प्रो. रविकांत
2024 के लोकसभा चुनाव में देश में सबसे अधिक अस्सी लोकसभा क्षेत्रों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर उभरे हैं। इस चुनाव में वे ‘पीडीए’ फार्मूला लेकर आए हैं– पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक। ‘पीडीए’ दरअसल बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की ‘15 बनाम 85’ की राजनीति का ही नया संस्करण है।पिछड़े या शूद्र होने का एहसास अखिलेश यादव को पहली बार शायद तब हुआ जब 2017 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया। तब यादव द्वारा मुख्यमंत्री आवास से निकलने के बाद उसे गंगाजल से धोकर शुद्ध किया गया।
अखिलेश यादव की चुनावी रैलियों में बढ़ती भीड़ से ऐसा लगता है कि सपा में लोगों का विश्वास लौट रहा है। अखिलेश यादव द्वारा टिकट वितरण के सामाजिक समीकरण की तारीफ हो रही है। महंगाई और बेरोजगारी से पीड़ित देश का जनमानस इस समय विपक्ष के इंडिया गठबंधन की तरफ देख रहा है। जाहिर तौर पर सभी की निगाहें उत्तर प्रदेश पर लगी हुई हैं।
ऑस्ट्रेलिया से पढ़ाई करके लौटे अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव का साथ देने के लिए राजनीति में आ गए। सपा के नौजवानों में वे ‘अखिलेश भैया’ के रूप में तेजी से लोकप्रिय हो गए। पहली बार अखिलेश यादव 2010-11 में तब सुर्खियों में आए जब उन्होंने साइकिल से यात्रा करते हुए पूरे प्रदेश का दौरा किया। मायावती के तथाकथित भ्रष्टाचार के खिलाफ अखिलेश यादव की साइकिल यात्रा से सपा को नई ऊर्जा मिली, जिसके बूते 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा को हराकर सपा ने 403 की विधानसभा में 224 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल किया।
उम्र की ढलान पर पहुंच चुके पिता मुलायम सिंह यादव ने तब उत्तर प्रदेश की बागडोर अखिलेश यादव को सौंप दी। 2012 से 2017 के बीच अखिलेश यादव यूपी के सबसे युवा मुख्यमंत्री रहे। कुछ गलतियों और अनेक उपलब्धियों के साथ अखिलेश यादव को मीडिया में बहुत तवज्जो नहीं मिली। सवर्ण मीडिया लगातार उनकी खिल्ली उड़ाता रहा। यूपी में साढ़े तीन मुख्यमंत्री का मेटाफर प्रयोग करते हुए मीडिया अखिलेश यादव को आधा मुख्यमंत्री बताकर कटाक्ष करता रहा। पार्टी, सरकार और प्रशासन में ज्यादातर ऊंची जातियों के इर्द-गिर्द रहे अखिलेश यादव को शायद पिछड़े होने का एहसास नहीं था। लेकिन 2017 का चुनाव हारने के बाद जब अखिलेश यादव ने अपना मुख्यमंत्री आवास खाली किया तो उसी मीडिया के जरिए अखिलेश यादव को ‘टोंटी चोर’ कहकर प्रचारित किया गया। लेकिन इसे राजनीतिक आलोचना का एक हिस्सा मानकर शायद अखिलेश यादव ने भुला दिया। हालांकि आज भी द्विज मीडिया और भाजपा की ट्रोल आर्मी अखिलेश यादव को ‘टोंटी चोर’ कहने से गुरेज नहीं करती।
जाहिर तौर पर यह बताता है कि बेशक समय बदल गया है और सामाजिक संरचना भी बदली है। लेकिन द्विजों के भीतर दलितों और पिछड़ों के प्रति भरी हुई नफरत और हिकारत पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली जा रही है। इसलिए गालियों की जगह सिर्फ शब्द बदले हैं।
