कनक तिवारी
(1) भारत के लिए फ़ख्र की बात है कि दुनिया का सबसे बहुसंख्यक लोकतंत्र 140 करोड़ इंसानों के लिए आया। लोकतंत्र में हुकूमत तो बहुमत की होती है। चाहे एक पार्टी की या कई पार्टियों के जमावड़े की। चाहे ऐसा जमावड़ा भी जिसकी इकाइयों की वैचारिकता परस्पर विपरीत हो लेकिन सत्तासुख की मतलबपरस्ती बांदी बना ले। बहुमत लोकतंत्र में सरकार के नसीब का निर्णायक होता है। लेकिन बहुमत ठीक उसी वक्त देश की जनता के जमीर का निर्णायक नहीं हो सकता। सरकारें तो आज़ादी के बाद से ही बन बिगड़ रही हैं। आगे भी बनेंगी। जैसे जैसे आज़ादी से दूर होते गए। वैसे वैसे निजाम अवाम से दूर होता गया। नेहरू से बड़ा लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री नहीं हुआ। लोकतंत्र की मोटर ढलान पर है। ड्राइवर प्रधानमंत्री के पांव ब्रेक को दबाने के बदले एक्सीलरेटर को दबा रहे हैं। मोटरगाड़ी का गियर तक चेंज नहीं कर रहे हैं।
(2) राजनीति के लगातार नीचे गिरते ग्राफ के बावजूद कुछ नई परिघटनाएं घटीं। राजनीति को नेता, अफसर, पत्रकार, बुद्धिजीवी बल्कि जनता के कई कई पुराने परिदृश्यों, पुराने सूत्रों, पुरानी भाषा, पुरानी समझ और पुराने संकेतों में ही समझाते हैं। वक्त यह सब ठुकरा रहा है। सफलता का नया गुर कुछ नेताओं ने देख लिया। एक दूसरे को समझा लिया। थोड़ी बहुत नानुकुर के बाद आश्वस्त हो गए। फिर एक इंडिया गठबंधन औपचारिक और वैधानिक रूप से खड़ा हुआ। इस नई राजनीतिक फिज़ा के मुख्य किरदार बनकर कुछ नौजवान भी उभरे। उन्हें लोग परिवारवाद का उत्पाद भले कहते रहें। राहुल, अखिलेश और तेजस्वी, उद्धव, स्टालिन, शरद पवार केजरीवाल तथा बाहर से सही ममता के साथ आए।
(3) आज़ादी के लिए आन्दोलन करने और संविधान बनाने में लाखों भारतीयों का योगदान है। लेकिन कुछ में दूरदृष्टि थी। वे भविष्य को दशकों और सदियों में पढ़ लेते रहे। तीन नाम आज भी प्रासंगिक हैं। गांधी, नेहरू और अम्बेडकर के बिना लोेकतंत्र अबूझा, अव्यक्त और विकृत लगता है। कटाक्ष करने वाले नहीं जानते कि जवाहरलाल का कद अब भी इतना बड़ा है कि उनके परिवार की चौथी पीढ़ी तक की जिजीविषा की जनस्वीकार्यता धूमिल नहीं हुई है। परिवारवाद शब्द को गाली की तरह वे लोग इस्तेमाल करते हैं जिनकी पार्टी में 100 से ज़्यादा लोग परिवारवाद के कारण मिली टिकटों पर हर चुनाव लड़ते रहते हैं।
(4) कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो‘ यात्रा की। उनका मज़ाक उड़ाने काॅरपोरेट की मालिकी की गोदी मीडिया में प्रतियोगिता प्लान्ट हुई। अनदेखी वर्षों से की जा रही थी। राहुल की ही नहीं मोदी से असहमत हर व्यक्ति की, चाहे भाजपा में भी रहा हो। सो खासकर कुछ नौजवानों ने बहुत सोच विचार के बाद बहुदलीय सहयोग के एडवेंचर का रास्ता बनाया। जोखिम लेने पर बहुत नुकसान नहीं भी होना था। राहुल की न्याय यात्रा परिपूरक ही थी। जनयात्राओं का करतब राजनीति में गांधी और उनके पहले संस्कृति पुरुष विवेकानन्द द्वारा भारत को समझने का जतन बना था। हज़ारों किलोमीटर की राहुल और अन्य नेताओं की यात्राओं का जोखिम सहयात्रियों की गवाही में करोड़ों भारतीयों की स्वीकार्यता में पैठ गया। तब तक लोक जनसंचार का खेला हो चुका था। व्हाट्सएप विश्वविद्यालय और आई0टी0 सेल पसीने, आंसू और खून की त्रिवेणी का राजनीतिक अर्थ नहीं समझ पाए।
