मध्यप्रदेश को देश का हृदय प्रदेश कहा जाता है। प्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब 200 किमी दूर सागर जिला स्थित है। सागर प्रदेश के मध्य क्षेत्र में आता है। महान दानी डॉ. हरीसिंह गौर की नगरी के रूप में सागर प्रसिद्ध है। इस बेरोजगारी के दौर में रोजगार को लेकर सागर की स्थिति कोई अच्छी नहीं है। ना ही सागर का रोजगार के क्षेत्र में किसी औद्योगिक शहर जैसा कोई विस्तार है। मगर, फिर भी देश के विभिन्न शहरों से बेरोजगारी का दंश झेल रहे कामगार रोजगार की आस में सागर जैसे पिछड़े शहरों में आ जाते हैं।
ऐसे ही कामगारों की एक बसाहट सागर के पुराने बस स्टैन्ड के पास है। इस बसाहट में करीब 100-150 आदिवासी और मुस्लिम कामगार परिवार सहित रह रहे हैं। इन कामगारों की लगभग 40-50 झोपड़ियां लकड़ी और तिरपाल के सहारे बनी हुई हैं। इन झोपड़ियों में से प्रत्येक झोपड़ी में कामगार और उसके परिवार सहित करीब 6-7 सदस्य रहते हैं। इन कामगारों में बहुत से कामगारों और उनके परिवार जनों की शारीरिक हालत कुपोषण से ग्रसित दिखती है।
सागर में बसे इन कामगारों की स्थिति और बसाहट देखकर शासन-प्रशासन को छोड़कर किसी भी इंसान का दिल पसीज सकता है। कामगारों की दयनीय हालात देखकर कोई भी इंसान यह महसूस कर सकता है कि, बच्चों और परिवार का पेट भरने के लिए कामगार अमानवीय स्थिति को स्वीकार कर लेता है।
जब हमने इन कामगारों से इनका दुख-दर्द जानने के लिए संवाद किया। तब कामगारों के जीवन-यापन करने का दुख और कई चुनौतियां हमारे सम्मुख आयीं।
जब हम आदिवासी समुदाय के कुछ कामगारों से बातचीत करते हैं, तब आदिवासी बाला कहते हैं कि ‘मैं उज्जैन का मूल निवासी हूं। हम 4 भाई है और चारों भूमिहीन हैं। दो वर्ष पहले मैं उज्जैन से सागर आया था। तब से गैस चूल्हा-कुकर सुधारने का काम करता आ रहा हूं। धंधे की हालत यह है कि हम बमुश्किल से पेट भर पाते हैं लेकिन, हमारे 3 बच्चों में से एक को भी स्कूल नहीं भेज पाए। बच्चे इसलिए भी स्कूल नहीं जा पाए क्योंकि, हमारे पास ना कोई स्थाई रोजगार है और ना स्थाई घर है। हम सागर जैसे जिस किसी भी शहर को जाते है वहां तब तक रुकते हैं जब तक पेट भर सकें। जब परिवार का पेट भरना कठिन हो जाता है तब हम रोजगार के लिए दूसरे शहर निकल जाते हैं।
बाला और अन्य कामगार जहां झोपड़ी बना कर रह रहे हैं वहां की खराब हालत देखकर हम बाला से पूछते हैं कि, यहां झोपड़ी में रहने से आपको क्या-क्या समस्याएं झेलनी पड़ रहीं हैं? तब बाला बताते हैं कि, ‘सबसे बड़ी समस्या हमारे सामने इस समय भीषण गर्मी और तेज धूप है। धूप से हम इसलिए परेशान हैं कि, सभी कामगारों की झोपड़ी पर पॉलिथीन छायी है, जो धूप में तेज गरम हो जाती है। वहीं, बिजली ना होने से हम झोपड़ी में पंखा तक नहीं लगा पाते हैं। गर्मी और धूप हमें पसीना से भिगो देती है। बिजली ना मिलने से मोबाईल भी हमें 10 रुपए में चार्ज करवाना पड़ता है।
दूसरी समस्या बाला पानी और शौच की बताते हैं। वह कहते हैं कि, ‘पीने और बाकी कामों के लिए पानी भरने हमें दूर जाना पड़ता है। वहीं हमें पानी से ज्यादा दूर शौच के लिए जाना पड़ता है। शौच हम खुले में ही करते हैं, क्योंकि शौचालय की व्यवस्था नहीं हैं।
