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दान : अर्जुन का सवाल, कृष्ण का जबाब 

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       प्रखर अरोड़ा 

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा :

मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आई है कि दान तो मै भी बहुत करता हूँ परंतु सभी लोग कर्ण को ही सबसे बड़ा दानीवीर क्यों कहते हैं ?

श्रीकृष्ण मुस्कुराये. उन्होंने पास में ही स्थित दो पहाड़ियों को सोने का बना दिया और फिर वे अर्जुन से बोले कि  इन दोनों सोने की पहाड़ियों को तुम आस पास के गाँव वालों में बांट दो।

      अर्जुन ने सभी गाँव वालों को बुलाया। उनसे कहा कि वह लोग पंक्ति बना लें अब मैं आप लोगों को सोना बाटूंगा और सोना बांटना शुरू कर दिया।

गाँव वालों ने अर्जुन की खूब जय जयकार करनी शुरू कर दी।

    अर्जुन सोना पहाड़ी में से तोड़ते गए और गाँव वालों को देते गए।

लगातार दो दिन और दो रातों तक अर्जुन सोना बांटते रहे।

   गाँव के लोग वापस आ कर दोबारा से लाईन में लगने लगे थे। अब अर्जुन काफी थक चुके थे।

   उन्होंने श्री कृष्ण जी से कहा कि अब मुझसे यह काम और न हो सकेगा। मुझे थोड़ा विश्राम चाहिए।

प्रभु ने कहा कि ठीक है तुम अब विश्राम करो और उन्होंने कर्ण को बुला लिया।

उन्होंने कर्ण से कहा कि इन दोनों पहाड़ियों का सोना इन गांववालों में बांट दो।

कर्ण ने गाँव वालों को बुलाया और उनसे कहा– यह सोना आप लोगों का ही है, जिसको जितना सोना चाहिए वह यहां से ले जाये।

ऐसा कह कर कर्ण वहां से चले गए।

यह देख कर अर्जुन ने कहा कि ऐसा करने का विचार मेरे मन में क्यों नही आया?

    इस पर श्री कृष्ण ने जवाब दिया कि तुम्हे सोने से मोह हो गया था। तुम खुद यह निर्णय कर रहे थे कि किस गाँव वाले की कितनी जरूरत है। उतना ही सोना तुम पहाड़ी में से खोद खोद कर उन्हे दे रहे थे। तुम में दाता होने का भाव आ गया था।

     दूसरी तरफ कर्ण ने ऐसा नहीं किया। वह सारा सोना गाँव वालों को देकर वहां से चले गए। वह नहीं चाहते थे कि उनके सामने कोई उनकी जय जयकार करे या प्रशंसा करे। उनके पीठ पीछे भी लोग क्या कहते हैं उस से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता।

   दान देने के बदले में धन्यवाद या बधाई की उम्मीद करना भी उपहार नहीं सौदा कहलाता है।

सार : यदि हम किसी को कुछ दान या सहयोग करना चाहते हैं तो हमे यह बिना किसी उम्मीद या आशा के करना चाहिए, ताकि यह हमारा सत्कर्म हो, न कि हमारा अहंकार।

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