लोकसभा आमचुनाव-2024 के लिए कांग्रेस के घोषणापत्र ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व, और विशेषकर, प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी को आरक्षण के मुद्दे पर बचाव की मुद्रा में आने के लिए मजबूर कर दिया है। पिछले दस वर्षों में ओबीसी प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने ओबीसी वर्ग के आमजनों के लिए कुछ नहीं किया। जबकि ओबीसी वर्ग के लोग मुख्य तौर पर कृषक हैं। शिक्षा और रोज़गार के बड़े पैमाने पर निजीकरण के चलते इन दोनों क्षेत्रों में इस वर्ग की हिस्सेदारी नहीं के बराबर हुई है।
प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड
कांग्रेस का घोषणापत्र सामाजिक न्याय की गारंटी देता है। वह कहता है कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो राष्ट्रव्यापी जातिगत जनगणना करवाई जाएगी और उच्चतम न्यायालय द्वारा आरक्षण पर लगाई गयी 50 प्रतिशत की उच्चतम सीमा को हटाया जाएगा। इन दोनों वायदों से भाजपा के शिविर में बौखलाहट है।
जातिगत जनगणना पूरे देश के शूद्रों (ओबीसी) की मांग
पूरे देश में जातिगत जनगणना हो, यह मांग मुख्य रूप से शूद्रों की है, जो इस देश में बहुसंख्यक हैं और जिनका सदियों तक दमन हुआ है। इस वर्ग को आरक्षण अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के नाम से दिया गया है। सन् 1990 के दशक में मंडल आंदोलन शुरू हुआ और तभी से द्विज जातियां शूद्रों को आरक्षण देने का विरोध करती आईं हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे शूद्र शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्रों में उनके वर्चस्व को चुनौती देने की स्थिति में आ जाएंगे। इस दशक में दोनों राष्ट्रीय पार्टियां – कांग्रेस और भाजपा – ओबीसी आरक्षण के खिलाफ थीं। तब तक उन्होंने अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) हेतु आरक्षण से तो कुछ हद तक समझौता कर लिया था – हालांकि इस आरक्षण के क्रियान्वयन में भी अनेक कमियां थी – मगर शूद्रों (ओबीसी) के लिए आरक्षण की बात सोच कर ही उन्हें डर लगता था।
फिर वह समय आया जब वी.पी. सिंह सरकार ने ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया। इसके बाद, धीरे-धीरे इन दोनों पार्टियों – कांग्रेस और भाजपा – उसे स्वीकार करने के लिए बाध्य हो गए।
देश में शूद्र (ओबीसी) मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा है। समय के साथ, कुछ शूद्र (ओबीसी) राजनीतिक दल उभरे। इनसे कांग्रेस कमज़ोर हुई। मगर भाजपा ने अपने हिंदुत्व और मुस्लिम-विरोधी कार्ड के सहारे शूद्र (ओबीसी) वर्ग में अपनी पैठ जमा ली और यह वर्ग सड़कों पर मुसलमानों से भिड़ने वाला लड़ाका बन गया।
संघ ने खेला ओबीसी कार्ड
सन् 2014 में भाजपा ने एक रणनीति के तहत नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का अपना उम्मीदवार घोषित किया। मोदी एक ऐसी जाति से हैं, जो ओबीसी के रूप में सूचीबद्ध है। पिछले दस वर्षों में मोदी की ओबीसी पृष्ठभूमि ने भाजपा को बिना किसी परेशानी के सरकार चलाने में मदद की। मगर इन दस सालों में ओबीसी प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने ओबीसी वर्ग के आमजनों के लिए कुछ नहीं किया। जबकि ओबीसी वर्ग के लोग मुख्य तौर पर कृषक हैं। शिक्षा और रोज़गार के बड़े पैमाने पर निजीकरण के चलते इन दोनों क्षेत्रों में इस वर्ग की हिस्सेदारी नहीं के बराबर हुई है।
ओबीसी के सिर पर ताज, पर किनका रहा राज?
