अग्नि आलोक
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थोपना नहीं रोपना

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पुष्पा गुप्ता

कुछ बातें थोप दी गई थीं
मेरे जैसी लड़कियों पर
एक अल्हड़ सी उम्र में
देह में परिवर्तन दिखते ही माँ
एक शिक्षिका हो जाती थी
बालों का साइड पार्टीशन
तब उल्टी मांग कहा जाता था
जीजी अब इसकी सीधी
मांग निकाला करो
शादी के बाद भरने में
आसानी रहेगी , बोल कर
किसी हितैषी महिला ने
मेरी बीच से मांग चीर कर
कसी हुई चोटी गूंथ दी
लगा जैसे सर पर कोई
बोझिल सी टोकरी रखी हो
मुझे तो वही उल्टी मांग की
ढीली चोटी
जँचती थी न खुद पर

आईने में जब आधे माथे
पर जुल्फों की बदली
और आधे पर चमकती
धूप देखती तो
खुद को ही प्यारी लगती थी
अब ये सीधी मांग…उफ़्फ़
इतना ही काफ़ी नहीं था
मेरे किसी ममेरे भाई बहन
के परोजन में
साथ देने के लिये मुझे
पटली पर बिठा दिया गया
अचानक दी गई इतनी
तवज्जो अच्छी तो लगी मुझे
पर दूसरे ही क्षण जीभ के
नीचे बताशा रखवाकर
मेरी नाक कच्च से बींध दी गई
ये कह कर के बड़ी हो रही है
समय से नाक न बिंधने पर
खाल पक जाएगी
फिर शादी के वक़्त नथ
कैसे पहनेगी
दर्द से मेरी आँख से
आँसू निकल आए
और उस पर कुछ दिन तक
चना न खाने
और हल्दी तेल लगाने की
हिदायतें अलग

अजीब मुसीबत थी
लगता था क्यों ये सब
थोपा जा रहा है मुझ पर
पर उस अल्हड़ उम्र में
मैं ये नहीं जानती थी कि
ये थोपा नहीं
रोपा जा रहा है मुझमें
संस्कारों को
मेरी चंचलता को दिशा
दी जा रही है
जो आने वाली ज़िंदगी में
मुझे थामे रखेगा
आज भी अपनी सीधी मांग
और नाक में पहने चमचमाते
मोती को देखती हूँ तो
माँ की अन्य हिदायतें भी
सहसा याद आ जाती हैं
जो जीवन की टेढ़ी मेढ़ी
डगर पर संतुलन
बनाने में मेरी मदद करती हैं.

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