अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

स्कॉटलैंड का सफर : ताकि सनद रहे

Share

रामशरण जोशी

(स्कॉटलैंड यात्रा पर लिखते समय मैं बरबस लंदन यात्रा का पुनरावलोकन करने की उत्सुकता से स्वयं को घिरा पा  रहा हूं। पिछले वर्ष अगस्त में जनचौक पर ही लिखा था कि ब्रिटेन के आगामी आम चुनावों में सत्ता परिवर्तन होगा, वर्तमान शासक दल ‘कंज़र्वेटिव’ चुनाव हारेगा और लेबर पार्टी सत्तारूढ़ होगी। इसी वर्ष फरवरी में पुनः इस विश्वास को रेखांकित किया था, “ऋषि सुनक की तुलना में लेबर पार्टी के नेता कैर रॉडनी स्टामैर अधिक प्रभावशाली हैं। रॉडनी का ब्रिटिश संसद के निचले सदन यानि हाउस कॉमन में प्रतिपक्ष के नेता के रूप में भी अधिक प्रभावशाली माना जाता है। उनके सामने सुनक कुछ बोदे दिखलाए पड़ते हैं। इस समय मैं इतना ही कह सकता हूं कि अगले आम चुनावों में प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की वापसी आसान नहीं रहेगी। लेबर पार्टी के अवसर अधिक माने जा रहे हैं।”)

संयोग है कि चुनावों के परिणाम बतलाते हैं कि लेबर पार्टी ने 400 पार करके के ऐतिहासिक जीत ब्रिटेन के इतिहास में दर्ज़ की है और कंज़र्वेटिव पार्टी को बेहद निराशाजनक शिकस्त मिली है। फिलहाल इतना कहा जा सकता है कि चरम दक्षिणपंथी हवा का मार्ग पहले की तरह सुगम नहीं रहेगा। इसकी रफ़्तार में ‘ब्रेक’ तो लगा है।  लम्बे अर्से के बाद सत्ता में लौटी लेबर पार्टी को काफ़ी कुछ करके दिखलाना पड़ेगा। ब्रिटेनवासियों को इस पार्टी से बड़ी उम्मीदें हैं। राज्य के पुराने जन कल्याणकारी चरित्र की तरफ लौटना होगा। अब इजराइल का अंधा समर्थन भी नहीं किया जा सकेगा। याद रहे, पूर्व प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की ढुलमुल  नीति के कारण उनकी पार्टी को इसकी भारी क़ीमत भी चुकानी पड़ी है। इसलिए, लेबर पार्टी कोई जोख़िम मोल नहीं लेगी।पश्चिम के कई  देशों में चल रही दक्षिणपंथी लूओं कुछ तो लगाम लगेगा। ऐसा मेरा मत है।)

“ ऊंची धमक के साथ

उठ रहे हैं प्रकृति के स्वर,

और

आसमानों से अनेक सन्देश आ रहे हैं,

हम में कुछ तो है,

जिसकी मृत्यु

कभी नहीं होगी। (रोबर्ट बर्न्स, स्कॉलैंड के विख्यात कवि)

जी, विगत अगस्त का महीना था। शायद तारीख ग्यारह अगस्त रही होगी। उस दिन सुबह फ्लीट टाउन से चलते समय मौसम कुछ बदला बदला दिखाई दे रहा था। बादलों के टुकड़े आसमान में फैले हुए थे। लो, कुछ बूंदाबांदी भी शुरू हो गई। खैर, जैसे-तैसे हम सभी ने वॉटरलू स्टेशन के लिए दक्षिण रेलवे की  सबर्ब ट्रैन पकड़ ली। साथ में बेटी मनस्विता का परिवार था। कुल जमा हम छह प्राणियों का कारवां स्कॉटलैंड के सफ़र पर निकला हुआ था। लंदन से करीब साढ़े चार घंटे की भौगोलिक दूरी पर।

आधा घंटे के बाद लंदन के प्रसिद्ध वॉटरलू स्टेशन पर उतरे, जहां से हमें उत्तर रेलवे की भूमिगत ट्रेनों को बदल कर किंग क्रॉस स्टेशन पहुंचना था। लंदन की ट्यूब ट्रेनें काफी नीचे हैं। एक दफ़ा तो एस्केलेटर से उतरते हुए गिरते गिरते बचा। ये विद्युत चलित सीढ़ियां बिल्कुल सीधी नीची और ऊंची जाती हैं। अभ्यास न रहे, ज़रा-सी  चूक हो जाए, कुछ भी घट सकता है। लेकिन, रेलकर्मी सतर्क रहते हैं और क्लोज टीवी से यात्रियों पर निगरानी रखते हैं।

