-सुसंस्कृति परिहार
बुंदेलखंड में दो जून की रोटी से तात्पर्य दो जून को मिलने वाली रोटी से नहीं है।इसका आशय है दोनों वक्त की रोटी। बुंदेलखंड का उत्तरप्रदेश वाला हिस्सा तो केन बेतवा नदी पर बनने माताटीला जैसे बांधों से मिले जल से अन्न उत्पादन करने लगे हैं उन्हें कम से कम दो टाइम का भोजन नसीब है रोजगार भी यहां बढ़े हैं यह क्षेत्र पहले सूखा और भूखे बुंदेलखंड का हिस्सा था। मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में जिस तरह सामंतों का आज भी दखल है उसी तरह वह दो जून की रोटी भी पाने में सक्षम नहीं है। वे किसी के रहमो-करम पर काम करके रोटी जुटाते हैं।।बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण बनने के बावजूद यहां रोटी का संघर्ष आज भी विकट रुप में मौजूद है।
इसकी वजह एक तो प्राकृतिक है और दूसरे मानवकृत।क्षेत्र में वर्षा का औसत कम है वह भी विसंगति के साथ। कहीं घनघोर वारिश से बाढ़ का खतरा तो कहीं पानी का छुटपुट वर्षण। इसलिए ये क्षेत्र पेयजल संकट से भी गुजरते हैं।कई किमी दूर से यहां पीने का पानी लाते हैं ऊंची नीची जाति का दंश भी वे झेलते हैं। यहां एक कहावत मशहूर है गगरी ना फूटे खसम मर जाए।एक गगरी जल की कीमत पति से ज्यादा महत्व रखती है।
यहां पर समय-समय पर पेयजल मुहैया कराने के लिए तमाम योजनाओं पर काम हुआ, लेकिन जब कसौटी पर कसने का वक्त आया तो व्यवस्थाएं नाकाफी ही साबित हुईं। एक बार फिर चुनाव की दहलीज पर खड़े बुंदेलखंड में लोग जलसंकट की मार झेल रहे हैं। उनका ज्यादा वक्त पानी के जुगाड़ करने में ही बीतता है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि चुनावी बेला में लोगों के लिए रोजी-रोटी और पानी पर बात भी होती नहीं दिखी। बहुत पहले दुष्यंत कुमार। ने लिखा था रोटी नहीं तो क्या ज़ेरे बहस का मुद्दा तो है देहली में।अब तो वह भी नहीं।
रोटी तो हमारे आज़ादी के झंडे में भी भूख से तड़फती जनता का प्रतीक थी।रोटी ,कपड़ा और मकान इंसान की ज़रुरत में शामिल हैं किंतु बिना रोटी जीवन संभव नहीं।यह जीवन की बुनियादी ज़रूरत है।प्रथम पंचवर्षीय योजना में इसीलिए प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कृषि की तरक्की के सघन प्रयास किए । जिससे पांच साल में देश आत्मनिर्भर बन गया।अब तक जो राशन बंटता है वह पंडित जी कृषि क्रांति का वरदान है पर राशन से किसी का पेट भर सकता है क्या उसे रोज़ी चाहिए जिससे वह अपना और परिवारजनों का पेट भर सके। रोटी पर इसलिए कई लोकगीत गाए जाते बुंदेलखंड में घर में बहू भी आती है तो रोटी बनाने वाली ही कहते हैं। कविताओं में भी रोटी अक्सर आई है क्यों ना आए उसके बिना रहा भी नहीं जा सकता ।सारा संघर्ष पेट की इस रोटी के लिए ही है। इसलिए तो लोग कह उठते हैं -ये रोटी हैं गंगा ये रोटी हैं यमुना ,बहता हैं अमृत हैं ऐसी ये रोटी।
रोटी की अहमियत रोटी को नहीं मालूम/ रोटी न मिले तो भूखे इंसान की आँखें रोती हैं।तो किसी को रोटी स्वरुप चंदा मामा दिखता है।
आज जब जमीनों, जंगलों, नदियों तालाबों, पहाड़ों सागरों पर लगातार कारपोरेट कब्जा जमा रहा है तो ग़रीब आदमी क्या करेगा । अफ़सोसनाक तो यह है कि बुंदेलखंड में पन्ना और छतरपुर जिला हीरे की खदानों के अतिरिक्त अन्य प्रमुख प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से सम्पन्न होने के बावजूद बहुसंख्यक आबादी रोजी और रोटी की तलाश में भटक रही है।2020-21 कोरोना काल में जो मजदूर अपनी रोजी छोड़कर आए वे वापस नहीं गए इससे समस्या विकराल हो गई है। सागर ,दमोह जिले में लाखों परिवारजन बीड़ी व्यवसाय से कमा लेते थे। हज़ारों लोग तेंदूपत्ती तोड़ने का काम पा जाते थे वह काम अब धुंधला हो गया है।काम की तलाश से हताश युवा नशाखोरी कर घर बर्बाद करने पर उतारू है। ऐसे हालात कमोवेश देश भर में है।
रोटी और रोजी के लिए संघर्ष निरंतर जारी है।जो सरकार को नज़र नहीं आता ।उधर गेहूं की अत्यधिक पैदावार होने के बावजूद लोग रोटी को तरस रहे हैं इससे शर्मनाक और क्या हो सकता है। कहा जाता है कि भारत में गेहूं का उत्पादन इतना अधिक होता है कि पूरी दुनिया यदि भूखी हो तो वह छह महीने उनका पेट भर सकती है। आखिरकार ये गेहूं कहां चला जाता है । पिछले साल हमने यूक्रेन को भारी तादाद में गेहूं तब दिया था जब वहां युद्ध के कारण गेहूं उत्पादन कम हो पाया था विदित हो यूक्रेन कई देशों को गेहूं निर्यातक देश है ।तब इन देशों को भी गेहूं पहुंचाया गया।देश में गेहूं तब भी पर्याप्त रहा।80करोड़ लोगों को बराबर राशन बंटता रहा । इस बीच अडानी समूह ने भारी भरकम गोदाम बनाए तथा किसानों से सस्ता गेहूं लेकर उन्हें गले तक भर रखा है।ताकि कहीं कमी आने पर मनमाने दाम वसूले जा सकें।इस संग्रहण से गेहूं के बाजार की कीमत दोगुनी से ज्यादा हुई है।अब स्थितियां इस तरह की निर्मित हो गई हैं कि जब रोजगार नहीं तो रोटी कैसे नसीब हो।राशन मन लुभाने का आसान तरीका निकाला भारत सरकार ने इसका फायदा विधानसभा लोकसभा चुनावों में उठाया।आगे क्या स्थिति बनती है ये वक्त बताएगा क्योंकि बिना रोजी रोटी पाना आसान नहीं रहा।यह संघर्ष क्या यूं ही जारी रहेगा ?अल्लामा इक़बाल ने लिखा था-
जिस खेत से दहक़ां को मयस्सर नहीं रोज़ी उस खेत के हर खोशा-ए -गंदुम को जला दो ।