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क्यों हिंदुत्व की प्रयोगशाला नहीं बना उत्तर प्रदेश !

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रामशरण जोशी 

“जनता की सरकार, जनता के द्वारा और जनता के लिए”  (अब्राहम लिंकन, नवम्बर 1863)

“जनता की सरकार, जनता के द्वारा और कॉर्पोरेटपतियों के लिए” ( रा.श. जोशी, क्षमा के साथ; मई 2024)

“निर्वाचित निरंकुश शासक लोकतंत्र से चिपके रहने का स्वांग रचते हैं, जबकि वे उस समय  उसकी आत्मा को निकाल बाहर कर रहे होते हैं। “(स्टीवन लेवित्स्की और डेनियल जिब्लट: कैसे मरते हैं लोकतंत्र ?; पृ. 5)

“परमात्मा ने मुझे भेजा है। मुझ में जो शक्ति है वह बायोलॉजिकल नहीं है। मुझे मिशन पर भेजा गया है।” (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी; इंटरव्यू, न्यूज़ 18; मई 14 ,20  24)

“प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ईश्वर के अवतार हैं, महात्मा गांधी से महान हैं।” ( डॉ. लोकेशचन्द्र, अध्यक्ष, आईसीसीआर; इंडियन एक्सप्रेस, 1 नवंबर, 2014)।

। एनडीए नव निर्वाचित सांसदों की  संसदीय दल की बैठक में नेता का चुनाव किया जाना चाहिए था। जहां तक मुझे याद है, संसद भवन के विख्यात सेंट्रल हॉल में तालियों की गूंज के बीच सबसे बड़े बहुमत दल या गठबंधन के नेताओं (उर्फ़ प्रधानमंत्रियों) का 1971, 1977, 1980, 84, 89, 91, 98 और 2004 में चुनाव हुआ था। इसके बाद निर्वाचित नेता के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल राष्ट्रपति से शपथ ग्रहण कराने का आग्रह किया करता था। इस बार इस परंपरा का कितना पालन किया गया है, विवाद का विषय है।

इस मुद्दे को यहीं छोड़ देते हैं, लेकिन सरकार के गठन और मंत्रीपदों के विभाजन को लेकर सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा है, ऐसे आसार नहीं दिखाई दे रहे हैं। यह सर्वविदित हैं कि1980 में अटल+आडवाणी के नेतृत्व में स्थापित भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा आज़ मोदी+शाह ब्रांड भाजपा संस्करण के रूप में विख्यात है। यह आम धारणा  है कि 2014 में नरेंद्र दामोदरदास मोदी द्वारा प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही मूल भाजपा का ‘अवसान काल’ आरम्भ हो गया था।

2019 में अमित शाह के गृहमंत्री बनने के पश्चात् तो मोदी+शाह ब्रांड भाजपा लोकप्रिय राजनैतिक करेंसी बन गई थी। पाठकों को याद होगा, 2014 से 2019 तक मोदी -सरकार में भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह गृहमंत्री थे, और प्रधानमंत्री के बाद उनका आसन था। लेकिन, 2019 की मोदी-सरकर में उन्हें गृहमंत्री के स्थान पर रक्षा मंत्री बनाया गया। काफी आंतरिक खींचतान के बाद राजनाथ सिंह अपने ‘नंबर दो’ की रक्षा कर सके। पर प्रधानमंत्री के बाद सबसे महत्वपूर्ण गृह मंत्रालय अमित शाह को मिला। राजनाथ सिंह को रक्षा मंत्रालय से संतोष करना पड़ा।

समझा जाता है, इस समय सबसे अधिक विवाद गृह मंत्रालय को लेकर है। ग़ैर-भाजपाई घटक (चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार आदि) नहीं चाहते हैं कि अमित शाह को गृहमंत्री बनाया जाए। पिछले दस सालों, विशेष रूप से पांच सालों में,  उन्होंने अपने अनेक कट्टर विरोधी बना लिए हैं। प्रदेशों में विरोधी दलों की सरकारों की तोड़-फोड़ में भी उनका रोल मन जाता है। ऐसी आम धारणा है। उन्हें प्रतिशोध की राजनीति का बेजोड़ खिलाड़ी माना जाता है। कतिपय घटकों के नेता चाहते हैं कि गृह मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और लोकसभा का अध्यक्ष का पद गैर-भाजपा घटकों के पास रहे। इसके पीछे एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि गृहमंत्री के रूप में शाह की अनुपस्थिति की स्थिति में मोदी निरंकुश नहीं हो सकेंगे। उन्हें अन्य दलों के साथ मधुर व सहयोग के संबंध बना कर चलना पड़ेगा।

गृहमंत्री के रूप में अमित शाह की मौज़ूदगी ‘भय और आतंक’ का आभास कराती है और बेलगाम सियासी झटके देती रहती है। भय व घृणा से भरी आशंकाओं की पृष्ठभूमि में प्रमुख घटकों में अमित शाह का सख्त विरोध है। चूंकि, भाजपा के पास स्वयं का बहुमत नहीं है और सत्ता में अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए घटकों पर उसकी आश्रिता बढ़ गई है। संक्षेप में, उसकी विकलांग की स्थिति है। उसे सत्ता में गतिशील बने रहने के लिए प्रमुख घटकों की बैसाखियों की ज़रुरत रहेगी ही।

