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सरकार व समाज दोनों के लिए खतरे की घंटी बजाती एक किताब

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‘शेड्यूल्ड कास्ट इन द इंडियन लेबर मार्केट: इम्पलायमेंट डिस्क्रिमिनेशन एंड इट्स इंपैक्ट ऑन पावर्टी’ भारत की अर्थव्यवस्था में जातिगत गैरबराबरी का शोधपत्र है

2019 के अंत में कोरोना महामारी ने दुनिया के नक्शे से विकास का मेकअप हटा दिया। पूरी दुनिया के साथ भारत जैसे देश का अपना असली चेहरा दिखने लगा। बीमारी से बचने के लिए मजबूत सुरक्षित तबका जब घरों में बैठ गया था, तब वंचित तबका सड़कों पर चलने लगा। यह वह तबका था जिसकी जमीनी हकीकत को लेकर कभी डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि भारत के लिए मनु अतीत का मसला नहीं हैं। मनु अतीत से ज्यादा भारत के आज में मुखर है। बाद के विश्लेषणों में यही सामने आया कि कोरोना आते ही जिनके पास जीवननिर्वाहक काम-धंधा नहीं रहा, वो वैसी जातियों से आते हैं जिन्हें सामाजिक शब्दों में कमजोर जातियां कहा जाता है।



जिस मनुस्मृति ने वर्ण-व्यवस्था के आधार पर अर्थव्यवस्था तैयार की थी, डॉक्टर आंबेडकर ने उसे भारत का जिंदा अतीत कहा था। वह वर्तमान में जितना प्रभावी हो सकता था, उससे ज्यादा प्रभावी है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित किताब शेड्यूल्ड कास्ट इन द इंडियन लेबर मार्केट: इम्पलायमेंट डिस्क्रिमिनेशन एंड इट्स इंपैक्ट आॅन पावर्टी भारत की अर्थव्यवस्था में जातिगत गैरबराबरी का शोधपत्र है। सुखदेव थोराट, एस मधेश्वरण और बीपी वाणी की त्रयी ने अपने शोध से भारतीय श्रम बाजार का डाटाबेस तैयार किया है। लेखक त्रयी ने बताया है कि किस तरह जातिगत भेदभाव ने एक बड़े तबके को आर्थिक विकास में पीछे धकेल दिया है।

रोजगार के क्षेत्र में जातिगत भेदभाव को हम आसानी से अपने आसपास देख सकते हैं। किसी भी मानव समूह की अपने घर और बाहर दो मुख्य बुनियादी जरूरत होती है। पहली सफाई और दूसरी खेती। जहां तक सफाई का मसला है तो इसमें आज भी सौ फीसद आरक्षण है। खास बात यह है कि इस आरक्षण से सवर्ण तबके को कोई दिक्कत नहीं है। पूरी सफाई व्यवस्था दलितों के सुपुर्द है, लेकिन इसके लिए उन्हें किसी तरह की आधुनिक मशीनें नहीं देनी हैं, कम से कम मेहनताने पर काम करवाना है, ये सारे फैसले सवर्ण तबका तय करता है। चांद पर यान भेजने वाले भारत का “सेनेटरी सिस्टम” आज भी आधुनिक होने की बाट जोह रहा है।

जहां सफाई के लिए आज भी “मैनहोल” शब्द है, यानी सफाई के लिए मशीन के मुकाबिल मानव ही है। आए दिन खबरें आती हैं कि सेप्टिक टैंक या नाले की सफाई के दौरान मजदूरों की मौत हो गई। कुछ समय तो इस बात की राहत थी कि इसके लिए भी सरकारी कर्मचारी नियुक्त किए जाते थे तो श्रमिकों की आर्थिक हालत थोड़ी सुधरी थी। लेकिन जल्द ही इस पूरे क्षेत्र को भी आउटसोर्स कर दिया गया और इनके जानलेवा काम का मेहनताना वो ठेकेदार तय करते हैं जिन्हें इनकी जिंदगी की जरा भी परवाह नहीं है।

शेड्यूल्ड कास्ट इन द इंडियन लेबर मार्केट : इम्पलायमेंट डिस्क्रिमिनेशन एंड इट्स ऑन पावर्टी
लेखक: सुखदेव थोराट, एस मधेश्वरण और बीपी वाणीआॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस
302 पृष्ठ  | 1495 रुपए यही हाल खेतिहर मजदूरों का भी है। ज्यादातर खेतिहर मजदूर दलित हैं और खेतों पर मालिकाना हक ऊंची जाति का। खेतिहर मजदूरी का यह पूरा क्षेत्र ही असंगठित रखा गया है। खेतिहर मजदूरों को इस तरह जकड़ लिया गया है कि एक तरह से उनसे खाना-कपड़ा के आधार पर मुफ्त मजदूरी ही करवाई जाती थी। खेतिहर मजदूरों के रूप में दलितों को श्रम-व्यवस्था के अंतिम पायदान पर रखा गया है। खेतिहर मजदूरों को ध्यान में रख कर राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी योजना लाई गई लेकिन वहां भी कार्य वितरण को लेकर सवर्ण जातियों का दबदबा रहा, हालांकि यह सही है कि मनरेगा जैसी योजना दलित श्रमिकों के लिए राहत बन कर आई थी, लेकिन अब धीरे-धीरे उसे भी खत्म किया जा रहा है। हालांकि दलितों के लिए भूमि वितरण करके इस चीज को और मजबूत किया जा सकता था। जब तक खेतिहर भूमि पर दलितों की हिस्सेदारी नहीं होगी तब तक यह संकट बना रहेगा।

