार प्रतिद्वंद्वी दलों में दलबदल कराने का भी आरोप लगाया गया है और विपक्षी नेताओं और प्रमुख नागरिकों पर निगरानी रखने के लिए सरकार द्वारा ‘पेगासस’ जैसे महंगे हाई-टेक स्पाइवेयर और और उसके नये वेरिएंट्स के इस्तेमाल के भी आरोप लगाये गये हैं।
तो आख़िर भाजपा के पास कितना पैसा है?
हलांकि यह सबको पता है कि भारत के राजनीतिक दल चुनाव आयोग को अपनी वित्तीय रिपोर्ट बेहद पवित्र बनाकर पेश करते हैं, इसके बावजूद इस सवाल पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है, जितना दिया जाना चाहिए। पार्टियांअपनी पूरी आय नहीं बतातीं। सत्ता सुनिश्चित करने के लिए वे जो खर्च करती हैं और जिन संसाधनों का इस्तेमाल करती हैं, वे उसका खुलासा नहीं करतीं, या उसके बेहद छोटे हिस्से को ही दिखाती हैं।
भाजपा के मामले में, यह एक विशेष रूप से हैरतअंगेज चूक है। पार्टी की वित्तीय स्थिति का करीबी जायजा लिया ही नहीं गया है। हलांकि, रायपुर स्थित एक राजनीतिक पर्यवेक्षक ने ‘द वायर’ को बताया, “भाजपा का चुनावी प्रभुत्व उसके वित्तीय प्रभुत्व से पैदा होता है।”
इसके बावजूद, देश के राजनीतिक टिप्पणीकारों ने, भाजपा की जीत जारी रखने की क्षमता पर अपने विशेष स्तम्भों और किताबों में, पार्टी के अर्थशास्त्र की जांच नहीं की है।
इस सोचे-समझे अंधेपन की कीमत बहुत अधिक है। भाजपा के सत्ता में आने के दस साल बाद भी, भारतीयों को पता नहीं है कि इस पार्टी की जेब कितनी गहरी है, न यही पता है कि इतना भारी-भरकम वित्तीय रिजर्व कैसे बनाया गया है।
हलांकि, पार्टी द्वारा व्यय की दो प्रमुख मदों, इसके भवन-निर्माण कार्य, और इसके चुनाव अभियान के खर्चों पर एक नज़र डालने से कुछ सांकेतिक संख्याएं उभर कर सामने आती हैं, जो यह बताती हैं कि 2014 और 2023 के बीच भाजपा द्वारा आधिकारिक तौर पर घोषित आय 14,663 करोड़ रुपये, इसकी वास्तविक आय से बहुत कम है।
1. बीजेपी अपनी नई इमारतों पर कितना खर्च कर रही है?
पार्टी के खर्च पर नज़र रख कर ही इस प्रश्न का उत्तर दिया जा सकता है। आइए इमारतों पर हुए खर्च से शुरुआत करते हैं। 2014-15 और 2022-23 के बीच अपनी वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, भाजपा ने भूमि और भवनों पर 1,124 करोड़ रुपये खर्च किए हैं।
‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को 2016 में बताया गया था कि ओडिशा में बनने वाले प्रत्येक जिला कार्यालय की लागत 2 करोड़ रुपये से 3 करोड़ रुपये के बीच होगी। यानि 36 कार्यालयों के लिए कुल 80 करोड़ रुपये का खर्च आएगा।