उज्जैन शहर के ही हैं अर्जुन। वह बोलते हैं कि, ‘हमारे पास 2 बीघा जमीन है। जिसमें गुजर-बसर चलाना मुश्किल है। ऐसे में सागर जैसे शहरों में जाकर हम कुकर सुधारने का काम करते हैं। यहां हम पति-पत्नी और हमारी तीन बेटियां व एक बेटा झुग्गी में साथ रहते हैं। झुग्गी इतनी मजबूत नहीं होती कि, गर्मी, बारिश और ठंड झेल सके। हमारी झुग्गियां जहां बनी हुई वहां गंदगी और कचरे का जमाव रहता है। जिससे मच्छर इतना रहता है कि, हम और हमारे बच्चे सो नहीं पाते। मच्छर की दवा और धुआं कुछ काम नहीं आता।
अर्जुन आगे बताते हैं कि, ‘हम लोगों का इस तरह झोपड़ी बना कर गुजर-बसर करना इतना आसान नहीं हैं। हमें आये दिन शासन-प्रशासन धमकी देता है कि, यहां अतिक्रमण कर रखा है। आपको यहां से हटना पड़ेगा। हां हम हट भी जाएंगे। मगर शासन-प्रशासन को हमारी स्थिति तो जानना चाहिए कि, हम किस हालातों में जीवन काट रहे हैं। साथ ही प्रशासन हमारे रहने की व्यवस्था भी करवाए।
जब हमने पूछा कि, आप झुग्गियों में ही क्यों रहते हैं, किराये के मकान में भी तो रह सकते हैं? तब अर्जुन बताते हैं कि, ‘हम इतना नहीं कमा पाते कि किराये का मकान ले सकें। अपनी कमाई से यदि हम किराये का मकान ले लेंगे। तब बच्चे और हम पति-पत्नी भूखे रह जाएंगे।
अर्जुन आगे कहते हैं कि, ‘हमारी कम आय हमारे बच्चों को शिक्षा से वंचित कर रही है। जब हमने कहा कि, सरकारी स्कूल में तो शिक्षा फ्री है, वहां क्यों नहीं एडमिशन करवाते अपने बच्चों का? तब अर्जुन बोलते हैं कि, सरकारी स्कूल में भी एडमिशन करवाते वक्त हमसे पैसा मांगा जाता है। ऊपर से बच्चों की ड्रेस, कॉपी-किताब का खर्च अलग है। ऐसें में हम बच्चों का पेट भरने के अलावा कुछ और ना सोच सकते हैं और ना कर सकते हैं।
आगे हम बातचीत करते हैं नरेंद्र से। उनका भरा-पूरा परिवार उनके साथ रहता है। नरेंद्र जीरा बेचने का काम करते हैं, जब जीरा नहीं बिकता तब वे मजदूरी करते हैं। वह अपना दर्द कुछ यूं बयां करते हैं कि, ‘कुल मिलाकर जब हमें काम मिलता है तब हमारी दैनिक आय 200-300 रूपये होती है। इतनी कम आय में परिवार चलाना ही कठिन है, हम हमारे इकलौते बेटे का भविष्य कैसे बनाएं? आज जिस तरह हम एक बेघर मजदूर हैं, मेरे जैसे मजदूर का बेटा एक मजदूर ना बन जाए। यह चिंता हमें खाए जाती है।
जब हमने पूछा कि, क्या किया जाए कि आपके जीवन की कठिनाइयां थोड़ी कम हो सकें? तब नरेंद्र कहते हैं कि, ‘सरकार रहने के लिए हमें थोड़ी जगह और सिर छुपाने के लिए घर मुहैया करवा दे, तब हम जी लेगें अपनी जिंदगी। यदि सरकार हमारे रोजगार में मदद करती है, तब हम अपने बच्चों को भी पढ़ा पाएंगे।
इसके आगे हमारी चर्चा आदिवासी महिला रागिनी से होती है। वह सागर की स्थाई निवासी है। मगर, झुग्गी में रहने को मजबूर हैं। हमने पूछा सागर की होने के बाद भी आप झुग्गी में क्यों रहती हैं? ‘तब रागनी कहती हैं कि, हमारा घर नहीं है। भूमि भी नहीं है। ऐसे में झुग्गी में ही रहना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि, मेरे माता-पिता और सास-ससुर के पास घर और जमीन थी। उन्होंने भी झुग्गी में ही जिंदगी गुजारा है।
