डॉ सुनीलम
नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर का अनशन आज आठवें दिन धार जिलाधीश की उपस्थिति में, कमिश्नर के आश्वासन के बाद समाप्त हो गया। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारिख ने चिखल्दा (धार) पहुंचकर अधिकारियों से बातचीत की तथा मेधा पाटकर जी का अनशन तुड़वाया। अनशन शुरू होने के बाद से देश के विभिन्न राज्यों और शहरों में आंदोलनकारियों द्वारा एकजुटता प्रदर्शित करते हुए सतत कार्यक्रम किए जा रहे थे।सवाल यह है कि 39 वर्षों के संघर्ष के बाद भी मेधा पाटकर को अनशन करने की जरूरत क्यों पड़ी?
सर्वविदित है कि सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्ट निर्देश है कि किसी भी प्रोजेक्ट के शुरू होने के 6 महीने पहले विस्थापितों का संपूर्ण पुनर्वास कर दिया जाना चाहिए। लेकिन नर्मदा घाटी में 39 वर्षों में भी संपूर्ण पुनर्वास नहीं हो सका, इसका दोषी कौन है?
देश में इस समय जो भूमि अधिग्रहण कानून लागू है उसमें विस्थापन को अंतिम उपाय बताया गया है। भूमि अधिग्रहण के लिए प्रभावितों से सहमति लेना और सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव के अध्ययन का उल्लेख किया गया है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने न केवल सरदार सरोवर बांध में डुबोए गए 245 गांव के विस्थापितों के लिए संघर्ष किया बल्कि पूरे देश भर में अंग्रेजों के समय के 1894 के भूमि अधिग्रहण के कानून बदलवाने में भी अहम भूमिका का निर्वहन किया है। आंदोलन के चलते 50 हजार से अधिक विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन मिली, 60 लाख रुपए तक का मुआवजा मिला तथा प्लॉट के साथ 5 लाख 80 हजार रुपया भवन निर्माण के लिए मिला। यह सब पाने के लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं की तीन पीढ़ियां संघर्ष करती रहीं।
नर्मदा बचाओ आंदोलन ने नर्मदा ट्रिब्यूनल, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कानूनी लड़ाई लड़कर तमाम फैसले भी कराए। हजारों करोड़ के भ्रष्टाचार को पकड़ा तथा भ्रष्टाचारियों पर कार्यवाही भी कराई।
यह सर्वाधिक है कि सबसे पहले नर्मदा घाटी के तथाकथित विकास से जुड़ी परियोजना को विश्व बैंक ने वित्तीय मदद देने में रुचि दिखाई थी लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन ने जब विकास के नाम पर होने वाले विनाश के तथ्य आंदोलन के साथ पेश किए तब विश्व बैंक को भी पीछे हटना पड़ा। जब यह योजना शुरू की गई थी तब 9 हजार करोड़ रुपए लागत बताई गई थी, जो अब बढ़कर 90 हजार करोड़ तक पहुंच गई है। इस राशि से देश में विकेंद्रीकृत तरीके से सैकड़ों सिंचाई योजनाएं बनाकर किसानों को सिंचाई का पानी, पीने का पानी और बिजली उपलब्ध कराई जा सकती थी।
आज अमरीका और यूरोप सहित पूरी दुनिया में तमाम बड़े बांध तोड़े जा रहे है। बड़े बांधों से होने वाले नुकसान को लेकर दुनिया भर के पर्यावरणविदों में आम सहमति बनी है लेकिन भारत की केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारें अमेरिका और यूरोप के पांचवें और छठवें दशक की विकास की समझ की पिछलग्गू बनी हुई है। असल में बड़े बांध का मतलब है, बड़ा कमीशन। यह प्रश्न मूलतः विकास की अवधारणा के साथ भी जुड़ा हुआ है, जिसे मेधा पाटकर और नर्मदा बचाओ आंदोलन ने जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के साथ मिलकर चुनौती देने का काम किया है।
मेधा पाटकर के अनशन पर बैठने का मुख्य कारण यह था कि फिर बरसात आने वाली है और हर बार 17 सितंबर को प्रधानमंत्री के जन्मदिन का जश्न मनाने के लिए घाटी के हजारों ग्रामीणों को डूबो दिया जाता है वैसा ही इस बार भी होगा।
