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नीतीश कुमार , वर्तमान की त्रासदी

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हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर

, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

जिस दिन नीतीश कुमार ने विधान सभा में स्कूलों की टाइमिंग को लेकर घोषणा की और एक बेलगाम नौकरशाह ने उनके इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया, उसी दिन तय हो गया कि अब वे और चाहे जो कुछ हों, नीतीश कुमार तो कतई नहीं रह गए हैं. अब वे अपने अतीत के प्रतापी व्यक्तित्व की आड़ी तिरछी छाया मात्र रह गए हैं, जो राजनीतिक जटिलताओं की वजह से फिलहाल भले ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने हुए हों लेकिन उनका प्रताप खत्म हो चुका है.

विश्लेषक कयास लगा रहे हैं कि इस आम चुनाव में बिहार में एनडीए की सीटें 2019 के मुकाबले घटेंगी. उनमें जद यू भाजपा के मुकाबले अधिक घटेगा. जद यू की इस सिकुड़न में नीतीश कुमार के निस्तेज होने की बड़ी भूमिका होगी. जद यू तो नीतीश कुमार के आभा मंडल और उनके द्वारा रचे गए राजनीतिक-जातीय समीकरणों के इर्द गिर्द सांस लेता एक कृत्रिम राजनीतिक दल है, जिसकी कोई वैचारिकता कभी नहीं रही. लालू विरोध के नाम पर संघ और भाजपा की छाया में पनपा, कभी मोदी विरोध के नाम पर लालू की छतरी तले आशियाना बनाता.

पिछडावाद के दबंग यादववाद में तब्दील होने पर अन्य शक्तिशाली पिछड़ी जमातों की राजनीतिक कुंठाओं और अभिलाषाओं की अभिव्यक्ति नीतीश कुमार के राजनीतिक विकास के माध्यम से हुई, जिसे अति पिछड़ी जातियों के समर्थन ने विस्तार दिया. इस तरह नीतीश के नेतृत्व में बिहार ने लालू राज के दुःस्वपनों से आगे बढ़ते हुए एक नए दौर का आगाज देखा और क्या खूब देखा.

नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा अदभुत रही. किसी पतली रस्सी पर चलते हुए गजब का संतुलन साधते जिस तरह उन्होंने भाजपा और राजद नामक दो ध्रुवों के बीच अपनी अपरिहार्यता स्थापित की वह राजनीति की बिसात पर उन्हें माहिर खिलाड़ी बनाता है. बिहार की जाति आधारित राजनीति में उन्होंने साबित किया कि अपनी छवि, अपनी क्षमता और अपनी गोटियों का सही समय पर सही इस्तेमाल करके कोई ऐसा नेता भी राज्य के शीर्ष पर काबिज हो सकता है, न सिर्फ काबिज हो सकता है बल्कि शासन करने की अवधि का रिकार्ड कायम कर सकता है जिसकी अपनी जाति की भागीदारी महज दो ढाई प्रतिशत हो. यह तथ्य बिहार की जड़ जातीय छवि को तोड़ता यहां की राजनीति का एक प्रगतिशील चेहरा सामने लाता है.

अपने दौर में नीतीश कुमार किसी दंतकथा के नायक की तरह चमक बिखेरते थे. बेहतरीन प्रशासक, विजनरी विकास पुरुष, राजनीतिक शतरंज के माहिर गोटीबाज, व्यक्तिगत तौर पर असंदिग्ध रूप से ईमानदार. वह दौर ऐसा था जब बिहार ऐसे किसी नेता की प्रतीक्षा में था. नीतीश ने इस स्पेस को भरा. न सिर्फ भरा, बल्कि इतिहास का निर्माण किया. बिहार के इतिहास में इक्कीसवीं सदी के शुरुआती ढाई दशकों को भविष्य में ‘नीतीश युग’ की संज्ञा दी जाएगी.

अब जब, इतिहास किसी ‘युग’ का नीर क्षीर विवेचन करेगा तो कई अप्रिय स्थापनाएं भी सामने आएंगी जिन्हें लेकर वैचारिक कोलाहल होगा. मसलन, नीतीश कुमार इस बात के जिम्मेदार ठहराए जाएंगे कि बिहार की राजनीति में हाशिए पर रही भाजपा को उन्होंने केंद्र में आने का और व्यापक होने का बेहतरीन मौका दिया, नौकरशाही को लोकतांत्रिक मर्यादाओं का अतिक्रमण कर मनबढू बनने की नाजायज छूट दी,

नीतीश राज में भले ही संगठित अपराध पर लगाम लगा लेकिन संगठित भ्रष्टाचार इतना बढ़ा जिसकी मिसाल नहीं मिलती. नौकरशाही के तलवों तले शिक्षा का तंत्र पहले मशीनी बना फिर जर्जर होते ध्वस्त होने की कगार पर पहुंच गया आदि-आदि.

नीतीश कुमार का अतीत गौरवमय रहा है, वर्तमान त्रासद और कई मायनों में उनकी गरिमा के प्रतिकूल रहा है और भविष्य में इतिहास उन्हें किस तरह विश्लेषित करेगा यह इस पर निर्भर करेगा कि इतिहासकार अपने नजरिए का सिरा किधर से पकड़ता है.

कभी टीवी के स्क्रीन पर नीतीश के ऊर्जावान व्यक्तित्व की आभा उनके भाषणों को उत्साहपूर्ण बनाती थी, उम्मीदों से जोड़ती थी, भरोसा पैदा करती थी. आज उनकी निस्तेज छवि उनके प्रशंसकों के मन को तोड़ती है, उनकी उम्मीदों को खत्म करती है. पटना में मोदी के रोड शो में बुझे हुए चेहरे के साथ किसी झुनझुने की तरह कमल छाप वाले स्टिकर को बेमन से पकड़े, झुलाते नीतीश अपने अतीत की छाया भी नहीं, वर्तमान की त्रासदी बयान करते प्रतीत हो रहे थे.

नीतीश कुमार की इस हालत ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि बावजूद राजनीतिक अवसरवाद के बोलबाले के, वैचारिकता आज भी राजनीति के लिए एक ठोस चीज है और अगर आप बड़े राजनेता हैं तो यह आपके व्यक्तित्व के लिए और अधिक अपरिहार्य है. सुशासन अपने आप में नारा तो हो सकता है, वोट पाने का आधार भी हो सकता है लेकिन यह वैचारिकता का स्थानापन्न नहीं हो सकता.

यही वह बिंदु है जहां अपनी तमाम कमियों के बावजूद लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसों से अलग दिखते हैं और निश्चित रूप से इतिहास में उनसे एक बड़ा स्थान घेरते हैं. हर राजनेता जो कभी सूर्य की तरह चमकता है वह एक दिन अस्त भी होता है लेकिन अस्त होने की भी अपनी गरिमामयी प्रक्रिया होती है. नीतीश कुमार भी अस्त होने की अपरिहार्य प्रक्रिया से गुजर रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य से वे उस गरिमा को मिस कर रहे हैं, जो उन्हें मिस नहीं करनी चाहिए थी.

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