2025 में मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी आयु के सौ वर्ष पूरे करेगा। अगले वर्ष तक सरकार को बनाये रखने के लिए,  मोदी के नेतृत्व में भाजपा अपनी सम्पूर्ण शक्ति को झोंक देगी। किसी घटक को भटकने नहीं देगी। नेपथ्य में संघ भी ऐसा ही प्रयास करेगा। यह सही है कि भाजपा के अनुकूल चुनाव परिणाम नहीं रहे हैं; 2019 में उसने अपने दम पर 303 सीटें जीती थीं, जोकि घट कर 240 रह गई है। किसी भी सत्ताधारी दल के लिए 63 सीटों का नुकसान अकल्पनीय होता है। इसमें सबसे रोचक सियासी हादसा यह है कि बनारस में मोदी की जीत का मार्जिन करीब साढ़े तीन लाख कम हो गया। दूसरा हादसा यह रहा कि फैज़ाबाद ने भी भाजपा को दुत्कार दिया। अयोध्या में धूमधाम से राम मंदिर के निर्माण के बावजूद भाजपा का प्रत्याशी हार गया। हिंदुत्व का सिक्का चल नहीं पाया। उत्तर प्रदेश में ही मंदिर के नाम पर ‘राम सुनामी’ उमड़ी नहीं।

ये दो हादसे मोदी+शाह जोड़ी के लिए सियासी के साथ साथ मनोवैज्ञानिक व सांस्कृतिक भी कम नहीं है। यह आम धारणा रही है कि गुजरात व कर्णाटक के बाद भाजपा उत्तरप्रदेश को ‘ हिंदुत्व -प्रयोगशाला’ के रूप में देख रही थी। लेकिन, कर्णाटक के बाद अब उत्त रप्रदेश ने भी मोदी+शाह ब्रांड भाजपा को गच्चा दे दिया है। प्रदेश में राम पर रोटी भारी पड़ी है। कांग्रेस+ सपा जोड़ी या राहुल+ अखिलेश जोड़ी ने चमत्कारिक परिणाम दिए हैं। भाजपा के लिए  इस अप्रत्याशित सदमें से उभरना आसान नहीं रहेगा। मुख्यमंत्री योगी के नेतृत्व पर सवालिया निशान लग गया है। अलबत्ता, भाजपा को कलिंग विजय से ज़बरदस्त संतोष हुआ होगा। पहली दफा वह ओडिशा में अपने बलबूते पर सरकार बनाएगी।

वास्तव में 18 वीं लोकसभा का चुनाव अनेक दृष्टियों से विलक्षण रहा है। इस लेखक ने 1967 से चुनावों को कवर करना शुरू किया था। इससे पहले 1952 व 1957 के चुनाव प्रचार का साक्षी रहा और 1962 से देश के लिये  ‘चुनाव महत्व’  की चेतना पैदा हुई, जोकि मई 2024 तक बनी हुई है। बल्कि, इसका विस्तार ही हुआ है। लेखक के चुनाव-ज्ञात इतिहास में वर्तमान चुनाव कई दृष्टियों से अभूतपूर्व रहा है। यह चुनाव सबसे अधिक विवादास्पद, डरावना और अशुभ आशंकाओं से ग्रस्त रहा है।

चुनाव प्रचार के दौरान लोकतंत्र व संविधान विरोधी प्रवृत्तियां का सैलाब फूटा: समाज व राष्ट्र विभाजन, चरम ध्रुवीकरण, मध्ययुगीनता का ज्वार, अंधभक्ति की पराकाष्ठा, प्रधानमंत्री मोदी को ईश्वर का अवतार, पुरी के भगवान जगननाथ को ‘ मोदी भक्त’ घोषित करना (कोहराम मचने के बाद संवित पात्रा ने अपने इस कथन पर क्षमा मांगी।), प्रधानमंत्री पद की गरिमा का रसातलीकरण, लोकतंत्र+ संविधान+ संघीय ढांचा के अस्तित्व पर संकट के बादल, चुनाव आयोग का हाशियाकरण, उम्मीदवार धरपकड़ संस्कृति, क्षेत्रीय क्षत्रपों का उभार जैसी घटनाओं ने 19 अप्रैल से 1 जून 24 तक मौसमी तापमान के साथ साथ देश के सियासी तापमान को बढ़ाये रखा। सारांश में, ख़तरनाक और शर्मनाक माहौल में आम चुनावों का पटाक्षेप हुआ।

18 वीं लोकसभा के चुनावों को मोदी+ शाह जोड़ी के मनोवैज्ञानिक जंग के लिए सबसे अधिक याद रखा जायेगा। इस जोड़ी ने आरम्भ से ही ‘अबकी बार 400 पार’ का नारा लगाया था। 17वीं लोकसभा में भाजपा अकेली की 303 सीटें थीं, और केसरिया नेतृत्व ने अपने दम पर 370 सीटों का शंख बजाया था। भाजपा चाहती थी कि उसके नेतृत्ववाला राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) 400 सीटों से अधिक लाए। 2019 में 17वीं लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 342 सीटें एनडीए ने जीती थीं। इसलिए मोदी+शाह जोड़ी ने 400 पार सीटों की जंग शुरू की थी।

