अग्नि आलोक
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कहानी : वारिस

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          नीलम ज्योति 

एक लगभग 80 वर्ष की वृद्धा ने‌ खाना परोस रहे व्यक्ति के कान में ‌धीमे से कहा- बेटा जुगल ! बड़े दिनों से गुलाब जामुन खाने का मन‌ है । अगली बार आइयो तो बाबू लेके आइयो ।

जुगल मुस्कुराते हुए बोला – ठीक है अम्मा ले आऊँगा, पर तुम्हें मेरी क़सम है, एक पीस ही खाइयो, जे सब डाॅक्टर ने तुम्हें मना कर रक्खा है और हॅंसते हुए आगे खाना परोसने लगा ।

अभी जुगल खाना परोसते हुए आगे बढ़ा ही था कि धीरे धीरे खाना खा रहे एक बूढ़े व्यक्ति ने कहा – जुगल इस बार पूरे दो महीने में आया है, बेटे सबने तो हमें भूला ही रखा है, तू भी हमसे पीछा छुड़ाना चाह रहा है क्या?

जुगल ने मुस्कुराते हुए कहा – बाबा मैं तुम्हारा तब तक पीछा   ना छोडूँगा, जब तक तुम्हें लोटे में भरकर हरिद्वार ना पहुँचा दूँ।

यह सुनकर सब ठहाका लगाकर हँस पड़े।

ये दृश्य था मेरठ शहर में बने एक वृद्धाश्रम का । लगभग 150 बुजुर्ग इस आश्रम में अपने बुढ़ापे के दिन सम्मान के साथ बिताने के लिए रह रहे ‌थे। कईं तो अच्छे सम्भ्रांत परिवारों से ताल्लुक रखते थे, तथा कोई ख़ुद अच्छी नौकरी से सेवानिवृत्त था।

किसी को औलाद ने घर से निकाल दिया था, तो कोई ख़ुद ही घर छोड़कर आ गया था।

दिल को जब कोई बात लग जाती है तो इंसान‌ बड़े बड़े पद, धन‌,दौलत, महल, दुमहले सब छोड़कर चला आता है।

आपने सुना होगा कि फलां व्यक्ति के इतने बच्चे हैं, फलां के उतने, मगर यहाँ 150 व्यक्तियों की एक ही औलाद थी जुगल।

किसी का बाबू, किसी का बच्चवा, किसी का जुगू तो किसी का जुगल बेटा।

जुगल इस वृद्धाश्रम का मालिक नही था और नहीं इसका मैनेजर।

लेकिन जबसे यह वृद्धाश्रम बना, महीने में दो बार ज़रूर ही जुगल यहाँ आता और अपना समय इन बुजुर्गों के साथ हँसते हँसाते व्यतीत करता।    

        अपने बच्चों के जन्मदिन पर, त्योहारों पर भी जुगल का नियमित आना होता। ये आश्रम ऐसी जगह था,  जहाँ जुगल के अनगिनत मम्मी-पापा, ताऊ-ताई, चाचा- चाची, दादी- बाबा रहते थे।

जुगल एक मध्यम वर्गीय परिवार से, साधारण कद काठी व्यक्ति था । जीवनयापन के लिए दूध की डेरी लगा रखी थी।

इस वृद्धाश्रम से जुड़ाव का एक और कारण भी था, जुगल को विश्वास हो गया था कि जब से वह आश्रम में आने लगा है उस पर ईश्वर की अनुकम्पा बहुत अधिक बढ़ गई है। दूसरा जुगल ने अपने परिवार में तीन तीन पीढ़ियों को एक दूसरे की सेवा करते हुए देखा था।

जुगल जान गया था कि निश्च्छल मन से की गयी सेवा का साक्षी स्वयं ईश्वर होता है।

इन पिछले दस सालों में जुगल ने आश्रम में प्राण त्यागने वालों के सारे संस्कार अपने आप किए, उसी विधि विधान से जैसे एक बेटा करता है।

केवल सगा बेटा, बेटा नहीं होता। संवेदनाओं के रिश्ते, ख़ून के रिश्तों से भी अधिक अपने होते हैं।

पिछली दीपावली की बात ही ले लो, मनसुख बाबा ने ज़िद पकड़ ली कि मुझे वो ही कुर्ता पहनना है जो जुगल लाया था। जबकि वो कुर्ता तो दो महीने पहले ही फट चुका था। मगर क्या करें बुढ़ापे और बचपन का स्वभाव बिल्कुल एक जैसा होता है। मनसुख बाबा ने ज़िद पकड़ ली तो पकड़ ली, केयर टेकर ने मैनेजर को बताया कि बाबा ने आज सुबह से खाना नहीं खाया है और ये ज़िद पकड़ ली है। मैनेजर ने जुगल को फोन किया तथा जुगल की मनसुख बाबा से बात कराई। जुगल ने बाबा को समझाया, तब जाकर बाबा ने खाना खाया।

दोपहर तक रूपए पैसों का जुगाड़ करके, शाम को लक्ष्मी जी पूजा करके जुगल पत्नी और बच्चों के साथ वृद्धाश्रम पहुँच गए। 

      जैसे ही बुजुर्गों ने जुगल को अपने बीच देखा खुशी का ठिकाना नहीं रहा। सबसे पहले जुगल मनसुख बाबा के पास पहुँचा और कुर्ता पायजामा मनसुख बाबा को देते हुए बोला- ये लो बाबा अब तैयार हो जाओ। जुगल के बच्चे मनसुख को कपड़े पहनाने लगे तथा जुगल धीरे धीरे सभी बुजुर्गों को कपड़े देता और ख़ूब आशीर्वाद प्राप्त करता।

सभी के साथ रात का खाना खाकर जुगल अपने घर वापिस लौट आया।

दीपावली से दो दिन बाद फिर मैनेजर का फोन‌ जुगल के पास आया कि मनसुख बाबा की तबीयत ख़राब हो गई है। वो तुम्हें ही बुला रहे हैं। थोड़ी देर बाद‌ जुगल पहुंच तो पता चला कि बाबा कुछ ही घंटों के मेहमान है। बाबा ने इशारा करके जुगल से अपना बैग खोलने के लिए कहा। जुगल ने बाबा का बैग खोलकर देखा तो एक मैली सी कतरन में कुछ बंधा हुआ है। बाबा ने उसे जुगल की जेब में रख दिया और एक लम्बी सांस लेकर दुनिया को राम नाम सत्य कह दिया।

बाबा के क्रियाकर्म आदि के चक्कर में जुगल को उस छोटी सी पोटली को खोलने का समय नहीं मिला। क्रियाकर्म आदि से निपटकर जब जुगल घर आकर नहाने के लिए कपड़े उतार रहा था, तब वो पोटली नीचे गिरी तो‌ जुगल को याद आया, जुगल ने उसे खोलकर देखा तो बहुत जोर जोर से रोने लगा, उसकी पत्नी और बच्चे भी वहाँ आ गये। 

जुगल की पत्नी ने जब उस पोटली को अपने हाथ में लिया और देखा तो उसमें दस बीस पचास के बहुत सारे नोट है, पत्नी ने नोट गिने तो दो हज़ार रूपए निकले।

मनसुख बाबा अंत समय में जुगल को अपना असली‌ वारिस बना गये।

जुगल की पत्नी ने जुगल को सम्भाला और कहा कि ये वो दौलत है जो हर औलाद के हिस्से में नहीं आती।

तुम मनसुख बाबा के असली‌ वारिस हो। (चेतना विकास मिशन).

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