ओबीसी वर्ग के देश के सभी लोगों को यह अहसास है कि निजीकरण के ज़रिए उन्हें हाशिए पर धकियाने का प्रयास किया जा रहा है। हिंदुत्ववादी अर्थशास्त्री, जिनमें अधिकांश द्विज हैं, लंबे समय से यह वकालत करते आए हैं कि उद्योग, व्यापार व अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों सहित स्वास्थ्य, शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्रों से भी राज्य (संवैधानिक सत्ता) को बाहर हो जाना चाहिए। पिछले दस वर्षों में एकाधिकारवादी व्यापारिक घरानों और उच्च जातियों के उच्च-मध्यम वर्ग की संपत्ति में बेतहाशा वृद्धि हुई है, जिससे ओबीसी, दलित व आदिवासी वर्गों और द्विज उच्च जातियों के लोगों के बीच की आर्थिक खाई और गहरी हुई है। सबसे अधिक समृद्धि उच्च जाति के उन लोगों में आई है, जो आरएसएस-भाजपा की विचारधारा में यकीन रखते हैं।
हमारे ओबीसी प्रधानमंत्री ने सुनियोजित ढंग से ओबीसी-विरोधी निजीकरण एजेंडा लागू किया, क्योंकि यह उनकी (आरएसएस की) मूल विचारधारा का हिस्सा है।
राहुल गांधी को उनकी ‘भारत जोड़ो’ और ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दौरान यह अहसास हुआ कि जातिगत जनगणना करवाए जाने की ओबीसी की मांग उचित है। ओबीसी की कुल जनसंख्या के आंकड़े सामने आने के बाद उच्चतम न्यायालय द्वारा आरक्षण पर थोपी गई 50 प्रतिशत की उच्चतम सीमा की समीक्षा करनी पड़ेगी। राहुल की पार्टी ने सरकार में आने के बाद ये दोनों काम करने का वायदा किया है। कांग्रेस के घोषणापत्र में यह भी कहा गया है कि सरकारी संस्थानों का निजीकरण बंद किया जाएगा और सार्वजनिक क्षेत्र में रोज़गार के अवसरों का सृजन किया जाएगा।
द्विज बुद्धिजीवियों को पता है कि मोदी उनकी ओर से ही खेलेंगे
नरेंद्र मोदी को इस बार फिर आरएसएस-भाजपा के सबसे मज़बूत उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। मगर सवाल है कि क्या मोदी ने अपनी पार्टी के द्विज नेतृत्व को इस बात के लिए राजी करने का प्रयास किया कि पार्टी के घोषणापत्र को निर्धन-हितैषी और व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की बात करने वाला होना चाहिए? मोदी के लिए चुनाव का केवल एक मतलब है– नाटकीयतापूर्ण भाषणबाजी। द्विज बुद्धिजीवियों को पता था कि मोदी अंततः उनकी ओर से खेलेंगे और शूद्रों (ओबीसी) की ओर से नहीं। “मोदी की गारंटी” शीर्षक वाले भाजपा के घोषणापत्र में गरीबों और देश की भलाई के बारे में कुछ भी नहीं है और यही कारण है कि चुनाव अभियान में भाजपा नेता अपने घोषणापत्र की बात नहीं कर रहे हैं। वे केवल कांग्रेस के घोषणापत्र पर हमला करने में जुटे हैं।
भाजपा का वोट बैंक खतरे में
कांग्रेस के घोषणापत्र ने भाजपा के ओबीसी वोट बैंक को खतरे में डाल दिया है। कांग्रेस का घोषणापत्र सभी गरीबों के लिए कल्याण योजनाओं का वायदा करता है। यह साफ़ है कि गरीबों में एससी, एसटी और ओबीसी वर्गों के लोग भी शामिल हैं। यह घोषणापत्र, संविदा-आधारित विशाल अर्थव्यवस्था पर भी हमलावर है और सहचर पूंजीवादी उद्योगपतियों पर भी, जो केवल एक विशिष्ट हिंदुत्ववादी विचारधारा को ठीक लगतीं हैं।