दरअसल, अपमानजनक शब्दों के जरिए पिछड़ों और दलितों को उनकी ‘हैसियत’ बताने की कोशिश की जाती है। उनके हौसले को तोड़ा जाता है। इससे उनके भीतर हीनताबोध पैदा होता है। वर्चस्ववादी द्विजों के लिए या निर्वाचित मुख्यमंत्री हो या चयनित आईएएस अधिकारी अथवा प्रोफेसर, सभी निम्न और घृणास्पद हैं। हिंदुत्व के नाम पर आरएसएस और भाजपा इसी वर्चस्ववाद को पोसती है। उनके भीतर के जातिवादी अभिमान और श्रेष्ठताबोध को बढ़ावा देती है। यह कहना अतिरेक नहीं कि लोकतंत्र और संविधान के बावजूद उनके भीतर का यह भेदभाव समाप्त नहीं हुआ है। सत्ता मिलते ही यह वर्चस्ववाद और श्रेष्ठताभाव कुलाचें भरने लगता है।
पिछड़े या शूद्र होने का एहसास अखिलेश यादव को पहली बार शायद तब हुआ जब 2017 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया। तब यादव द्वारा मुख्यमंत्री आवास से निकलने के बाद उसे गंगाजल से धोकर शुद्ध किया गया। मंत्रोच्चार के जरिए तथाकथित तौर पर पवित्र करने के बाद योगी आदित्यनाथ ने उसमें प्रवेश किया। अखिलेश यादव के लिए यह बेहद अपमानजनक था। इसके बाद भी भाजपा की ट्रोल आर्मी द्वारा लगातार उनके खिलाफ भद्दे-भद्दे कमेंट किए जाते रहे।
खैर, अखिलेश यादव ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के साथ गठबंधन किया। इस गठबंधन के लिए अखिलेश यादव ने खुद पहल की। बसपा प्रमुख के घर जाकर उन्होंने मायावती का सम्मान किया। चुनाव के दरम्यान कन्नौज की सभा में अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव ने मंच पर मायावती के पैर छूकर आशीर्वाद लिया। हालांकि डिंपल यादव गठबंधन प्रत्याशी के तौर पर चुनाव हार गईं। चूंकि 2019 का लोकसभा चुनाव पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में भारतीय सेना द्वारा एयर स्ट्राइक के कारण राष्ट्रवाद के मुद्दे पर केंद्रित हो गया। इसके अलावा सपा और बसपा के कार्यकर्ताओं में तालमेल की कमी के कारण गठबंधन को सिर्फ 15 सीटों पर सफलता मिली। चुनाव के बाद मायावती ने सपा के वोट ट्रांसफर नहीं होने का आरोप लगाकर एकतरफा गठबंधन तोड़ दिया।
सपा को मूलरूप से पिछड़ों, किसानों और नौजवानों की पार्टी माना जाता था। बसपा से गठबंधन टूटने के बाद अखिलेश यादव ने सपा का विस्तार करने का प्रयास किया। दलित समाज को जोड़ने के लिए सपा कार्यालय में आंबेडकर जयंती मनाने की शुरुआत हुई। डॉ. राममनोहर लोहिया के साथ डॉ. आंबेडकर का चित्र भी सपा कार्यालय में लगा दिया गया। दलित वोटर तक पहुंच बढ़ाने के लिए अखिलेश यादव ने लोहिया वाहिनी की तर्ज पर बाबा साहब वाहिनी का गठन किया। डॉ. आंबेडकर की जयंती के अवसर पर अखिलेश यादव ने अपने पिता मुलायम सिंह यादव की मौजूदगी में 14 अप्रैल, 2021 को बाबा साहब वाहिनी बनाने का एलान किया। पार्टी के संविधान में संशोधन करके बाबा साहब वाहिनी को सपा का एक संगठन घोषित किया गया। इसके राष्ट्रीय और प्रदेश अध्यक्ष पद पर दलित समाज को नेतृत्व दिया गया।
अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी के दरवाजे बसपा के नेताओं के लिए खोल दिए। परिणामस्वरूप कई पुराने नेता बसपा छोड़कर सपा में शामिल हो गए। लालजी वर्मा, स्वामी प्रसाद मौर्य, रामअचल राजभर, राजाराम पाल, इंद्रजीत सरोज, रामप्रसाद चौधरी जैसे कई नेता अखिलेश यादव के साथ आ गए। इससे 2022 के विधानसभा चुनाव से पूर्व सपा का कुनबा और मजबूत हो गया। अपना दल (कमेरवादी) की पल्लवी पटेल, सुभासपा के ओम प्रकाश राजभर, महान दल के केशवदेव मौर्य, जनवादी क्रांति पार्टी के संजय चौहान आदि पिछड़ा और अति पिछड़ा समाज से आने वाले नेता और दल सपा से जुड़ गए। 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले सपा की स्थिति काफी मजबूत दिख रही थी। लेकिन ध्रुवीकरण की राजनीति और बेहतरीन चुनावी प्रबंधन के जरिए भाजपा फिर से चुनाव जीतने में कामयाब हो गई। अलबत्ता, अखिलेश यादव को एहसास हो गया था कि यूपी में आगे की राजनीतिक लड़ाई दलित और पिछड़ों के मुद्दों के आधार पर ही जीती जा सकती है।
हालांकि 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने सपा पर यादव व मुस्लिम पार्टी होने के आरोप से पीछा छुड़ाने की कोशिश की थी। अखिलेश यादव ने विधानसभा चुनाव में पिछड़ों की एक मजबूत जाति कुर्मी-पटेल को दो दर्जन से अधिक टिकट दिए थे, जिसमें केवल 14 ही जीतकर आए। इसी तरह उन्होंने अन्य पिछड़ी जातियों को भी कमोबेश प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की थी।
इसके पहले 2021 में बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने जाति जनगणना की मांग को लेकर प्रधानमंत्री से मुलाकात की। बिहार के भाजपा नेता इसके विरोध में आ गए। इसका असर देश व्यापी पिछड़े समाज पर हुआ। इसीलिए कोरोना के बहाने नरेंद्र मोदी ने जनगणना ही कराने से इनकार कर दिया। नीतीश सरकार ने 2023 में जातिगत जनगणना करके आंकड़े जारी कर दिए। अब एक बार फिर जातिगत जनगणना और पिछड़ा विमर्श राजनीतिक चर्चा का केंद्र बिंदु बन गया। भाजपा और मोदी सरकार इस मुद्दे पर बुरी तरह से घिर गई। जमीन पर चल रहे सामाजिक आंदोलन और जाति जनगणना के प्रभाव को पहचानते हुए अखिलेश यादव ने भी जाति जनगणना की मांग उठाई। इसी दरमियान उन्होंने अपना ‘पीडीए’ समीकरण दिया और ऐलान किया कि पीडीए ही एनडीए को हराएगा।
फिर जनवरी, 2024 में हुए राज्यसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के कई सवर्ण विधायकों ने भाजपा का समर्थन किया। मनोज पांडे, विनोद चतुर्वेदी, राकेश प्रताप सिंह और अभय सिंह आदि विधायकों ने क्रॉस वोटिंग की। इसका अखिलेश यादव पर बड़ा प्रभाव पड़ा। पीडीए पर उनका विश्वास और मजबूत हो गया। लेकिन इस दरमियान ओमप्रकाश राजभर, संजय चौहान, केशव देव मौर्य और जयंत चौधरी भाजपा के साथ लौट गए। पल्लवी पटेल और स्वामी प्रसाद मौर्य ने भी अलग रास्ता अख्तियार कर लिया। अखिलेश यादव ने बेहद शालीनता से इस स्थिति का सामना किया। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया। कांग्रेस को 17 सीटें मिलीं। 63 सीटों पर सपा ने अपने प्रत्याशी उतारे। अखिलेश यादव ने अपने खाते से एक सीट तृणमूल कांग्रेस को दी। अखिलेश यादव जिस पीडीए की बात कर रहे थे, उसकी झलक टिकट वितरण में मिलती है। इस बार उन्होंने यादवों और मुसलमानों के अलावा कुर्मी-पटेल, पासी, माैर्य-कुशवाहा, जाटव, निषाद-कश्यप के अलावा वाल्मीकि, गुर्जर, राजभर, लोधी और पाल जाति के लोगों को भी अपना उम्मीदवार बनाया।
बहरहाल, मौजूदा समय में केवल एक चरण का चुनाव शेष है। टिकट वितरण में दुरुस्त सामाजिक समीकरण के साथ-साथ राहुल गांधी के सामाजिक न्याय के एजेंडे ने अखिलेश यादव के पीडीए को अधिक विश्वसनीयता प्रदान की है। इसका सीधा प्रभाव चुनाव में दिखाई दे रहा है।