रागिनी से जब हमने सवाल किया कि, सरकार की कौन-कौन सी योजनाओं का आपको लाभ मिलता है? तब वे कहती हैं कि, ‘हमें सरकार की किसी भी योजना का लाभ नहीं मिलता। हम शिक्षित नहीं है, इसलिए सरकार की किसी योजना का लाभ नहीं ले पा रहे। सरकार की किसी योजना का लाभ लेने की कोशिश करते हैं तब हमें समझ नहीं आता कि, कौन-कौन से दस्तावेज जरूरी है। ये दस्तावेज कहां बनते हैं हमें ढंग से पता तक नहीं होता। हम केवल सरकारी राशन की पर्ची बनवाने के लिए कई सरकारी दफ्तरों में चक्कर लगा चुके हैं। कोई कर्मचारी, अधिकारी हमें नहीं बताता कि, राशन पर्ची बनवाने में क्या-क्या कागज जरूरी है, कहां जमा करना है। राशन पर्ची बनने में कितना समय लगेगा। राशन की पर्ची बनवाने में ही हमारा संघर्ष इतना हो गया है कि, सोचते हैं किसी और योजना का लाभ हमें मिल नहीं पाएगा।
रागनी आगे अपनी आप बीती सुनाते हुए कहती हैं कि, ‘मेरी बच्ची को गले के नीचे फोड़ा हो गया था, तब 6000 रुपए उसके ऑपरेशन में लगा है। उस समय मेरे पास 1000 रुपए ही थे। इस स्थिति में बच्ची के इलाज के लिए मुझे 5000 रुपए का कर्ज एक व्यक्ति से लेना पड़ा है।
हमने पूछा कि, क्या आयुष्मान कार्ड का लाभ नहीं मिला आपको? तब रागनी कहती हैं कि, ‘हमारा आयुष्मान कार्ड नहीं बना है।, हमने पूछा क्यों नहीं बनवाया आयुष्मान कार्ड? इस पर रागनी बोलती हैं कि, ‘आयुष्मान कार्ड बनवाने के लिए सरकारी राशन कार्ड की पर्ची चाहिए होती है, जब राशन कार्ड की पर्ची ही नहीं बन रही तब आयुष्मान कार्ड कैसे बनेगा।
मोरम बाई एक उम्रदराज महिला हैं। जब हम उनसे बात करते हैं तब वह कहती हैं कि, ‘उम्र भर मेहनत करने के बाद भी बच्चों का जीवन नहीं बदल पाए। सरकार से उम्मीद थी की कोई लाभ मिलेगा, मगर हमें सरकारी पेंशन तक नहीं मिलती। उज्जैन में हमारा गांव है केलोरिया। गांव में हमें सरकार की तरफ से केवल राशन मिलता था।
आगे हमारी बात कुछ मुस्लिम लोगों से होती है। तब रिजवान और जुबेर बताते हैं कि, ‘हम उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले से काम की तलाश में सागर आए थे। सागर में हमने कपड़े बेचने का काम चुना। कपड़े में गलीचा, पायदान जैसे कपड़े हैं। यह कपड़े का काम ही है जो हमारा पेट भर देता है। हमने जब यह पूछा कि, उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर से मध्य प्रदेश इतनी दूर क्यों आते हैं काम के लिए, क्या आपके शहर में काम नहीं मिलता? तब वे बताते हैं वहां बेरोजगारी का आलम यह है कि, परिवार चलाना बहुत कठिन हो जाता है। ऐसे में हमें रोजगार के लिए अन्य शहरों में पलायन करना पड़ता है। अगर खुद के ही शहर में रोजगार मिलता तब हम अपना शहर छोड़कर क्यों दर-दर भटकते।
जुबेर आगे कहते हैं कि, ‘मुस्लिम समुदाय केवल सागर में ही नहीं ललितपुर जैसे अन्य शहरों में भी जाता है रोजगार करने के लिए।, जब हमने जुबेर से यह सवाल किया कि, अलग-अलग शहरों में रोजगार के लिए पलायन करने में आपको क्या कठिनाई ज्यादा आती है? तब जुबेर बताते हैं कि, ‘सबसे ज्यादा कठिनाई हमें अपने स्थायित्व में आती है। स्थायित्व ना होने से हमारा जीवन ही अस्थिर हो जाता है। हमारी हालत यह होती है कि, हमें कभी भी डेरा लेकर चलना पड़ता है। हमारा एक ठिकाना ना होने से हमारा रहन-सहन, खान-पान सब बिखरा-बिखरा रहता है।