सहचर पूंजीपतियों और निजी एकाधिकारवादी कंपनियों, जो कृषि क्षेत्र पर पूरा कब्ज़ा ज़माने की फेर में थीं, की मदद से आरएसएस-भाजपा का संगठन कई गुना व्यापक और शक्तिशाली हो गया है। इन सबका ध्येय यही है कि शूद्र कृषकों को कमज़ोर किया जाय ताकि प्राचीन वर्ण धर्म या जाति-आधारित सामाजिक व्यवस्था को पुनः कायम किया जा सके। कांग्रेस एक लंबे समय से ओबीसी के मुद्दे पर साफ़ बात करने से कतराती रही थी। इसलिए उसे यह समझ में ही नहीं आ रहा था कि भाजपा के नए ओबीसी वोट बैंक को कैसे अपनी ओर आकर्षित किया जाय। सन् 2014 के आम चुनाव के बाद से पार्टी को सूझ ही नहीं रहा था कि भाजपा की ओबीसी-हितैषी छवि को कैसे ध्वस्त किया जाय। इस बीच, संघ परिवार ने ओबीसी का सांप्रदायिकरण कर दिया और उन्हें यह भरोसा दिला दिया कि मुसलमान उनके लिए खतरा हैं।
आरक्षण को असली खतरा हिंदुत्व के निजीकरण एजेंडे से
लेकिन इस बार के कांग्रेस घोषणापत्र में कांग्रेस ने इस बड़ी कमी को पूरा कर दिया। कांग्रेस का घोषणापत्र जारी होने के बाद, भाजपा के पास ओबीसी को लुभाने के लिए कुछ भी नहीं बचा। अपने ओबीसी आधार को बचाए रखने के लिए वह अब मुसलमानों के लिए आरक्षण की बात बार-बार कर रही है। मगर ओबीसी, एससी और एसटी को पता है कि आरक्षण को असली खतरा मुसलमानों से नहीं, बल्कि हिंदुत्व के निजीकरण एजेंडा से है। भाजपा को यह भी पता है कि इस एजेंडा को पूरा करने के लिए राज्य को सभी उद्योग-धंधों व शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक संस्थानों से बाहर करना होगा। हिंदुत्ववादी चाहते हैं कि शूद्र (ओबीसी) केवल कृषि श्रमिक बाज़ार में सिमट जाएं और पूरी अर्थव्यवस्था को गुजरात और मुंबई के हिंदुत्ववादी पूंजीपतियों को सौंप दिया जाए।
भाजपा के घोषणापत्र का शीर्षक है– ‘मोदी की गारंटी’। जाहिर है कि मोदी ही अब भाजपा हैं और चुनाव मोदी बनाम कांग्रेस है। मोदी के घोषणापत्र में जनकल्याण और विकास को दिशा देने वाला कुछ भी नहीं है।
इन हालातों में कांग्रेस का घोषणापत्र शहरी और ग्रामीण निर्धन वर्गों और विशेषकर ओबीसी, एससी और एसटी मतदाताओं को आकर्षित करने लगा। इसके बाद मोदी और उनकी टीम ने यह कहना शुरू कर दिया कि कांग्रेस ओबीसी, एससी और एसटी के लिए आरक्षण खत्म कर सारा कोटा केवल मुसलमानों के नाम कर देगी। ओबीसी, एससी और एसटी का शोषण मुस्लिम पूंजीपति कर रहे है या गुजरात और मुंबई के हिंदुत्ववादी पूंजीपति?
संविधान में बदलाव का खतरा
कांग्रेस अपने चुनाव अभियान में यह भी कह रही है कि अगर आरएसएस व भाजपा को 400 से ज्यादा सीटें मिलीं तो वे संविधान को बदल देंगे। यह एक खतरनाक संभावना है, जिसे आरएसएस व भाजपा के विचारक चुनिंदा द्विज नेताओं के जरिए फैला रहे हैं। इस विचार की जड़ें आरएसएस की विचारधारा की बुनियाद में हैं।
दूसरी ओर, राहुल गांधी देश के संविधान की रक्षा करने की बात लगातार कह रहे हैं। वे अपनी आमसभाओं में संविधान की प्रति अपने हाथ में रखते हैं। कांग्रेस के इतिहास में पहली बार कोई शीर्ष नेता यह कह रहा है कि आंबेडकर ने नेहरू और सरदार पटेल के साथ मिलकर जो संविधान बनाया था, वह खतरे में है।
तथ्यहीन बातों पर भाजपा का जोर
ओबीसी, एससी और एसटी के लिए संविधान बहुत महत्वपूर्ण है। सन् 1950 में इस संविधान के लागू होने के पहले के हजारों सालों में उन्होंने कभी नहीं जाना कि समानता क्या होती है। जब उन्होंने यह सुना कि भाजपा संविधान को बदलने की योजना बना रही है तो वे अपने बच्चों के भविष्य के बारे में चिंतित हो गए। इस समस्या से निपटने के लिए भाजपा नेता, विशेषकर मोदी, बार-बार मुसलमानों (ज्यादा बच्चे वालों) के बारे में बात कर रहे हैं और यह आरोप लगा रहे हैं कि पाकिस्तान, भारत की चुनाव प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर रहा है।
