कनक तिवारी
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में दो बहुत तेजतर्रार जज थे। विपिनचंद्र वर्मा और गुलाबचंद्र गुप्ता। दोनों एक ही डिवीजन बेंच में बैठते तो वकीलों की अपशकुन की बाईं आंख फड़कने लगती। उन्हें अपनी याचिका के खारिज हो जाने का भय सताने लगता। दोनों जज अदालत में जजों की मचान के ऊपर बैठे लड़ जाते और अलग अलग आदेश लिखते। दोनों आदेशों में याचिका तो खारिज ही की जाती लेकिन खारिज करने के कारण अलग अलग लिखे जाते।
यही बस्तर में बीते 40 वर्ष से सरकारी हिंसा के द्वारा काॅरपोरेट के उद्योगपतियों को जमीनें देने के लिए आदिवासियों को नक्सली बताकर मारे जाने का तिलिम्मा चल रहा है। कांग्रेस और भाजपा एक के बाद एक अडानी, अंबानी, टाटा, एस्सार, जायसवाल, जिंदल, मित्तल, वेदांता जैसे काॅरपोरेटियों के पाला बदलते राजनीतिक सुरक्षाकर्मी हैं। आदिवासियों और जनता को भ्रम है कि वे अपनी भलाई की सरकार चुन रहे हैं। सरकार भलाई की नहीं होती मलाई की होती है। भाजपा की हुकूमत में रहते बस्तर में सरकारी गोलीकांड हुए। भाजपा के बड़े नेताओं की ज्ञानेन्द्रियां उस वक्त आराम फरमा रही थीं। देख सुन नहीं पाए।
यही हाल कांग्रेस का हो जाता है। उसके नेता पी चिदंबरम ने तो ग्रीन हंट नाम का शब्द ईजाद किया। काॅरपोरेट समझता है जंगल साफ करो, आदिवासी को बेदखल करो, आदिवास को भारत के इतिहास से यादों से मिटा दो। अब सिलगेर से सरकारी हिंसा की खबरें आ रही हैं लेकिन कांग्रेस नेतृत्व में चुप्पी है। मानो कोई यज्ञ हो रहा है और राक्षस मारे जा रहे हैं। कांग्रेस में पहली बार अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह और उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपने सियासी परिवार में हुई थोकबन्द मौतों के कारण दौड़कर बस्तर आए थे। कांग्रेसियों में क्षोभ, आक्रोश, गुस्सा और आंदोलित होना स्वाभाविक था। सलवा जुडूम की विवादग्रस्तता के बावजूद आदिवासी नेता महेन्द्र कर्मा वनैले पशुओं की तरह नक्सलियों द्वारा भून दिए जाने का नसीब नहीं लाए थे। बस्तर के जंगल आदिवासी का परिवेश, नक्सलियों की गोपनीय ठौर और काॅरपोरेट ठेकेदारों की ऐशगाह हैं। सरकारी अधिकारी और राजनेता भी लूट खसोट में अपनी चौथ वसूलते हैं। संसद नींद से जागकर कुछ कानून बना देती है। पालन करना सुप्रीम कोर्ट की कमजोर समझाइश के चलते आज तक नहीं हो पाया। केन्द्रीय योजना आयोग की टीम के विशेषज्ञ दल की 2007 के महत्वपूर्ण सुझावों को पढ़ा तक नहीं गया।
राज्यपाल पांचवीं अनुसूची का छोटा सा परिच्छेद पढ़ने की जहमत तक नहीं उठाते। रिटायर या हारे हुए नेता सात सितारा सुख भोगते रहते हैं। केन्द्र सरकार ने भी राज्यपालों से नहीं कहा कि पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों पर कड़ाई से अमल करें। केन्द्रीय राज्यमंत्री किशोरचंद्र देव शायद पहले राजनीतिज्ञ रहे जिन्होंने अनुसूची के प्रावधानों के लागू नहीं होने से खुलकर असंतोष व्यक्त किया। थोड़ा अहसास मणिशंकर अय्यर और जयराम रमेश को भी रहा है।
