जेपी सिंह
फिल्म चौदहवीं का चांद में शकील बदायुनी का लिखा और लता मंगेशकर का गया ये गीत- “बदले-बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं, घर की बरबादी के आसार नज़र आते हैं”; आपने सुना होगा। रविवार को जब नरेन्द्र मोदी ने तीसरी बार भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली तो मोदी जी का व्यवहार बदला हुआ दिखाई दिया और नरेन्द्र मोदी विनम्रता की प्रतिमूर्ति बने दिखाई पड़े। मोदी ने विनम्र लहजे में तीसरे कार्यकाल की शपथ ली।
पिछले हफ़्ते समाप्त हुए चुनावों ने श्री मोदी को संसदीय बहुमत से वंचित कर दिया और सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें विभिन्न गठबंधन सहयोगियों की ओर रुख करना पड़ा। जब तक मोदी के राजनीतिक प्रबन्धक अन्य दलों के सांसदों को प्रलोभित करके पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर लेते तब तक उन्हें जदयू और चन्द्रबाबू नायडू की टीडीपी की धुन पर नाचना पड़ेगा।
उनके नेताओं को मोदी के समक्ष अपनी मांगें और नीतिगत राय रखने के लिए जाते समय टीवी कर्मियों द्वारा घेर लिया गया है। उनके विरोधियों को भी अधिक प्रसारण समय मिल रहा है।
मोदी में ही सबसे बड़ा बदलाव देखा जा सकता है। फिलवक्त एक अकेला सब पर भारी और 56 इंच के सीने वाला दम्भ तिरोहित हो गया है। वे खुद को विनम्रता की प्रतिमूर्ति के रूप में पेश कर रहे हैं। मोदी ने शपथ ग्रहण से पहले शुक्रवार को अपने गठबंधन के सदस्यों को संबोधित करते हुए कहा, “सरकार चलाने के लिए बहुमत ज़रूरी है। लेकिन देश चलाने के लिए आम सहमति ज़रूरी है।” “लोग चाहते हैं कि हम पहले से बेहतर प्रदर्शन करें।”
मोदी का संदेश था कि वे अगले दस साल तक प्रधानमंत्री रहेंगे (हालांकि उन्होंने यह नहीं कहा कि यह उन्हें कैसे पता है), लेकिन हां उन्होंने यह बात सरसरी तौर पर कही थी। असली संदेश तो सहयोगी दलों के लिए यह था कि वे खबरों और सूचनाओं पर ध्यान न दें।
संदेश था कि शपथ ग्रहण के साथ ही उनकी सरकार के बारे में खबरें तो आना शुरु हो ही जाएंगी, लेकिन सहयोगी दल इनकी अनदेखी करें और बिना पुष्टि किसी बात पर भरोसा न करें। आखिर उन्हें यह सब कहने की जरूरत क्यों थी? निश्चित रूप से इसलिए क्योंकि अब सरकार के बारे में उस तरह लिखा जाएगा जैसा कि पिछले एक दशक में नहीं लिखा गया। हम अभी एक पूर्ण गोपनीयता वाले काल से बाहर आए हैं।
पिछले दो कार्यकाल यानि दस साल को देखें तो मोदी की कैबिनेट के मंत्रियों को नोटबंदी की हवा तक नहीं थी। बाद में यह सामने आया था कि नोटबंदी के ऐलान से चंद घंटे पहले ही कैबिनेट की बैठक बुलाई गई थी जिसमें नोटबंदी को मंजूरी दिलाई गई थी। लेकिन इस बैठक से पहले सभी मंत्रियों को उनके मोबाइल फोन बाहर ही छोड़ने की हिदायत दी गई थी और ऐसा इसलिए किया गया था कि नोटबंदी की खबर बाहर न चली जाए। चूंकि मंत्रियों को भी नहीं पता था, इसलिए उनके मंत्रालयों को भी कोई खबर नहीं थी। ऐसी ही स्थिति 2020 में लागू किए गए देशव्यापी लॉकडाउन को लेकर भी थी जिसके बाद सरकार में शामिल लोग तक सकते में आ गए थे।