लेकिन, यह दांव मोदी नेतृत्व पर भारी पड़ गया। इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव यह हुआ कि जनता में धारणा बनने लगी कि भाजपा संविधान को बदलने जा रही है। इसके साथ ही ‘ एक राष्ट्र -एक चुनाव’ लागू करेगी। संघीय ढांचे को समाप्त कर दिया जायेगा। अमेरिकी तर्ज़ पर राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू होगी। वर्तमान आरक्षण व्यवस्था को समाप्त कर दिया जायेगा। इस धारणा का आधार भी है। भाजपा के वरिष्ठ और छुटभैये नेता संविधान को बदलने की बातें करते रहे हैं। मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की इस संविधान में आस्था नहीं रही है। पिछले पांच सालों में हिन्दू राष्ट्र का नारा भी लगता रहा है। मुस्लिम समुदाय में ‘दोयम दर्ज़े का नागरिक’ बनाये जाने के भाव पनपने लगे हैं। यहां तक कि उदारहिन्दुओं में भी भय व्याप्त हो गया था।

संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को समाप्त करके , हिन्दू धर्म को भारतीय राष्ट्र राज्य का  धर्म घोषित कर दिया जायेगा। ऐसी धारणाओं से दक्षिण भारत भी हिल गया और भाजपा के ‘चार सौ  पार’ मंसूबे को शिक़स्त देने में सक्रिय हो गया। उत्तर भारत के सभी समुदाय के लोगों ने भी संघ परिवार के मंसूबों को पसंद नहीं किया था। इससे पहले, 2014 व 2019 के आम चुनावों में आतंकित करने वाली आशंकाएं पैदा नहीं हुई थीं। लेकिन, इस दफा चुनाव पूर्व और चुनाव -दौरान नए सम्भावी संविधान को लेकर कोहराम मचा ही रहा । ज़ाहिर है, चुनावों पर इसका कम -अधिक प्रभाव ज़रूर पड़ा है। भाजपा गठबंधन 400 सौ पार  कर नहीं  कर सका है। 

सबसे दिलचस्प और डरावनी आशंका फैलती रही कि 2024 के आम चुनाव ‘अंतिम चुनाव’ रहेंगे। इसके बाद कोई चुनाव नहीं होंगे। चार सौ पार करने के पश्चात नरेंद्र मोदी निरंकुश बन जायेंगे। उनकी दाई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी वे ठिकाने लगा देंगे। उनके चाल+चरित्र+चेहरे  में आत्ममुग्धता, सर्वसंपूर्णता, सर्वसत्तावादिता, सर्वशक्तिमान, फ़ासीवादिता जैसी प्रवृत्तियों के ज्वार-भाटा उमड़ते  रहते हैं। उन्होंने ने विगत में भी संसद और विधानसभा ( गुजरात ) को महत्व नहीं दिया। सदनों में उनकी पर्याप्त उपस्थिति का आभाव खटकता रहा है। वे एक प्रकार से उदासीन बने रहे हैं। उन्होंने अपने प्रधानमंत्री कार्यालय को ही सर्वसत्ता दुर्ग का रूप दे डाला है।

वे संघ, भाजपा,लोकतंत्र , संसद, संवैधानिक संस्थाओं से ऊपर उठ चुके हैं। वे असंख्यभुजी बन चुके हैं। चार सौ पार के बाद तो वे आसमान में उड़ने लगेंगे। तब  चुनावों की कोई ज़रुरत नहीं रह जाएगी। वे रूस केराष्ट्रपति  पुतिन और चीन के राष्ट्रपति झी जिनपिंग के नक़्शे क़दम पर चल पड़ेंगे!वे निर्वाचित तानाशाह बन जायेंगे। इन आशंकाओं के माहौल में विपक्ष को ‘लोकतंत्र और संविधान रक्षा’ का अभियान चलाना  पड़ा। चुनाव मंच से भाषण होते रहे। लोकमत निर्माता सक्रिय हुए। सिविल सोसाइटीज सक्रिय  हुईं। गोष्ठियों के आयोजन होने लगे। देश में लोकतंत्र और संविधान बचाओं को लेकर माहौल बनने लगा। भाजपा भयभीत होने लगी।वह  आत्मरक्षा में फिसल गयी। बीच चुनाव अभियान मोदी+ शाह जोड़ी ने ‘400 पार’ का नारा देना बंद कर दिया  था।

ऐसे परिदृश्य में चुनाव प्रचार में एक बेहद दिलचस्प आयाम भी जुड़ा। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बहुसंस्करणीय अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को एक विवादास्पद इंटरव्यू दे डाला। उन्होंने अपने इंटरव्यू में घोषणा कर डाली की अब भाजपा स्वयं समर्थवान है। वह संघ पर निर्भर नहीं है। संघ स्वयं भी समर्थ है। उसे भी भाजपा की ज़रुरत नहीं है। दोनों के स्वतंत्र कर्म क्षेत्र हैं। इससे राजनैतिक गलियारों में तहलका मच गया। सवाल उठने लगे कि बीच चुनाव प्रचार में इस घोषणा की क्या वज़ह हो सकती है?

क़यासों के घोड़े दौड़ने लगे; 1. चुनाव परिणामों के बाद मोदी ब्रांड- भाजपा कोई अप्रत्याशित क़दम उठाने जा रही है, देश में उथलपुथल मच सकती है; 2. संघ को संभावित अप्रिय परिणामों के प्रभाव  से बचाने  के लिए कहा जा रहा है; 3. आम धारणा  रही है कि मतदान -प्रक्रिया में संघ उदासीन बना रहा है; 4.  संघ नेतृत्व को औक़ात दिखाने  के लिए मोदी ने भाजपा अध्यक्ष नड्डा के द्वारा ‘प्रॉक्सी जंग’ छेड़ी है; 5. संघ सुप्रीमो मोहन भागवत और भाजपा सत्ता सुप्रीमों नरेंद्र मोदी के मध्य ‘वर्चस्व जंग’ चल रही है और मोदी+शाह सत्ता जोड़ी संघ के साथ आर-पार की लड़ाई लड़ लेना चाहती  हैं। यह मातृ संस्था संघ और उनकी कुपथगामी सियासी संतानों के बीच चल रहा आंतरिक मामला है।