वह लगभग आठ साल पहले की बात है। जमीन की क़ीमतों और निर्माण लागत में उछाल को देखते हुए, हाल में बनायी गयी इमारतों की लागत अधिक होने की संभावना है। उदाहरण के लिए, कृष्णागिरि कार्यालय, चेन्नई-बैंगलोर राजमार्ग पर स्थित है, जो बहुत तेज औद्योगिकीकरण वाले इलाक़े, होसुर, से बमुश्किल तीस मिनट की दूरी पर है।
एक स्थानीय बिल्डर ने ‘द वायर’ को बताया कि यहां जमीन की दरें 5,000 रुपये प्रति वर्ग फुट हैं । यानि, प्लॉट के लिए लगभग 5 करोड़ रुपये का खर्च।
उन्होंने कहा कि बुनियादी निर्माण पर 1,500 रुपये प्रति वर्ग फुट की लागत आएगी जो 3,000 रुपये प्रति वर्ग फुट तक भी जा सकता है। कुल मिलाकर, उन्होंने निर्माण की संभावित लागत कम से कम 1.5 करोड़ रुपये आंकी। उन्होंने कहा, ‘‘एक अच्छी तरह से सुसज्जित इमारत की लागत करीब 3 करोड़ रुपये होगी।’’
मार्च 2023 में, नड्डा ने कहा कि 290 पार्टी कार्यालय पूरे हो चुके हैं। अगर हम यह मान लें, कि इन इमारतों (भूमि और भवन को मिलाकर) की लागत पिछले आठ वर्षों में 3 करोड़ रुपये पर स्थिर बनी हुई है, तब भी पार्टी का परिव्यय अकेले जिला कार्यालयों पर 870 करोड़ रुपये बैठता है। सभी 887 जिला कार्यालयों के लिए, पार्टी का नियोजित परिव्यय 2,661 करोड़ रुपये हो जाता है।
पार्टी बड़े शहरों में बड़े कार्यालय भी बना रही है। जैसा कि इस लेख में ऊपर कहा गया है, इसके गुवाहाटी कार्यालय की लागत 25 करोड़ रुपये है और भोपाल कार्यालय की लागत 100 करोड़ रुपये होने की उम्मीद है। प्रति राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में एक बड़े कार्यालय, 25 करोड़ रुपये की दर से, कुल 900 करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च जोड़ लिया जाए, तो सभी पार्टी कार्यालयों पर कुल खर्च 3,500 करोड़ रुपये पहुंच जाता है।
यह संख्या ज्यादा भी हो सकती है। जिला कार्यालयों पर 3 करोड़ रुपए से अधिक की लागत आ सकती है। उदाहरण के लिए, ओडिशा में जमीन का बाजार मूल्य बिक्री-पत्र में उल्लिखित मूल्य से अधिक बताया गया है। पार्टी प्रत्येक राज्य में एक से अधिक बड़े कार्यालय बना सकती है। इसके अलावा, जैसे हालात हैं, कांग्रेस नेता कमल नाथ ने आरोप लगाया है कि भाजपा ने अकेले अपने दिल्ली मुख्यालय पर 700 करोड़ रुपये खर्च किए हैं।
‘द वायर’ ने पार्टी की निर्माण योजनाओं और बजट के विवरण के लिए भाजपा के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष राजेश अग्रवाल को ईमेल किया है। पार्टी के संयुक्त कोषाध्यक्ष नरेश बंसल को भी प्रश्न ईमेल किए गये हैं। इसके बाद दोनों को व्हाट्सएप पर भी इन ईमेल के बारे में जानकारी दी गयी। उनसे जवाब मिलने पर यह लेख अपडेट कर दिया जाएगा।
2. बीजेपी चुनाव प्रचार पर कितना खर्च कर रही है?