दरअसल अभी तक नरेंद्र मोदी की अति-केंद्रीकृत निर्णय-प्रक्रिया रही है ऐसे में यह उम्मीद कम ही है कि वे गठबंधन सरकार चलने के लिए ‘सामूहिक’ निर्णय-प्रक्रिया की शैली अपनाएंगे।
संसदीय लोकतंत्र में मोदी ने लगभग ‘राष्ट्रपति’ प्रणाली की कार्यशैली अपना रखी थी, इसका उल्लेख समय-समय पर होता रहा है, विशेष रूप से इसलिए क्योंकि उनके शासन में ‘ब्रांड मोदी’ को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया है, तथा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने सभी चुनावों में उन्हें ही आगे करके चुनाव लड़ती रही है।
मोदी की 2019 की विशाल जीत को राजनीतिक विश्लेषकों ने भारत के लोकतंत्र के लिए खतरनाक माना, क्योंकि यह जनादेश प्रधानमंत्री मोदी और विपक्षी दलों के एक गैर-मौजूद दावेदार के बीच चुनाव की दौड़ को राष्ट्रपति शैली में परिवर्तित करके हासिल किया गया था।
पिछले पांच सालों पर नज़र डालने पर ऐसा लगता है कि इस जनादेश ने मोदी सरकार की राष्ट्रपति शैली की सरकार को बढ़ावा दिया है – जिसका केंद्रबिंदु पीएमओ है। यह शैली तब और भी स्पष्ट होती है जब आप 2019 की जीत के बाद मोदी सरकार को कुछ असफलताओं और चिंताओं का सामना करना पड़ा।
प्रधानमंत्री होने के नाते मोदी कैबिनेट की नियुक्ति समिति (एसीसी) के प्रमुख हैं, जबकि दूसरे सदस्य उनके डिप्टी गृह मंत्री अमित शाह हैं। पिछले पांच सालों में, पीएमओ में महत्वपूर्ण पदों पर काम करने वाले कुछ अधिकारियों को सरकार की महत्वपूर्ण चिंताओं को संभालने के लिए एसीसी द्वारा भेजा गया था। शायद चिंता यह थी कि वे नियंत्रण से बाहर हो सकते हैं और इस तरह एक मजबूत नेता के रूप में प्रधानमंत्री की छवि को धूमिल कर सकते हैं। एसीसी द्वारा कुछ अन्य अधिकारियों को भी मोदी के कार्यालय में काम करने के लिए बुलाया गया था, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि एक प्रणाली जिसे केवल प्रधानमंत्री पर ध्यान केंद्रित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है, सुचारू रूप से चले।
लेकिन, जबतक इस बार गठबंधन सरकार है अब ऐसा कुछ होता नहीं दिखता। सहयोगी दलों की मौजूदगी के चलते अब कैबिनेट की जिम्मेदारी और अधिकार सिर्फ एक ही व्यक्ति के पास अब नहीं रहेंगे। यह लोकतंत्र के लिए एक अच्छा संकेत है।
पिछले एक दशक से मोदी के नेतृत्व की पहचान यह रही है कि वे अपने विरोधियों को तोड़ने और उन्हें अपने पक्ष में लाने के लिए पुलिस मामलों के दबाव से लेकर सत्ता में हिस्सेदारी और उसके लाभों के लालच तक अपने पास मौजूद सत्ता के हथकंडों का इस्तेमाल करते हैं। विश्लेषकों का कहना है कि एक कमजोर सत्तारूढ़ पार्टी शीर्ष पर अपनी जगह मजबूत करने के लिए कुछ सांसदों को अपनी तरफ खींचने के लिए इस तरह की रणनीति अपना सकती है।