किसी ‘दो टूक नतीजे’ पर पहुंचना जल्दी बाज़ी होगी। लेकिन, इस मोड़ पर  लेखक को 1978 की ऐतिहासिक घटना याद आ रही है। जनता पार्टी के शासन के दौरान समाजवादियों (मधु लिमये, जॉर्ज फर्नाडीज़, मधु दंडवते, सुरेंद्र मोहन आदि) ने  ‘दोहरी सदस्यता‘ का मुद्दा उठाया था। समाजवादी नेताओं का मत था कि जनता पार्टी में जनसंघी नेताओं (अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख आदि)  को चाहिए कि वे संघ से अपना संबंध विच्छेद करलें। वे पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर के नेतृत्व को स्वीकार करें और उनके आदेशों -निर्देशों का पालन करें।

लेकिन, जनसंघी नेताओं ने ऐसा करने से साफ़ मनाह कर दिया और मोरारजी देसाई मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया। परिणामस्वरूप देसाई -सरकार कमज़ोर होती चली गई। अंततः उसका पतन हो गया। जब ऐसा इतिहास रहा है, तब यह मान बैठना कि संघ और मोदी ब्रांड -भाजपा के मध्य ‘निर्णायक तलाक़’ हो गया है, नासमझी होगी। नड्डा -उवाच एक पहेली है, जोकि समय पर खुलेगी। यह भी संभव है, यह उवाच किसी बड़ी रणनीति का अभिन्न हिस्सा हो! 

विगत आम चुनावों में ईवीएम मतदान -प्रक्रिया भी काफी विवादास्पद बनी रही है। मतदान समाप्ति के दिन मतदान प्रतिशत अलग रहा, और चार-पांच  दिनों के बाद चुनाव आयोग द्वारा घोषित आंकड़े भिन्न थे। पांच -छह फ़ीसदी वोट बढ़े हुए थे। चार चरणों की समाप्ति तक 1 करोड़ 7 लाख के वोटों का अंतर पाया गया था। सवाल उठाये गए कि इतने वोटों की वृद्धि कैसे हुई है? इस वृद्धि को एक बड़े घपले के रूप में देखा गया। पूर्व चुनाव मुख्य आयुक्त कुरैशी भी अपने एक लेख में अंतिम मतदान प्रतिशत की घोषणा में असाधारण देरी पर हैरत व्यक्त कर चुके हैं।

देश की आला अदालत तक यह प्रकरण पहुंचा। इस मतदान की गिनती में असाधारण वृद्धि के विभिन्न अर्थ लगाए गए। सोशल मीडिया पर भी तीखी आलोचना हुई। इस प्रकरण को 2022 में गुजरात विधानसभा के चुनाव के दौरान हुई समान घटना के सन्दर्भ में देखा गया। उक्त चुनाव में भी मतदान की घोषणा के बाद असाधारण वृद्धि दर्ज़ हुई थी। उस समय अमित शाह ने नारा दिया था ‘अबकी बार 150 पार’। और भाजपा ने  156 सीटें जीती थीं। सभी को हैरत हुई थी। इससे पहले विगत के किसी भी चुनाव में जनसंघ उर्फ़ भाजपा ने 156 सीटें नहीं जीती थीं। यहां तक कि 2002 की  साम्प्रदायिक हिंसा के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हुए विधानसभा चुनावों में भी भाजपा को 182 में से 127 सीटें मिली थीं। 2017 में तो 115 से घट कर 99 हो गयी थीं। लेकिन, 2022 के चुनावों में ज़बरदस्त उछाल आया और भाजपा 156 की रिकॉर्ड जीत तक पहुँच गयी।भाजपा के मतप्रतिशत में 3 प्रतिशत की वृद्धि आई। उक्त वृद्धि ने कई आशंकाओं को जन्म दिया।

इसी तरह लोकसभा के आमचुनावों में भी 1 करोड़ 7 लाख की वृद्धि ने भी संदेहों को जन्म दे दिया है। चुनाव आयोग कठघरे में खड़ा दिखाई देता है। हैरत तो यह है कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित डिजिटल क्रांति के बावज़ूद मतगणना में असाधारण वृद्धि का कारण क्या हो सकता है? मतपत्र तो हैं नहीं जिन्हें गिनने में गल्तियां और देरी हुआ करती थीं। ईवीएम एक यंत्र है जो बटन दबाते ही चंद सेकेंडों में परिणाम दे देता है। पाठकों को याद होगा, चुनाव बॉन्ड के प्रकरण में भी स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया और चुनाव आयोग ने  विलम्ब का प्रदर्शन किया था। आला अदालत की कड़ी फटकार के बाद बॉन्ड खरीदी के अंतिम आंकड़े सामने लाये जा सके थे। जब देश ऐसे अवांछित अनुभवों से गुजरा हो तब आम चुनाव के मतदान प्रतिशत की घोषणा में हुई विचित्र देरी से शंकाओं को जन्म मिलेगा ही।