वित्त वर्ष 2015-16 और वित्त वर्ष 2022-23 के बीच के वर्षों के लिए, भाजपा की वार्षिक रिपोर्ट में चुनाव प्रचार (“चुनाव/सामान्य प्रचार”) पर कुल 5,744 करोड़ रुपये खर्च बताया गया है। हलांकि, ‘सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़’ (सीएमएस) जैसे स्वतंत्र अध्ययन, अकेले 2019 के चुनावों में पार्टी का खर्च “27,000 करोड़ रुपये के करीब” आंकते हैं। वास्तविक रिपोर्टें भी पार्टी उम्मीदवारों के चुनाव खर्च को चुनाव आयोग की प्रति निर्वाचन क्षेत्र 1 करोड़ रुपये की सीमा से कहीं अधिक बताती हैं।
यहां एक और बड़ा सवाल है जो अभी तक नहीं पूछा गया है। ‘सीएमएस’ के अनुसार, 2019 के राष्ट्रीय चुनावों में राजनीतिक दलों द्वारा किए गये कुल खर्च (60,000 करोड़ रुपये) का लगभग 45% (यानि 27,000 करोड़ रुपये) अकेले भाजपा ने किया था। जबकि 1998 में, कुल व्यय में भाजपा की हिस्सेदारी बहुत कम, मात्र 20% थी। 2024 के चुनावों में दोगुना, यानि 135,000 करोड़ रुपये, खर्च होने का अनुमान है।
अगर पार्टी का खर्च हिस्सा 2019 की तरह ही रहा, तो भी वह 60,750 करोड़ रुपये खर्च करेगी। जो कि इन दोनों लोकसभा चुनावों के बीच कुल 87,750 करोड़ रुपये का खर्च बैठता है। वहीं, अगर वह 2024 में भी, 2019 की तरह 27,000 करोड़ रुपये ही खर्च करती है, तो वह कुल 54,000 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी होगी।
इसके अलावा, राज्यों के चुनाव हैं। यहां भी, भाजपा ने अपने प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ दिया है, रायपुर स्थित एक राजनीतिक पर्यवेक्षक ने आरोप लगाया कि पार्टी ने छत्तीसगढ़ राज्य चुनावों में प्रति सीट 3 से 4 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। उन्होंने कहा, “यह सीधे-सीधे उम्मीदवारों को दी गयी नकदी है। इसमें सोशल मीडिया आदि पर किया गया पार्टी का खर्च शामिल नहीं है।”
चुनाव आयोग द्वारा प्रति विधानसभा सीट पर प्रति उम्मीदवार के लिए खर्च की सीमा 40 लाख रुपये को ध्यान में रखते हुए, इन आंकड़ों को देखिए।
इस बीच, भारत में कुल 4,123 राज्य-स्तरीय निर्वाचन क्षेत्र हैं। पिछले दस वर्षों में, उनमें से प्रत्येक में दो बार चुनाव हुए हैं। प्रत्येक विधानसभा चुनाव पर औसतन 2 करोड़ रुपये का खर्च मानने पर भी यह 16,492 करोड़ रुपये बैठता है।
‘द वायर’ ने अग्रवाल और बंसल से ‘सीएमएस’ के अनुमान, छत्तीसगढ़ में पार्टी के खर्च के आरोपों और ‘द वायर’ की गणना पर टिप्पणी करने के लिए कहा है। उनके जवाब देने पर यह लेख अपडेट कर दिया जाएगा।
3. यह पैसा कहां से आ रहा है?