शेड्यूल्ड कास्ट इन द इंडियन लेबर मार्केट: इम्पलायमेंट डिस्क्रिमिनेशन एंड इट्स इंपैक्ट आॅन पावर्टी में विभिन्न अध्यायों से स्पष्ट होता है कि अनुसूचित जाति के कामगारों का मेहनताना उच्च जातियों की तुलना में बहुत कम होता है। अर्थव्यवस्था का सीधा सा समीकरण यह है कि जिसकी जेब में ज्यादा पैसा होगा वह उतना बड़ा उपभोक्ता होगा। यानी जो वर्ग अपने श्रम का कम मूल्य पा रहा है, वह बाजार में उपभोक्ता के रूप में भी पिछड़ा हुआ है। किताब में प्रस्तुत आंकड़े के अनुसार अगर अखिल भारतीय उपभोग व्यय 2017 रुपए है तो यह अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 2712 रुपए है तो अनुसूचित जाति के लिए महज 1674 रुपए है। प्रति व्यक्ति उपभोग की यह खाई अनुसूचित जातियों की गरीबी के लिए भी उत्तरदायी है। 2011-12 के गरीबी सूचकांक के आधार पर यह तथ्य सामने आता है कि सवर्ण व अन्य पिछड़ी जातियों की तुलना में अनुसूचित जाति के लोगों के बीच गरीबी ज्यादा है।

पारंपरिक रूप से आर्थिक व्यवहार की विवेचना वर्ग आधारित की जाती रही है। लेकिन, भारत जैसे देश में जाति जटिल समस्या रही है। जब डॉक्टर आंबेडकर आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाते भारत में मनु के बनाए वर्णवादी विधानों की स्मृति देखते हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि रोजगार में जातिगत भेदभाव और गरीबी पर उसके प्रभाव के विस्तृत अध्ययन की कितनी जरूरत है। किताब के आमुख में इस अध्ययन का निचोड़ इन शब्दों में है, “यह दर्शाता है कि किस तरह प्राचीन भारत आज भी हमारे साथ है।” दो सौ ईसा पूर्व मनु-स्मृति में जन्म और जाति के आधार पर कार्यक्षेत्र का बंटवारा किया गया था। आजाद भारत ने 1950 में अपना संविधान बनाया और कानूनी रूप से रोजगार के मामले में सबको समानता दी।

भारत का संविधान रोजगार के क्षेत्र में किसी भी तरह के जातिगत भेदभाव को नकारता है। लेकिन संविधान में दर्ज बराबरी के अक्षर जमीनी व्यवहार में नहीं आ सके। रोजगार का क्षेत्र और उससे जुड़ी गरीबी की बात करें तो कथित बराबरी वाले वर्तमान के चोले में अतीत से शुरू हुआ जातिगत भेदभाव पूरी तरह डटा हुआ है। किताब कहती है कि जातिगत भेदभाव मसले पर उस सिद्धांत का पूरी तरह से पालन हो रहा है कि इतिहास रूप बदल कर खुद को दोहराता है। रोजगार के क्षेत्र का लिबास संविधान के अनुसार है, लेकिन वह अंदर से अतीत के आदेशानुसार ही काम कर रहा है।

रोजगार, व्यवसाय और मजदूरी में अनुसूचित जातियों के साथ दर्ज भेदभाव के आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि शहरी नियमित वेतनभोगी और श्रम बाजार में इसका क्या प्रभाव पड़ता है। रोजगार और मेहनताने का भेदभाव किस तरह से इन्हें गरीबी के वर्ग से ऊपर नहीं उठने देता। नब्बे के दशक के बाद से सार्वजनिक उपक्रमों की बंदी और सरकारी नौकरियों की कमी ने हालात और भी खराब कर दिए हैं। किताब में दिए आंकड़ों से स्पष्ट है कि रोजगार और वेतन में भेदभाव सरकारी क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र में बहुत ज्यादा है। खास कर निजी क्षेत्रों में बरते गए जातिगत भेदभाव से अनुसूचित जातियों में रोजगार के मौके और घटे हैं। भेदभाव के कारण मजदूरी भी कम मिलती है जिस वजह से इस तबके में गरीबी की मार भी ज्यादा पड़ रही है। किताब में प्रस्तुत आंकड़ों के नतीजे बताते हैं कि रोजगार और वेतन में अनुसूचित जाति के लिए गैरबराबरी खत्म करना कितना जरूरी है। इसके लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में गंभीर सुधारों की जरूरत है।

सरकार व समाज दोनों के लिए यह किताब खतरे की घंटी बजा रही है कि नीतिगत मामलों को लेकर जल्द से जल्द जागिए। किताब के आंकड़े जिस मनु की स्मृति ला रहे हैं उससे विस्मृति के लिए सजग नहीं होंगे तो यह तबका आगे और गरीबी व तंगहाली से जूझेगा और पीछे धकेला जाएगा। यह किताब आर्थिक क्षेत्र में जातिगत भेदभाव का वह दस्तावेज है जो समानता की दुनिया लाने के लिए हर तरह के दखल की मांग करता है।

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