पुष्पा गुप्ता
पार्वती – हे स्वामी ! क्या गुरु से मंत्र लेकर उनको ही परब्रह्म मानकर शिष्य मुक्त हो सकता है?
महारुद्र उवाच- हे पार्वती ! हरेक मंत्रदाता ब्रह्मनिष्ठ ही हो ऐसा तो मैने नहीं कहा. इस विषय के लिए तुमको गुरु के प्रकारों को जानना होगा।
इस विश्व में ऐसे भी पापी हैं जो पेट भरने के लिए अथवा शिष्यों से धन हड़पने के लिए मंत्र की दीक्षा देना आरंभ कर देते हैं. ऐसा निषिद्ध गुरु होता है.
जो स्वयं ही कंचन और काम से युक्त होने से शिष्य को वीतरागी अथवा अपरोक्ष ज्ञाननिष्ठ नहीं बना पाने से अथवा यथार्थ संभाषण न करने से आचार्यत्व से हीन होने से अगले जन्म में बैल बनता है.
तो सोचो शिष्य भी अज्ञान की अवस्था में ही मर जाने से मुक्त कहाँ होगा. बिना जीवन्मुक्त हुये परमधाम अथवा कैवल्यापद नहीं मिलता. जो इसी भूमि पर मुक्त हो चुका वही देहांत के बाद तत्काल ब्रह्मलीन होता है.
अन्यथा वह शिष्य भी अष्ट पाशों के कारण पुनः जन्म लेता ही है. इनके गुरु भी निषिद्ध होने से पाखंडी व लोभी ही हैं. यथार्थ पराविज्ञान से उनका कोई भी संबंध नहीं होता.
मंत्र देने वाला भी यदि मंत्र का पुरश्चरण कर चुका है पर स्थितप्रज्ञ नहीं है , तद्भावित नहीं है तो भी मैने उसे बोधक गुरु की संज्ञा मात्र दी है वह भी परमपद नहीं दे सकता। ऐसे गुरु की सेवा भी तब तक ही की जाए जब तक कि कोई ज्ञाननिष्ठ पुरुष प्राप्त नहीं हो जाता. ऐसों को त्याग देना चाहिए और अन्य गुरु खोजना चाहिए।
यदि वह बगुले की तरह ठगने वाला हो , शाप का भय दिखाने वाला हो , अज्ञानी हो , उग्र हो , कामी , स्त्रीलम्पट हो तो भी उसका तत्काल त्याग कर देना चाहिए।
●वर्जयेत्तान गुरुन् दूरे धीरानेव समाश्रयेत्.
निम्नलिखित अवगुण जिनमें हों उसको त्याग दें :
पाखण्डिनः पापरता नास्तिका भेदबुद्धयः।
स्त्रीलम्पटा दुराचाराः कृतघ्ना बकवृत्तयः॥
कर्मभ्रष्टाः क्षमानष्टाः निन्द्यतर्कैश्च वादिनः।
कामिनःक्रोधिनश्चैव हिंस्राश्चंडा: शठास्तथा॥
ज्ञानलुप्ता न कर्तव्या महापापास्तथा प्रिये।
एम्यो भिन्नो गुरुः सेव्य एकभक्त्या विचार्य च॥
1.पाखण्डी,
- पाप में रत,
- नास्तिक,
4.भेदबुद्धि उत्पन्न करनेवाले, - स्त्रीलम्पट,
6.दुराचारी,
7.नमकहराम,
8.बगुले की तरह ठगनेवाले, - कर्मभ्रष्ट,
10.क्षमा रहित, - निन्दनीय तर्कों से वितंडावाद करनेवाले,
- कामी,
13.क्रोधी, - हिंसक,
- उग्र,
- शठ तथा
17.अज्ञानी और
18.महापापी….
यदि उत्तम ज्ञानी, जितेन्द्रिय, शम दम युक्त गुरु मिल जाये तो उसको ही शिव और उसको ही हरि मानकर उसकी ही सेवा हरिहर से अधिक मानकर करना चाहिए।
शिवपूजारतो वापि विष्णुपूजारतोऽथवा. गुरुतत्त्वविहीनश्चेत्तत्सर्वं व्यर्थमेव.
पार्वती – हे प्रभु! आपने गुरुदेव की इतनी महिमा बताई परंतु वर्तमान में हर व्यक्ति गुरु बना हुआ है फिर उत्तमोत्तम गुरु की पहचान कैसे हो?
किस गुरु की सेवा करने से मुक्ति प्राप्त होगी किस गुरु की शरण जाने से चित्त को विश्रांति मिलेगी?
महादेव उवाच- किसकी कथनी करनी एक हो, जो सिद्ध हो, जो याचक नहीं दाता हो अर्थात दे सबकुछ लेकिन ले कुछ भी नहीं : ऐसे ज्ञाननिष्ठ गुरू की शरण में जाना चाहिए. उनको ही साक्षात परब्रह्म मानकर सेवा आरंभ कर देना चाहिए।
● गुरोरपि विशेषज्ञं यत्नाद् गृह्णीत वै गुरुम्.
हे देवी ! मंत्र, वाक्य विन्यास, न्यास , भाषा ये सब जानने वाले मनुष्य विद्वान तो कहे जा सकते हैं पर यदि वे शमदम से हीन हो व ब्रह्म से एकाकार न हो तो उनकी सेवा करने से शिष्य सिद्धियों को तो पा सकता है पर स्थितप्रज्ञ व जीवन्मुक्त नहीं हो सकता और इनका शिष्य भी तप का अहंकार करने से व शास्त्र की जानकारियों का बोझ ढोने से पुनर्जन्म ही पाता है।
शिलाया: किं परं ज्ञानं शिलासंघप्रतारणे।
स्वयं तर्तुं न जानाति परं निस्तारयेत्कथम्॥
हे शिवा!