केवल इमारतों और प्रचार पर भाजपा द्वारा किये गये खर्च के आंकड़े 74,053 करोड़ रुपये से 107,803 करोड़ रुपये के बीच पहुंचते हैं, जो 2014-15 और 2022-23 के बीच पार्टी की घोषित आय 14,663 करोड़ रुपये से पांच से सात गुना अधिक है। यहां तक कि चुनावी बांड से जिस आय का खुलासा हुआ है, वह रकम भी पार्टी द्वारा किये गये कुल खर्च का 10% भी नहीं है।
बीजेपी का खर्च, जो साफ-साफ दिख रहा है-
जिला कार्यालय: 2,661 करोड़ रुपये
अन्य इमारतें: 900 करोड़ रुपये
राज्य चुनाव: 16,492 करोड़ रुपये
लोकसभा चुनाव: 54,000 करोड़ रुपये से 87,750 करोड़ रुपये
यहां चार बातें समझना जरूरी है।
एक: सही जानकारी के अभाव में, जो कोई भी भाजपा के वित्त की हक़ीक़त को समझना चाहता है, उसे केवल मोटामोटी की गयी गणना पर भरोसा करना होगा।
दो: केवल इमारतों के निर्माण और चुनाव प्रचार के खर्चों से ही समझा जा सकता है कि भाजपा की जेब कितनी गहरी है। खर्चों की अन्य मदें तो अभी अलग हैं। उदाहरण के लिए, पिछले दस वर्षों में, पार्टी ने बार-बार सरकारों को गिराने के लिए राजनीतिक दलबदल को एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया है। मार्च 2021 तक, जैसा कि ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ ने बताया, 182 विधायकों ने भाजपा में शामिल होने के लिए अपनी पार्टियां छोड़ दी थीं। पत्रकार सुनेत्रा चौधरी के अनुसार, मार्च 2024 तक यह संख्या 444 विधायकों की थी।
बहुत सारे मामलों में, जब राज्य की जांच एजेंसियों की नज़र उन पर पड़ी तो प्रतिद्वंद्वी विधायक भाजपा में शामिल हो गये। अन्य मामलों में, भाजपा पर प्रतिद्वंद्वी राजनेताओं को नकद पैसे का लालच देने का आरोप लगाया गया है। इस साल मार्च में अरविंद केजरीवाल ने आरोप लगाया था कि ‘आप’ के 7 विधायकों को बीजेपी ने 25 करोड़ रुपये की पेशकश की थी। अप्रैल में, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि भाजपा ने कांग्रेस विधायकों को 50 करोड़ रुपये की पेशकश की थी। इससे पहले, 2022 में, गोवा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अमित पाटकर ने दावा किया था कि गोवा के आठ विधायकों को भाजपा में शामिल होने के लिए 40-50 करोड़ रुपये के बीच भुगतान किया गया था। तेलंगाना में, सीबीआई आधिकारिक तौर पर एक आपराधिक मामले की जांच कर रही है जिसमें चार बीआरएस विधायकों ने दावा किया कि उन्हें भाजपा में शामिल होने के लिए 50 करोड़ रुपये और यहां तक कि 100 करोड़ रुपये तक की पेशकश की गयी थी।
हलांकि, ये आरोप अटकलों के दायरे में ही बने हुए हैं। जांच एजेंसियों, चुनाव आयोग या देश के राजनीतिक टिप्पणीकारों ने न तो इन आरोपों की पुष्टि की है न ही उनका खंडन किया है।
यह भी स्पष्ट नहीं है कि पार्टी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों और पत्रकारों पर निगरानी के लिए किये गये खर्च का भुगतान किसने किया है। फोरेंसिक परीक्षणों से पता चला है कि 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर के आई-फोन पर ‘पेगासस’ सक्रिय पाया गया था। वे उस समय तृणमूल कांग्रेस के साथ जुड़े हुए थे। यदि किसी सरकारी विभाग ने यह जासूसी की थी, तो यह जनता की निधि का सरासर दुरुपयोग था। लेकिन यदि भाजपा ने अपने खर्चे पर यह जासूसी करायी थी, तो उसके वित्तीय भंडार के बारे में नये सिरे से सवाल उठते हैं। ‘पेगासस’ जैसे स्पाइवेयर महंगे हैं, प्रति फोन संक्रमण की लागत 3.7 करोड़ रुपये है जो बाद में प्रत्येक 10 फोन के लिए 4.8 करोड़ रुपये हो जाता है।
आरएसएस का मुख्यालय
संयोग देखिए, कि भाजपा संघ परिवार की एकमात्र सदस्य नहीं है जो इमारतें खड़ी कर रही है। खुद आरएसएस भी मध्य दिल्ली में 12 मंजिलों पर 3.5 लाख वर्ग फुट का एक नया कार्यालय बना रहा है। अन्य शहरों में भी नई इमारतें बन रही हैं।
तीन: भाजपा की आय की इस तरह से मोटामोटी गणना करने की हमारी मजबूरी, खुद भाजपा पर एक आरोप है। 2014 में, नरेंद्र मोदी और भाजपा राजनीतिक भ्रष्टाचार को समाप्त करने का वादा करके सत्ता में आए। 2017 में, उस वादे को दुहराते हुए, उन्होंने यह कहते हुए चुनावी बांड पेश किया कि वे राजनीतिक फंडिंग को अधिक पारदर्शी बनाएंगे, और यह सुनिश्चित करेंगे कि पार्टियां “बिल्कुल साफ-सुथरे धन” से चलें।
पिछले महीने में, मोदी और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण दोनों ने उन दावों को दुहराया है, कि चुनावी बांड “चुनावी वित्तपोषण को साफ-सुथरा करने” और “चुनावों में काले धन के उपयोग से निपटने” के लिए थे। लेकिन इसके बावजूद, क्या पार्टी की वार्षिक रिपोर्ट में उल्लिखित उसकी आय, और उसके द्वारा किये गये बेहिसाब खर्चों में कोई मेल है?