(5) भाजपा, उसके सहयोगियों और गोदी मीडिया ने अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते राहुल के लिए पप्पू जैसा उपनाम ईजाद किया था। वह शब्द अब मीडिया के ही हलक में फंस गया है। फिर भी मानना होगा पूरे सत्ताकुल में अकेले नरेन्द्र मोदी हैं, जिन्होंने अपने भविष्य पर यह खतरा भांप लिया। इसीलिए वे ही सबसे ज़्यादा राहुल पर ताबड़तोड़ हमला करते रहे। चूक सबसे होती है। मोदी नहीं समझे कि जिस पर हमला कर रहा हूं, तो वह लोकतंत्र के बैरोमीटर में ऊपर ही चढ़ता रहेगा। राहुल ने राजनीति विज्ञान का ककहरा नहीं पढ़ा। बल्कि कुछ नए प्रयोग किए। उस तरफ नेताओं तो क्या गोदी मीडिया का ध्यान भी कम जा पाया। राहुल को नाना, दादी और पिता से राजनीति विरासत में मिली। बालिग नहीं हुआ कि झूठे हिंसक हमले झेलने पड़े। उसे लगा अभिमन्यु बनाया जा रहा है। इस महाभारत में अपनी लड़ाई अकेले नहीं साथियों से मिलकर लड़नी पड़ेगी।
(6) विपक्ष की राजनीति में ज़्यादा नैतिक चेहरे नहीं बच पा रहे थे, जो मोदी के कारिन्दे बनी ई0डी0 और सी0बी0आई0 जैसी एजेंसियों के दबाव के आगे झुकने से इन्कार करें। कुछ अपवाद ज़रूर रहे। राहुल से 55 घंटों की लगातार पूछताछ के बाद भी ई0डी0 के हाथ सिफर रहा। राजनीतिक शब्दावली में उपहास किए ही जाते हैं। ‘क्या सभी मोदी चोर हैं?‘ फिकरा कसने भर से दंड संहिता में मानहानि का मुकदमा नहीं बनता। फिर एक मोदी खोजा गया। मुकदमा खड़ा किया गया। मजिस्ट्रेट की समझ शायद अग्रिम में हासिल कर ली गई। हाई कोर्ट भी अपने स्तर पर नहीं रहा। राहुल को अधिकतम दो साल की सज़ा मिली जो वैसे अपराध सिद्ध होने पर ज़्यादातर जु़र्माना ही होता है। फैसले के कारण सांसदी छीन ली गई। 24 घंटे में सरकारी मकान खाली कराया गया। सुप्रीम कोर्ट ने फिर हाई कोर्ट तक को फटकार लगाई। तब भी हीलाहवाला करते सांसदी वापस हुई।
(7) ई0डी0 वह बाज़ है जो मोदी विरोधी शिकार को गौरेया चिड़िया समझता दबोच लेता है। प्रतिरोध करे तो जेल में डालता है। राहुल अकेले नेता हुए जिसने खुलेआम कहा चाहे जितनी जांच करा लो। मैं अपने कौल पर डटा रहकर सरकार की अवाम विरोधी नीतियों की मुखालफत करता रहूंगा। नफरत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान खोलने आया हूं। संसद में युवकोचित सलूक करते मोदी की झप्पी लेने की भी कोशिश की। यह लिखने का मकसद नहीं कि राहुल गांधी विवेकानन्द, हातिमताई या प्रसिद्ध नाविक सिंदबाद हैं। जैसा लोकतंत्र चल रहा, वह तो टाइटेनिक जहाज की तरह बनाया जा रहा है। जनता ग़फलत में रही तो उसका डूबना तय है। डींग चाहे जितनी मारी जाए। गाल चाहे जितने बजाए जाएं। इंडिया गठबंधन ने अपनी पहली मंज़िल पाई है। रास्ता लम्बा है। ये सब भी दूध के धोए नहीं हैं। जनता के लिए अगर पश्चाताप करें अपनी गलतियों को लेकर तो उनकी आत्मा को जनता ही शुद्ध कर सकती है।