हरनाम सिंह
15 मई 1948 को जायनीवादियों द्वारा मित्र देशों की मदद से फिलिस्तीनियों को अपनी मातृभूमि से खदेड़ कर नस्लीय आधार पर इजरायल नामक यहूदी राष्ट्र की घोषणा की गई थी। तब से अब तक फिलिस्तीनी जनता दमन, अत्याचार और हिंसा का शिकार बनी हुई है। 1948 के इसी दिन को संयुक्त राष्ट्र संघ सहित अंतरराष्ट्रीय जगत नकबा (तबाही )दिवस के रूप में याद करता है। इसराइल और हमास के बीच जारी जंग में हजारों फिलिस्तीनी अपनी जान गवां चुके हैं। यह सिलसिला थमा नहीं है। वर्तमान में “नकबा” शब्द चर्चा का विषय बना हुआ है। भारत में भी कई इंसानियत पसंद संगठनों द्वारा नकबा दिवस मनाने का आव्हान किया गया है, ताकि फिलिस्तीन जनता के नरसंहार और उनकी दुर्दशा को याद रखा जा सके, उनके साथ एकजुटता व्यक्त की जा सके।
#यह हुआ था 1948 में
1948 के पूर्व फिलिस्तीन अरबों, यहूदियों, इसाईयों की विविध आबादी का घर था। इन सभी समूहों के जेरूसलम से धार्मिक संबंध थे। 14 मई 1948 को जैसे ही वहां ब्रिटिश शासनादेश समाप्त हुआ, यहूदी नस्लवादियों ने इसराइल राष्ट्र की घोषणा कर दी। इसराइल राष्ट्र की स्थापना के परिणाम स्वरूप 1949 तक 7 लाख 50 हजार फिलिस्तीनियों को अपने घरों, जमीनों से निष्कासित कर दिया गया था। यहूदी सैन्य बलों ने प्रमुख फिलिस्तीनी शहरों पर हमला किया। 530 गांव नष्ट कर दिए गए। दर्जनों सामुहिक नरसंहार हुए। इस दौरान15 हजार फिलिस्तीनियों को अपने प्राण गंवाने पड़े थे। हत्या और प्रलय के 50 साल पूरे होने पर 1998 में फिलिस्तीन नेता यासर अराफात ने नकबा दिवस मनाने की घोषणा की थी। गत वर्ष 15 मई 2023 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी फिलिस्तीन लोगों द्वारा झेले गए ऐतिहासिक अन्याय को याद दिलाने और शरणार्थी संकट पर विश्व का ध्यान आकर्षित करने के लिए नकबा दिवस की 75वीं वर्षगांठ मनाई थी।
#इजराइल फिलिस्तीन संघर्ष
19वीं सदी के अंत में पूर्वी यूरोप में एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में जायोनीवाद (यहूदीवाद) का उदय हुआ, जो इस विश्वास पर आधारित था कि यहूदी एक राष्ट्र या नस्ल है, जो राज्य करने लायक है। 1896 में एक पत्रकार थियोडोर हर्जल ने एक पुस्तक प्रकाशित की थी जिसमें राजनीतिक जायोनीवाद को वैचारिक आधार के रूप में देखा गया। लेखक का निष्कर्ष था कि यूरोप में सदियों पुरानी यहूदी विरोधी भावनाओं और हमलों का उपाय एक यहूदी राज्य का निर्माण है। बाइबल की अवधारणा के आधार पर फिलिस्तीन में एक राज्य निर्माण का आव्हान किया गया कि ईश्वर के द्वारा यहूदियों को पवित्र भूमि का वादा किया गया था।
1882 के बाद से पूर्वी यूरोप के और रुसी यहूदी फिलिस्तीन में आकर बसने लगे, क्योंकि उन देशों में यहूदियों के खिलाफ विरोध की भावनाएं पनपने लगी थी। फिलिस्तीन आए यहूदी राष्ट्रवादी फिलिस्तीन की जमीन पर यहूदी संप्रभुता स्थापित करने की मांग करने लगे।
प्रथम विश्व युद्ध के अंत तक फिलिस्तीन ऑटोमन साम्राज्य के रूप में तुर्की शासन के अधीन था, बाद में यहां ब्रिटिश ने कब्जा कर लिया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी में यहूदियों के नरसंहार पर उन्हें अंतरराष्ट्रीय सहानुभूति मिली। 1920-30 के दौरान ब्रिटिश शासन काल में हजारों फिलिस्तीनी किसानों को उस जमीन से बेदखल कर दिया गया जहां वे सदियों से रह रहे थे। जब इसका विरोध हुआ तो ब्रिटिश ने दमन का सहारा लिया इसी दौरान अंग्रेजों ने फिलिस्तीन का प्रश्न नवगठित संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंप दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 29 नवंबर 1947 को फिलीस्तीन को यहूदी और फिलिस्तीन राज्य में विभाजित
कर दिया। विभाजन के प्रस्ताव में यहूदियों को फिलिस्तीन का 40 प्रतिशत भू भाग दिया गया था। वहां के निवासी फिलिस्तीनी निकटवर्ती अरब देशों में शरण लेने पर मजबूर हुए। विभाजन की योजना में प्रमुख बंदरगाह, कृषि भूमि, यहूदी राज्य इसराइल को सौंप दिए गए। यहूदी राज्य में रहने वाले 5 लाख फिलिस्तिनियों को स्पष्ट रूप से विकल्प चुनने के लिए कहा गया कि वे यहूदी राज्य में अल्पसंख्यक बनकर रहें या अपनी जमीन, मकान छोड़कर चले जाएं। इसके साथ ही यहूदी सशस्त्र बलों ने फिलिस्तीन गांवों पर हमला किया। हजारों निहत्थे फिलिस्तीनी मारे गए। शेष अपनी जान बचाने के लिए पलायन पर विवश हुए। कालांतर में संयुक्त राष्ट्र द्वारा फिलिस्तीन के लिए निर्धारित भूमि पर भी इसराइल ने कब्जा कर लिया।
फिलिस्तीनी हर साल नकबा दिवस परअपने कीमती अवशेषों को लेकर प्रदर्शन करते हैं। उनमें उन घरों की चाबियां भी होती है जिनसे उन्हें 75 वर्ष पूर्व निष्कासित कर दिया गया था। यह चाबियां वापस लौटने की उम्मीद और इच्छा को अभिव्यक्त करती है। राज्य विहीन फिलिस्तीनियों की चौथी पीढ़ी की उम्मीदें पूरी हो। आमीन।
हरनाम सिंह