दिलचस्प यह भी है कि प्रधानमंत्री ने चौथे सप्ताह से कहना शुरू कर दिया था कि चार जून को विपक्ष ईवीएम को कोसने लगेगा। क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि प्रधानमंत्री भाजपा की 370 सीटों की जीत के प्रति आश्वस्त थे? क्या उन्हें इसके संकेत मिले  थे? क्या मोदी जी ने विपक्ष की सम्भावी भूमिका पर पहले ही सवाल उठा कर वे ईवीएम के चमत्कारिक परिणामों पर उठनेवाली उंगलियों को निष्प्रभावी कर देना चाहते हैं? दिलचस्प जानना यह भी है कि चुनाव आयोग ने 22 मई को बिना नाम लिए प्रधानमंत्री मोदी और राहुल गांधी को चेतावनी दे दी थी कि वे क्रमशः ‘साम्प्रदायिक घृणा’ और ‘संविधान को समाप्त करने का मिथ्या’ भाषण देने से बाज़ आएं। इस संबंध में चुनाव आयोग ने दोनों दलों के अध्यक्षों को पत्र लिखे।

हालांकि, आयोग ने इस क़दम को उठाने में  भी देरी की। चुनाव आयोग अप्रैल माह में ही पार्टियों के दोनों स्टार चुनाव प्रचारकों (मोदी और राहुल) को सख्त चेतावनी दे सकता था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, और पांच चरणों के मतदान व  छठे चरण के मतदान के दो दिन पहले ही चेतावनी दी गई। भाषणों से, विशेषकर साम्प्रदायकिता के घृणास्पद भाषण, जो दुष्प्रभाव पड़ने थे, पहले ही पड़ चुके थे। दुष्प्रभावों से जिन्हें फ़ायदा या नुक्सान होना था, वह हो चुका था। आयोग के इस विलम्बित क़दम को निरापद नहीं माना जा सकता।   

बेहद रोचक सर्वोच्च न्यायालय का फैसला रहा। विभिन्न याचिकाओं की सुनवाई पर आला अदालत ने 24 मई को स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह मतदान प्रक्रिया के बीच चुनाव आयोग को मतदान के अंतिम आंकड़े देने  के लिए कोई अंतरिम निर्देश नहीं दे सकता। चुनाव परिणामों के बाद ही इस प्रकरण पर फैसला दिया जायेगा। मतदान के अंतिम आंकड़ों की घोषणा में हो रही असाधारण विलम्ब के कारण आला अदालत के दरवाज़े खटखटाये गए थे। लेकिन, इस फैसले से निराशा ही हुई है। अप्रत्याशित विलम्ब से लोकतंत्र के साथ कितना न्याय होगा और सत्ताधारी दल को कितना फायदा पहुँचेगा, यह एक खुला सवाल है? अंतिम उम्मीद थी कि आला अदालत इस मुद्दे पर वांछित फैसला देगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संभव है, अदालत में परिणामों को चुनौती देनेवाली चुनाव याचिकाओं का अम्बार लग जाए। पुरानी  कहावत है: विलम्बित फैसला, न्याय नहीं देने के समान है।

जहां तक इस लेखक को याद है, विगत में किसी भी आम चुनावों  में अमर्यादित,अशोभनीय, शर्मनाक; स्त्री अस्मिता पर आक्रमकण, ममता बनर्जी कितने में बिकोगी, मंगलसूत्र बेचना; झूठ का अम्बार, मुसलमानों को घुसपैठिया कहना, पाकिस्तान के नाम का थोक में इस्तेमाल; हिन्दुओं की सम्पत्ति छीन कर मुसलमानों को बांटना, कांग्रेस हिन्दुओं की भैंस चुराएगी, ज्यादा बच्चे पैदा करनेवालों (मुस्लिम) को मंगलसूत्र और भैंस दे देगी; कांग्रेस और समाजवादी पार्टी सत्ता में आई तो ‘आप लोगों के बैंक अकाउंट बंद करवा देगी, बिजली के कनेक्शन कटवा देगी, नलों की टोंटी खोल कर ले जायेगी’,  जैसे अधम कोटि के वाक्यों का प्रयोग नहीं किया गया था। ऐसे निम्नतम स्तर के शब्दों का प्रयोग भाजपा के किसी सामान्य नेता ने नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं किया। 

पहले और दूसरे चरण के बाद तो मोदी, शाह, योगी और अन्य भाजपा नेताओं के चुनावी भाषणों का स्तर दिन-ब- दिन गिरता गया। प्रधानमंत्री सहित दूसरे वरिष्ठ नेता सोच नहीं पा रहे थे कि देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की आबादी 20 करोड़ है, उसके संबंध में कैसे शब्दों का प्रयोग करें;। क्या उन्हें ‘घुसपैठिया’ घोषित कर वे संविधान, भारतीय गणतंत्र और राजधर्म के साथ न्याय कर रहे थे ?; क्या वे आदर्श आचार संहिता का पालन कर रहे थे? उन्हें तो लग रहा था कि अब  विजयश्री के लिए ध्रुवीकरण का ही सिर्फ आसरा रह गया है; ध्रुवीकरण का प्लावन दूसरा ‘पुलवामा’ सिद्ध हो सकता है, क्योंकि 2019 के पुलवामा -आत्मघाती विस्फोट की यथावत पुनरावृति से अनुकूल परिणाम नहीं भी निकल सकते थे।