इसके आगे जुबेर बोलते हैं कि, ‘एक अच्छा रोजगार ना मिलने से हम एक राह भटके मुसाफिर की तरह हो जाते हैं। हम जैसे मुसाफिर का ना स्थाई घर होता है ना स्थाई ठिकाना। केवल स्थाई होता है जीवन में रोजगार के लिए चलते जाना।
आगे हमारा संवाद मुस्लिम महिला जुमरत से होता है। वह बीमार है। जुमरत की बीमारी यह है कि, उनके शरीर में सूजन है और चलने फिरने में परेशानी होती है। जुमरत अपना दुख-दर्द बताते हुए कहती हैं कि, ‘मेरा शरीर जब कम बीमार था, तब मेहनत मजदूरी करके शरीर का इलाज कराती रही। मगर, जब शरीर पर सूजन बढ़ने लगी और दवा से आराम नहीं मिली तब मजदूरी करना तो दूर मेरे हाथ-पैर ने चलना ही छोड़ दिया। अब मैं बीमारी की हालत में अपनी झुग्गी में पड़ी रहती हूं।
जुमरत आगे कहती हैं कि, ‘मेरे पति का देहांत हो चुका है। मेरी दो बेटियां हैं। बड़ी बेटी की मैं शादी कर चुकी हूं। अब छोटी बेटी है जो मजदूरी से खुद का और मेरा पेट पाल रही है।
जब हम बेघर लोगों और प्रवासी कामगारों के आंकड़े देखते हैं तब नोबल नॉन प्रॉफिट के मुताबिक ज्ञात होता है कि, भारत में बेघर लोगों की आबादी तेज़ी से बढ़ रही है और अनुमान है कि यह लगभग 1.77 मिलियन है। भारत में बेघर लोगों की समस्या इसलिए और बढ़ जाती है क्योंकि आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी में रहता है। देश में अधिकांश बेघर लोग पुरुष हैं। उनमें अधिकांश की आयु 18 से 60 वर्ष के बीच है। बेघर होने की समस्या विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में व्याप्त है। अनुमान है कि 85% बेघर लोग शहरों में रहते हैं।
वहीं, इंडिया इन फैक्ट्स का डेटा कहता है कि, भारत में सबसे ज्यादा बेघर लोगों की संख्या उत्तर प्रदेश में 329,125 है। इसके बाद महाराष्ट्र में बेघर लोग 210,908 है। फिर, राजस्थान में 181,544 लोग बेघर है, चौथे नंबर पर मध्य प्रदेश है जहां 146,435 लोग बेघर हैं।
ऐसे में रोजगार के लिए हो रहे श्रमिकों के पलायन को लेकर प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो बताता है कि, जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार, देश में अंतर-राज्यीय प्रवासी श्रमिकों की कुल संख्या 4,14,22,917 है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, मध्य प्रदेश में 24,15,635 प्रवासी श्रमिक आये थे।
जिस तरह सागर में बेघर और प्रवासी कामगार बेबसी और संसाधन हीनता में रहने को मजबूर हैं उससे इन लोगों के व्यक्ति की गरिमा, आर्थिक व सामाजिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्यों पर संकट बरकरार है। सागर जैसे देश के विभिन्न शहरों में रह रहे संसाधनहीन लोगों के समग्र विकास के लिए विशेष नीतियां बनाने की जरूरत है और उन नीतियों के लिए जमीनी क्रियान्वयन की दरकार है। ताकि, लोग जीवन जीने के लिए बुनयादी सुविधाएं और व्यवस्थाएं हासिल कर सकें।