घाटी के ऐसे 16 हजार परिवार जिन्हें डूब प्रभावित नहीं माना जा रहा है, या यह कहा जाए कि डूब प्रभावितों की सूची से निकाल दिया गया था, जो डूब की जद में आ गए थे और जिन्हें समुचित मुआवज़ा नहीं दिया गया। 2024 की बरसात में और प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर फिर डूब का खतरा है, इसलिए इन 16 हजार परिवारों के अंधकारमय भविष्य को देखते हुए अनशन का निर्णय लिया गया। यदि जल स्तर 122 मीटर तक रोका जाए, तब इस तरह की डूब से बचा जा सकता है। यही मांग मेधा पाटकर जी कर रही हैं। अभी भी 600 से अधिक परिवार कई वर्षों से टीन शेड में रहने को मजबूर हैं। उन्हें प्लॉट देने, मकान निर्माण के लिए पैसा देने के लिए सरकार तैयार नहीं है।
अनशन के पांचवें दिन जब मैं नर्मदा बचाओ आंदोलन के प्रतिनिधिमंडल के साथ धार कलेक्टर से मिला था तब उन्होंने टीन शेड में रहने वालों को प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत मकान दिलाने की बात कही थी।
प्रश्न यह है कि जब सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार टीन शेड में रह रहे विस्थापित 5 लाख 80 हजार रुपए लेने की पात्रता रखते हैं तब इन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत डेढ़ लाख रुपये उपलब्ध कराना क्या न्यायोचित होगा? असल में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद अफसरों की उपेक्षा का शिकार विस्थापित हुए हैं। भारतीय जनता पार्टी, घाटी के विस्थापितों को भेदभावपूर्ण नजर से देखती है।
यह सर्वविदित है कि अब तक नरेंद्र मोदी ने गुजरात की राजनीति नर्मदा से गुजरात को पानी लाकर देने के मुद्दे पर की है। जबकि सच यह है कि अधिकतम पानी कारखानेदारों को उपलब्ध कराया गया है। नहरों के अभाव में गुजरात के किसानों तक पानी नहीं पहुंचा है। सर्वोच्च न्यायालय ने जल शक्ति मंत्रालय को गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों के साथ मिलकर पुनर्वास की सही स्थिति जानने और जलस्तर का सही निर्धारण करने के लिए मुख्यमंत्रियों की कमेटी बनाई थी लेकिन उसने अपना काम नहीं किया।
सबसे बड़ी बात यह है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय और ट्रिब्यूनल के निर्देशों का पालन नहीं किया जाता तब विस्थापित कहां जाए? संघर्ष नहीं करें तो क्या करें ?
होना तो यह था कि सर्वोच्च न्यायालय मेधा जी के अनशन की घोषणा के बाद स्वत: संज्ञान लेता तथा वास्तव में निर्देशों का पालन हो रहा है कि नहीं यह सुनिश्चित करने के लिए कोई निगरानी समिति गठित करता लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अनशन शुरू होने के बाद स्थानीय प्रशासन तो हरकत में आया लेकिन उसका मकसद गांव-गांव में जन समस्या निवारण शिविर आयोजित कर अनशन स्थल पर विस्थापितों को जाने से रोकने का था अन्यथा अनशन के पहले ही दिन उच्च अधिकारी अपने पूरे अमले के साथ जाकर नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा उठाए गए मुद्दों का निराकरण कर सकते थे।
सबसे सकारात्मक रवैया धार जिलाधीश का था। इंदौर कमिश्नर, एनसीए और एनवीडीए के अधिकारी भी यह मान रहे थे कि नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा उठाए गए मुद्दों की जांच और निराकरण आवश्यक है परंतु अनशन स्थल पर जाने को तैयार नहीं थे। भोपाल में राज्यपाल और मुख्यमंत्री का रवैया अलोकतांत्रिक, संवेदनहीन और शर्मनाक रहा।
संयुक्त किसान मोर्चा (नर्मदा बचाओ आंदोलन भी संकिमो का एक सदस्य संगठन है) के नेताओं से राज्यपाल और मुख्यमंत्री ने मिलने से इनकार कर दिया। अपनी ही जनता से संवाद नहीं करने की मानसिकता 17 वर्षों से भाजपा दिखाती रही है, जिसमें परिवर्तन लाने की जरूरत है। यह परिवर्तन भाजपा स्वयं नहीं लाएगी। यह परिवर्तन तभी संभव है, जब मध्य प्रदेश में व्यापक जन आंदोलन हो।
फिलहाल प्रशासनिक अधिकारियों के आश्वासन के बाद भले ही अनशन समाप्त हो गया हो लेकिन सभी विस्थापितों का संपूर्ण पुनर्वास होने तक नर्मदा बचाओ आंदोलन को संघर्ष जारी रखना होगा।
(डॉ सुनीलम पूर्व विधायक एवं किसान संघर्ष समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)