अयोध्या में रामजन्म भूमि के मंदिर निर्माण से भी देश में मोदी और भाजपा के पक्ष में अपेक्षित ‘समर्थन -सुनामी’ पैदा नहीं हो सकी थी। बनारस में विश्वनाथ मंदिर परिसर का भी कायाकल्प किया गया। मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि विवाद को निद्रा से उठाया गया। और भी कई विवादित धार्मिक मुद्दों को ज़िंदा किया गया। मीर के शब्दों में “उल्टी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया”। आख़िर दवा के तौर पर एकमात्र  विकल्प शेष रहा- ध्रुवीकरण के शस्त्र से समाज का हिन्दू और मुसलमान में अमिट विभाजन किया जाए।  एक हद तक भाजपा सफल भी रही है। उसने कई जगह अपने पैरों तले  से  खिसकती ज़मीन को बचाया भी।

2019 के आम चुनावों के परिणामों के संबंध में आम धारणा रही है कि  मोदी के नेतृत्व में भाजपा की विजय ( 303 सीटें ) का श्रेय पुलवामा त्रासदी और पाकिस्तान के बालाकोट में सर्जीकल स्ट्राइक को जाता है। जम्मू -कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सतपाल मलिक के बयानों ने पुलवामा विस्फोट की सत्यता को ही संदेहास्पद बना दिया था। इस विस्फोट के पीछे पाकिस्तान का कितना हाथ था, सवालों के घेरे में खड़ा हो गया। मोदी-सरकार और भाजपा, मलिक के चौंकानेवाले बयानों का सटीक ज़वाब अभी तक नहीं दे सके हैं। यह ख़ामोशी भी कम रहस्यभरी नहीं है। एक और हैरतअंगेज़ कारनामा मोदी जी का है।

आज़ादी के बाद यह पहला अवसर है जब किसी प्रधानमंत्री ने चुनावी भाषण में अपने ही कुख्यात सरपरस्त अम्बानी+ अडानी पर कांग्रेस को टेम्पो के माध्यम से बोरों में भर कर नोट (कालाधन) भेजने का कथित आरोप लगाया। सभी जानते हैं कि पूंजीवादी लोकतंत्र के चुनावों में पूंजीपति महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह एक सार्विक सत्य है। लेकिन, यह भी सार्विक सत्य है कि प्रधानमंत्री सहित राजनीतिक दलों और पूंजीपतियों के बीच एक अलिखित समझौता रहता है कि धनपतियों के नामों को उजागर नहीं किया जायेगा। लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसा नहीं  किया। देश भर, विशेष रूप से सियासी क्षेत्रों में अम्बानी+अडानी खुलासा पर हैरत हुई। 

इस आश्चर्यजनक खुलासा के तुरंत बाद ही प्रधानमंत्री ने दोनों कॉर्पोरेटपतियों के चैंनलों को थोक के भाव इंटरव्यू देना शुरू कर दिया था। मोदी ने दोनों गुजराती पूंजीपतियों के नामों का खुलासा क्यों किया था, यह भी एक पहेली। चर्चा यह रही है कि कोर्पोरेटपतियों की गुजराती जोड़ी कांग्रेस की ओर झुकने लगी थी। वैसे भी पूंजीपति की कोई  विचारधारा नहीं होती है। उनकी  एकमात्र विचारधारा और धर्म-मज़हब केवल ‘बेलगाम मुनाफ़ा’ कमाना रहती है। दोनों घरानों को लगा होगा कि मोदी जा सकते हैं, इंडिया गठबंधन सत्ता में आ सकता है। इसके अलावा, कांग्रेस नेता राहुल गांधी मोदी के साथ साथ दोनों कार्पोरेटपतियों को भी कठघरे में खड़ा करते आ रहे थे।

मोदी जी  का ‘गेम प्लान’ रहा होगा कि अम्बानी+अडानी की जोड़ी को कांग्रेस के साथ नत्थी करके वे अपने को बेदाग़ घोषित कर मतदाताओं को प्रभावित कर सकते हैं। वे ऐसा करके इतिहास भी बना सकते हैं। लेकिन, यह पासा  उल्टा पड़ गया। कांग्रेस सहित जागरूक वर्ग कहने लगे कि प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे  ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स जैसी एजेंसियों को भेज कर कांग्रेस और अम्बानी+अडानी के यहां छापा डालें। राहुल गांधी ने तो यहां तक पूछ लिया, ”लगता है आपको बोरों में धन लेने का अनुभव है? फटाफट अपनी एजेंसियां भेजें।” इसके बाद प्रधानमंत्री ने किसी भी पूंजीपति का दोबारा नाम नहीं लिया और अपने होठों को सी लिया। अलबत्ता, नफ़रती भाषण ज़रूर जारी रखे।

पिछले दस सालों में विपक्ष ने भाजपा को एक नायाब तमगे से नवाज़ा : भाजपा उर्फ़ ‘वाशिंग मशीन’। कांग्रेस सहित विपक्ष महत्वपूर्ण दागी नेता भाजपा में शामिल होते ही ‘पवित्र और धवल‘ बन गए। पहले उनके यहां सरकारी एजेंसियों के छापे पड़े। फिर उन्होंने केसरिया चोला पहन लिया और उनके विरुद्ध मामलों  को डीप फ्रीज़र में जमा दिया गया: अजित पवार, छगन भुजबल, प्रफुल्ल पटेल, हेमंत सरमा, नवीन जिंदल आदि। पाला बदलने से पहले भाजपा ने  इन नेताओं को अपने निशाने पर रखा हुआ था। उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे। मोदी जी ने स्वयं लगाए। लेकिन, भाजपा में प्रवेश लेते ही आरोप छूमंतर हो गये। नतीज़तन, विपक्षी नेताओं ने भाजपा को ‘वाशिंग मशीन’ के रूप में परिभाषित कर डाला। लेकिन, मोदी के नेतृत्व में भाजपा अपनी फ़ितरत से बाज़ नहीं आई; सोशल मीडिया में भाजपा को ‘शर्मनिरपेक्ष‘ भी कहा गया। लतीफा सुनने को मिला: मोदी+शाह भाजपा  शर्मनिरपेक्ष है, दूसरे ‘धर्मनिरपेक्ष’ हैं; शर्मनिरपेक्ष बनाम धर्मनिरपेक्ष जंग है।