अतीत में, भाजपा ने बार-बार कहा है कि उसकी इमारतों का पैसा पार्टी कार्यकर्ताओं के दान और स्वैच्छिक योगदान से आता है। हलांकि, ऐसी कोई आय पहले ही पार्टी की वार्षिक रिपोर्ट में “स्वैच्छिक योगदान” के अंतर्गत गिन ली गयी होगी।
‘द वायर’ ने अपने ईमेल में अग्रवाल और बंसल से पूछा है, कि क्या ऐसा है?
चार: अवैध धन लंबे समय से भारत के राजनीतिक दलों के वित्तपोषण का प्रमुख हिस्सा रहा है। यहां कर्नाटक के उन ठेकेदारों के बारे में सोचें जिन्होंने 40% कमीशन की शिकायत की थी; या राजनीतिक रूप से जुड़ी वे कंपनियां जो निविदाएं हासिल करती हैं; या वे पार्टियां जो निजी फर्मों से धन उगाही करती हैं और इसके बदले में फर्मों को लाभ पहुंचाती हैं। यह बात चुनावी बांडों के मामले में साफ-साफ दिखती है।
पार्टियां शराब और रेत खनन जैसे व्यवसायों में अवैध माफिया राज भी चलाती हैं, और उन पर विदेशी सौदों में हेराफेरी करके पैसे कमाने के आरोप भी लगते हैं।
इनमें से प्रत्येक तरीके से अन्ततः अप्रत्यक्ष रूप से जनता से ही वह धन छीना जाता है। जब सड़कें ख़राब तरीके से बनाई जाती हैं, तो माइलेज गिर जाता है और पेट्रोल और डीज़ल पर लोगों का खर्च बढ़ जाता है। जब राजनीतिक रूप से जुड़ी कंपनियों को समर्थन मिलता है, तो अन्य कंपनियां निवेश धीमा कर देती हैं, जिससे देश में नौकरियों का संकट गहरा हो जाता है। जब राजनेता रेत और शराब जैसे व्यवसायों पर कब्ज़ा कर लेते हैं, तो राज्य का राजस्व गिर जाता है। जब सरकारी विभागों के पास धन की कमी हो जाती है तो स्वास्थ्य और शिक्षा पर जेब से किया जाने वाला खर्च बढ़ जाता है। जब विदेशी सौदों में अवैध डील हो जाती है, तो देश को अधिक भुगतान करना पड़ता है। इसकी वजह से भी बेहद जरूरी मदों में धन का आबंटन और खर्च घटाना पड़ जाता है।
ये नतीजे एक विरोधाभास की ओर इशारा करते हैं, जो इस ‘लोकतंत्र की जननी’ के बारे में अच्छी बात नहीं है। एक तरफ तो इसके 80 करोड़ बच्चों को अपना पेट भरने के लिए मुफ्त खाद्यान्न की आवश्यकता पड़ रही है जबकि दूसरी तरफ, उनका प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां मालदार होती जा रही हैं।
(एम. राजशेखर की रिपोर्ट, ‘द वायर’ से साभार)