मगर ओबीसी, एससी और एसटी को यह समझना चाहिए कि मुसलमानों को दिया गया आरक्षण बहुत कम है और वह भी उनकी जातिगत (धार्मिक नहीं) पहचान पर आधारित है। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में यह मात्र चार प्रतिशत है। किसी भी राज्य में यह 3-4 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। वैसे भी, जातिगत जनगणना का मुसलमानों के लिए आरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है।
भारत के ओबीसी वर्ग के लोग एक ओबीसी प्रधानमंत्री के मुंह से यह सुनकर हैरान हैं कि वे जातिगत जनगणना के खिलाफ हैं। मूल प्रश्न पर फोकस करने की बजाय वे मुस्लिम आरक्षण की बात क्यों कर रहे हैं? क्या ओबीसी ने यह मांग की है कि मुसलमानों के लिए आरक्षण ख़त्म होना चाहिए? सच तो यह है कि स्वयं को ओबीसी घोषित करनेवाला प्रधानमंत्री और उनकी सरकार, निजीकरण के जरिए आरक्षण को अर्थहीन बना रहे हैं।
संविधान में यह स्पष्ट है कि वर्ग या धर्म के आधार पर किसी को भी आरक्षण नहीं दिया जा सकता। हालांकि प्रांतीय स्तर पर सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर बिहार और दक्षिण के कुछ राज्यों में कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के शासनकाल में मुसलमानों में कुछ निम्न जातियों के लोगों को आरक्षण का अधिकारी बनाया गया। भाजपा जो कह रही है वह यह है कि जिस तरह सभी दलितों, सभी आदिवासियों और सभी ओबीसी को आरक्षण प्राप्त है, वैसे ही सभी मुसलमानों को आरक्षण दिया गया है। यह गलत है।
यह ज़रूर है कि आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की जो व्यवस्था मोदी सरकार ने की है, वह केवल वर्ग-आधारित है। सभी ओबीसी, एससी और एसटी ने इस आरक्षण का विरोध किया, क्योंकि यह मूलतः ऊंची जातियों के लिए है, जिन्हें पहले से ही विरासत में ढेर सारी सामाजिक पूंजी हासिल है।
मोदी का यह दावा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो वह महिलाओं के मंगलसूत्र सहित गरीब हिंदुओं की संपत्ति छीन लेगी, विध्वंसक और खतरनाक है। भाजपा समर्थक उद्योपतियों और उच्च व मध्यम वर्गों को भी एक लोकतांत्रिक पार्टी के बारे में इस तरह के प्रचार का विरोध करना चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र के लिए कई पार्टियां आवश्यक हैं।
प्रधानमंत्री कांग्रेस के घोषणापत्र को शहरी नक्सलियों का घोषणापत्र भी बता रहे है। दस साल से प्रधानमंत्री का पद संभाल रहे व्यक्ति का एक राष्ट्रीय विपक्षी दल के बारे में इस तरह की भाषा का इस्तेमाल लोकतंत्र के लिए उचित नहीं है।
तथ्य तो यह है कि द्विज वामपंथी-उदारवादी भी कांग्रेस के घोषणापत्र से खुश नहीं हैं, क्योंकि शायद उनके विचार से कांग्रेस को ओबीसी के मुद्दे पर यह नीति नहीं अपनानी थी या कम-से-कम उनकी अपेक्षा नहीं थी कि वह यह नीति अपनाएगी। वे सब एससी/एसटी आरक्षण से सहमत हैं, क्योंकि उन्हें इन वर्गों के प्रति कथित सहानुभूति है। मगर ओबीसी के लिए आरक्षण उन्हें असहज करता है। अब समय आ गया है जब शूद्रों (ओबीसी) को राष्ट्रीय संपदा की रीढ़ के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए और उन्हें देश के हर संसाधन में उनका वाजिब हिस्सा मिलना चाहिए।
इस प्रकार 2024 का यह लोकसभा चुनाव, उन सभी के लिए महत्वपूर्ण हैं, जो जाति प्रथा को कमज़ोर करने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
यह आलेख अंग्रेजी में वेब पत्रिका ‘द वायर’ द्वारा पूर्व में प्रकाशित है