राजनीति के मैदान में आदिवासी गेंद है। राज्य और केन्द्र सरकारें उसे लतियाने का सुख लेती रहती हैं। बस्तर के खलनायकों में काॅरपोरेटी, व्यापारी, दलाल और बाहरी ऊंची जातियों के लुटेरे भी हैं। उन्होंने वन संपत्ति, आदिवासी महिलाओं, संस्कृति और सामाजिक जीवन की अस्मत को लूटा है। दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में बड़े पदों पर गैरआदिवासी काबिज होते हैं। आरक्षित पदों को छोड़ शोषितों और दलितों के गुणात्मक विकास पर दोनों पार्टियां श्वेतपत्र जारी नहीं कर सकतीं। उनके दृष्टिकोण में बूर्जुआ समझ की सड़ांध होती है। कम्युनिस्टों ने मनीष कुंजाम के अपवाद को छोड़कर अपनी भूमिका का मुनासिब निर्वाह नहीं किया। अरुंधति राॅय, स्वामी अग्निवेष, गौतम नवलखा, पी.यू.सी.एल., वरवरा राव, कवि गदर जैसे कई सामाजिक कार्यकर्ता नक्सलियों के प्रति अनुराग रखने के आरोप के कारण सही भूमिका का निर्वाह करते नहीं प्रचारित होते हैं।
बस्तर के आदिवासियों का पीढ़ी दर पीढ़ी कुदरती चरित्र आदमखोर षड़यंत्र के द्वारा हिंसा के सांचे में ढाला जा रहा है। नक्सलवाद भी घने जंगलों, संवैधानिक नकार, आदिवासी दब्बूपन, प्रशासनिक नादिरशाही, काॅरपोरेट जगत की लूट, राजनीतिक दृष्टिदोष और सुरक्षा बलों की नासमझ बर्बरता का भी परिणाम है। राजनीतिक पार्टियों की सत्ता में अदलाबदली से समस्या का समाधान नहीं होता। लोकतांत्रिक ताकतें एकजुट होकर आईने के सामने खड़ी नहीं होतीं कि उन्हें इन इलाकों के नामालूम आदिवासियों के लिए संविधान की शपथ का पालन करना है।
सरकारें और चुनाव आयोग मिलकर किसी तरह पांच वर्ष में एक बार चुनाव कराते हैं। मीडिया पिटे हुए मुहावरों की भाषा में सरकार और काॅरपोरेट गठजोड़ के खिलाफ अभियान छेड़ने के बदले शासकीय घोषणाओं के विज्ञापन वसूलते सनसनी फैलाता है। रक्षा-विशेषज्ञ शासकीय हिंसा के विस्तार के लिए तर्कशास्त्र गढ़ते हैं। मानव अधिकारों के खिलाफ संसदीय कानून लगातार सख्त हो रहे हैं। गांधी द्वारा बताए गए अंतिम व्यक्ति से ज्यादा उपेक्षित आदिवासी धीरे धीरे सभ्यता, जंगल और इतिहास से गायब किए जा रहे हैं।
बस्तर की तरह लूट कोरबा के कोयले की हो रही है। कुछ परिवार अरबपति, खरबपति होते गए हैं, लेकिन स्थानीय नौजवानों को नौकरी तक नसीब नहीं है। रायगढ़ का विनाश तो एक बड़ा राजनीतिज्ञ कर ही चुका है। वहां से जशपुर, कोरबा और सरगुजा तक आदिवासी इलाका है। बस्तर में पूंजीवादी ऐय्याशी का अलग नक्सलवाद है। वह बस्तरिहा आदिवासियों को बेदखल कर कारखाने लगाना चाहता है। खुलेआम अट्टहास करता है कि लौह अयस्क को इस्पात में तब्दील कर देश प्रदेश का विकास करेगा। यह दम्भ भी करता है कि मनुष्यों को मशीनी इकाइयों में तब्दील कर देगा।
बस्तर को चूसने वाले पूंजीपति गिरोह, मंत्री और बस्तर पुलिस यह भूमिका खुद ओढ़ लेती है। वे लोकतंत्र की आवाज को कुचलने का दुस्साहस करते हैं, यहां तक कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों और कुछ पत्रकारों की भी। आदिवासी नेताओं ने औसत आदिवासी का जीवन सुधारने के बदले अपना मलाईदार तबका तैयार कर लिया है। कोई आदिवासी मंत्री या नेता बस्तर के अवाम पर हो रहे पूंजीवादी हमले, नौकरशाही जुल्म, ठेकेदारों के शोषण, पुलिसिया अत्याचार और नक्सली कत्लेआम के खिलाफ सार्थक संगठित आवाज कहां उठा रहा है? आरक्षण का प्रतिशत, मंत्रिपरिषद, पार्टी संगठन, राज्यसभा आदि आदिवासी नेताओं के वाचाल ठनगन हैं, जिनकी प्राथमिकता आदिवासी जीवन की धड़कनों से कहीं ज्यादा बोलती है। सेवानिवृत्त आदिवासी नौकरशाहों का भी कोई संगठन नहीं है जो भविष्य की पीढ़ियों के लिए सरोकार दिखाए। बस्तर की इंच-इंच जमीन के लिए कारखानों और खनिज के लायसेंस दिए जा रहे हैं। जब जंगल ही मरुस्थल बन जाएंगे तो न रहेंगे आदिवासी और न ही आदिवास।