निसंदेह, इस आम चुनावों में क्षत्रपों (स्टालिन, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव आदि) की देशव्यापी शक्ति उभरी है। अब कोई भी राष्ट्रीय दल इस शक्ति की उपेक्षा नहीं कर सकेगा। वज़ह भी है। क्षेत्रीय स्तर का पूंजीवाद और नवोदित मध्यवर्ग की महत्वाकांक्षाएं बलवती होने लगी हैं। राष्ट्रीय राजनैतिक नेतृत्व और पूंजीपति या कोर्पोरेटपति वर्ग इस उभरती शक्ति को आसानी से दबोच नहीं सकता। इस शक्ति को राष्ट्रीय राजनैतिक सत्ता और आर्थिक सत्ता में बराबर की हिस्सेदारी देनी ही पड़ेगी। चुनाव प्रचार से स्पष्ट है।

निसंदेह, चुनावी फ़लक पर प्रधानमन्त्री  मोदी और राहुल गांधी समानांतर छाये रहे। राहुल गांधी का नया सार्वजनिक अवतार सामने आया है, जोकि गंभीर व चिंतनशील है। जहां उनकी भाषण अदायगी विशिष्ट किस्म की रही, वहीं उन्होंने जनता के साथ स्वयं को ‘कनेक्ट’ करने की सफल शैली भी विकसित की है। इस शैली में, उन्होंने जनता से सीधे संवाद, चलते- फिरते जुमले, आमफ़हम शब्द और आवाज़ में उतार-चढ़ाव भी सीख लिया है। राहुल के कुछ शब्द ‘फटाफट- फटाफट -खटाखट -खटाखट’ मोदी स्वयं दोहराने के लिए मज़बूर दिखाई दिए।

राहुल ने तो मोदी जी को खुले मंच पर ‘बहस’  का निमंत्रण भी दे डाला था। अमेरिकी चुनावों  में राष्ट्रपति पद के दो मुख्य दावेदारों के बीच मंच पर खुली बहस का आयोजन किया जाता है। जनता, दोनों प्रतिद्वंद्वियों को मार्क्स देती है। चुनाव पर उसका असर पड़ता है। लेकिन, मोदी जी ने राहुल की चुनौती को स्वीकार नहीं किया। एक प्रकार से राहुल ने बाज़ी मार ली। पप्पू की छवि तो तभी काफूर हो गयी थी जब उन्होंने दो दो यात्रायें निकाली थीं। भाजपा का ‘पप्पू प्रोजेक्ट’ फ़ुस्स हो गया!

विगत आम चुनावों में एक और दिलचस्प आयाम भी जुड़ा है। एक समय था जब भारत के आम चुनाव ‘ बूथ लूट’ के लिए कुख्यात थे। लठैत लोग मतपेटियां लूट कर ले जाया करते थे। फिर से प्रभावित बूथ के चुनाव कराने पड़ते थे। लेकिन, बूथ डाकाजनी के स्थान पर इस दफा एक नए प्रकार की डाकाजनी ईज़ाद हुई। भाजपा ने इसका सफल प्रयोग गुजरात के सूरत शहर में करके दिखला दिया। भाजपा के प्रमुख प्रतिद्वंदी कांग्रेस प्रत्याशी के दो प्रस्तावकों ने दावा किया कि नामांकन पात्र पर उनके हस्ताक्षर नकली हैं। इसके बाद दोनों फरार हो गए। मुख्य प्रत्याशी ने भी अपना नाम वापस ले लिया। इसके साथ ही निर्दलीय व अन्य दलों के उम्मीदवारों ने भी कांग्रेस का अनुसरण किया। इसके बाद सभी रफूचक्कर हो गए। भाजपा के प्रत्याशी को निर्विरोध विजयी घोषित कर दिया गया।

इसी फॉर्मूले को इंदौर में भी आज़माने की कोशिश की गयी थी। कांग्रेस का प्रत्याशी दबाव में आ गया और भाजपा में शामिल हो गया। लेकिन, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर के वामपंथी उम्मीदवार और उनके प्रस्तावकों ने भाजपा के सामने  झुकने से बिल्कुल इंकार कर दिया। अन्य उम्मीदवारों ने भी अपने नाम वापस नहीं लिए। आखिरकार, मतदान हुआ। सूरत और इंदौर की घटनाओं से पहले खजुराहो में भी इसी नाटक का मंचन किया गया था। प्रमुख समाजवादी प्रत्याशी पर दबाव डाला गया। इसके बाद भाजपा के लिए मैदान साफ़ हो गया। प्रत्याशियों पर डाका डालने की शुरुआत चंडीगढ़ के मेयर चुनाव से हुई थी। यदि सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप नहीं करता, धांधली नहीं पकड़ी जाती तो भाजपा अपने व्यक्ति को मेयर बनवाने में सफल हो जाती। लेकिन, कोर्ट ने सभी वीडियो और दस्तावेज़ों को देखने के बाद कह दिया, “इस तरह से हम लोकतंत्र की हत्या नहीं होने देंगे।” इसे मोदी ब्रांड भाजपा का चुनावी पुलवामा+ बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। पिछले आम चुनावों में ऐसा नहीं हुआ था।

इस आम चुनावों के दौरान एक और रिकॉर्ड स्थापित हुआ। पश्चिम बंगाल के कलकत्ता हाई कोर्ट के न्यायाधीश चित्तरंजन दास ने 20 मई को अपने विदाई समारोह को सम्बोधित करते हुए अपनी मूल वैचारिक पहचान को उजागर कर दिया। सेवानिवृति के तुरंत बाद उन्होंने बताया कि वे आरम्भ से ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थक रहे हैं। जज बनने से पहले, वे अपने बचपन से युवा अवस्था तक संघ के कार्यक्रम में जाते रहे हैं। उन्होंने कहा, ”मैं स्वीकार करता हूं कि मैं संघ का सदस्य था, और आज भी हूं।” न्यायाधीश दास ने यह भी कह डाला कि यदि संघ चाहेगा तो वे फिर से आज भी उसे अपनी सेवाएं देने के लिए तैयार हैं।

यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं होगा कि इसी कोर्ट के एक भूतपूर्व न्यायाधीश अभिजीत गंगोपाध्याय चुनाव शुरू होने से पहले अपने पद से इस्तीफ़ा दे कर भाजपा में शामिल हो गए थे। पार्टी ने उन्हें टिकिट देकर चुनाव भी लड़वाया। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने चुनाव भाषण में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ निहायत अपशब्दों का प्रयोग किया था। चुनाव आयोग ने उन पर 24 घंटों के लिए प्रचार करने पर रोक लगा दी थी। पूर्व न्यायाधीश होने के बावजूद उन्होंने आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन किया और महिला मुख्यमंत्री के विरुद्ध घटिया टिप्पणी की। इन दोनों घटनाओं से क्या समझा जाए? लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं में कैसे कैसे व्यक्ति कहां कहां तक पहुंच रहे हैं? क्या मोदी सहित ऐसे व्यक्तियों के हाथों में लोकतंत्र और संविधान सुरक्षित है?

अब मोदी जी स्वयं को जैविक नहीं, दैविक मानते हैं। दूसरे शब्दों में, वे इक्कीसवीं सदी में ईश्वर के दूत या पैगंबर हैं, मैसेंजर ऑफ़ गॉड है। जब किसी प्रधानमंत्री में ऐसे भाव पैदा हो जाते हैं तो उसका मानसिक संतुलन कितना संतुलित होगा, यह विचारणीय ही नहीं, राष्ट्रीय चिंता का विषय है। भारत एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र है। प्रधानमंत्री का पद जितना शक्तिशाली होता है, उतना ही संवेदनशील भी। कई प्रकार के निर्णय लेने होते हैं। यदि मस्तिष्क असंतुलित  है, तो निर्णय भी संतुलित नहीं होंगे। जब प्रधानमंत्री में देवत्व के भाव पैदा हो जाएं, तब उनका लौकिक संसार की संवेदनाओं से क्या वास्ता रह जाता है। वे कैसा ही ज़ोख़िमभरा फैसला ले सकते हैं। मोदी जी भी अपवाद नहीं हैं।

इस लेखक की दृष्टि में, किसी की भी सरकार सत्ता में आये,उसे देश की आधारभूत समस्याओं (गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, बेरोज़गारी, स्वास्थ, घरविहीनता, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, करप्शन, ब्लैक मनी, बढ़ती विषमता, निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की खरीद -फ़रोख़्त, प्रदेश सरकारों की अकाल मृत्यु, मीडिया स्वतंत्रता, निरंकुश निजीकरण व विनिवेशीकरण, राजनीति का अपराधीकरण आदि) के साथ दो-चार होना ही पड़ेगा। पिछले दस सालों में फैलाई गई अवैज्ञानिकता, पाठ्यक्रमों और इतिहास के साथ की गई धींगामस्ती का अंत करना ही होगा।

मोदी+शाह हुकूमत ने 80 करोड़ लोगों को सरकारी ख़ैरात पर जीने के लिए मज़बूर कर दिया है। क्या किसी राष्ट्र के लिए यह गर्व का विषय हो सकता है? नई सरकार को अपनी नीतियों और प्राथमिकताओं को जनोन्मुखी बनाना ही होगा; बुलेट ट्रैन, वन्दे भारत, नमो भारत जैसी ट्रेनों से समाज के किस वर्ग को फ़ायदा पहुंच रहा है; क्या आम जनता महंगी ट्रेनों में यात्रा कर पा  रही हैं; नमो भारत करीब करीब खाली चल रही हैं।

आलेख को समाप्त करते हुए यह लेखक भी भयक्रांत हैं। यदि मोदी+शाह ब्रांड भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो उस स्थिति में क्या  सत्ता का शांतिपूर्वक हस्तांतरण हो जाएगा? इस स्थल पर न जाने इस लेखक को मोदी जी के मित्र व अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के अलोकतांत्रिक कारनामें क्यों याद आ रहे हैं? उन्होंने 2020 में डेमोक्रैट के बाइडेन (वर्तमान राष्ट्रपति) से चुनाव हारने के बाद भी अपनी हार को स्वीकार नहीं किया था। उनके समर्थकों ने कैपिटल हिल पर स्थित अमेरिकी संसद भवन पर हिंसक धावा बोल दिया था। दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी थी। यदि मोदी+शाह जोड़ी सत्ता में पुनर्स्थापित हो जाती है तो क्या लोकतंत्र और संविधान स्वस्थ व जीवंत रह सकेंगे?

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