नीचे जाते समय संतुलन तनिक बिगड़ा ही था कि लाउडस्पीकर चीख उठा। लोग मेरी तरफ देखने लगे। क्षण भर में खुद को सम्हाला, वरना स्कॉटलैंड के प्राकृतिक स्वर्ग से हम सभी वंचित हो जाते। जो अभ्यस्त हैं, उनका क्या कहना! चंद सैकेंड की सीधी तनी यात्रा में भी वे आराम के साथ किताबें पढ़ते हुए नीचे-ऊपर जाते-आते रहते हैं। मोबाइल का इयरफोन कानों में अलग से ठुंसा रहता है। विद्युत सीढ़ियों पर प्रेम-व्यापार तो जीवन-शैली का हिस्सा है ही। इसे देखने के लिए टिकिट लेना नहीं पड़ता है।

आधा घंटे की यात्रा के बाद सही सलामत हम सभी  किंग बी क्रॉस स्टेशन पहुंच गए। इस स्टेशन से हम लोगों को स्कॉटलैंड की राजधानी एडिनबरा  के लिए ट्रैन को पकड़ना था। ट्रेन छूटने ही वाली थी। चंद सैकंड पहले ही प्रथम श्रेणी के कोच में सवार हो सके। दामाद कार्तिकेयन ने पहले से ही हम सभी के लिए सीटें रिज़र्व करा रखी थीं। ट्रेन थी- लंदन नार्थ ईस्टर्न रेलवे (LNER) । ट्रेन का सफर करीब साढ़े चार घंटे का था। बैठते ही ट्रेन स्टार्ट हो गई। इस यात्रा से हम सभी रोमांचित थे। लम्बा विभिन्न तस्वीरों से सुसज्जित कोच था। WIFI की सुविधा से लैस था। देखता हूं, 98 प्रतिशत यात्री श्वेत हैं, शेष एशियाई हैं। मेरे सामने बैठे दोनों यात्री श्वेत दम्पति हैं, पकी आयु के हैं।

ट्रेन रफ़्तार पकड़ती है और लंदन क्षेत्र को पीछे छोड़ते हुए स्कॉटलैंड की ओर दौड़ी जा रही है; 125 मील प्रति घंटा की गति है। इंग्लैंड के लोग आज़ भी किलोमीटर के स्थान पर ‘माइल्स’ कहना पसंद करते हैं, इसी तरह लीटर की जगह ‘गैलन’ शब्द लोकप्रिय है। ट्रेन झटका- दचका मुक्त है। लोह पटरियों पर चिपकती हुई जा रही है। भारतीय ट्रेनों में ऐसा अनुभव दुर्लभ है। अलबत्ता, यूरोप के दूसरे देशों में भी यात्रायें की हैं। अनुभव सुखद रहे। लेकिन, इस ट्रेन -यात्रा की अनुभूति कुछ अलग ही है। 

पर्यटकों की यह ट्रेन पहली पसंद है। स्कॉटलैंड की राजधानी एडिनबरा में इनदिनों चारों तरफ उत्सवों या फेस्टिवलों की धूम है। इन उत्सवों में शामिल होने के लिए इंग्लैंड सहित दूर दूर से सैलानी स्कॉटलैंड के विभिन्न शहरों में पहुंचते हैं। आकर्षण का मुख्य केंद्र निश्चित ही राजधानी एडिनबरा रहता है। हमारा डिब्बा भी ऐसे ही सैलानियों से भरा हुआ है। स्वादिष्ट कॉन्टिनेंटल ब्रेकफास्ट शुरू हो जाता है। तरल पेय व्यंजन अलग से है। ट्रेन विशाल खेतों के बीच से गुज़रती जा रही है। चारों ओर हरियाली का राज है; ऐसे दृश्यों के लिए कब से तरस रही थी आंखें! अब तक तो बड़ी ईमारतें, महलों, बसों, कारों, पुलों, रेलवे स्टेशनों, अंतहीन सनसनाती लम्बी-चौड़ी सड़कों और हवाई अड्डों -विमानों के दृश्यों से लदे हुए थे नेत्र। अब इन नेत्रों की पलकों का तनाव कम हुआ है। ट्रेन की दोनों तरफ रमणीय हरियाली सहयात्री बनी हुई है, और संग संग चल रहे हैं छोटे-बड़े पर्वतों का कारवां।

पेट-पूजा के बाद टेबल के इस पार और उस पार बैठे सत्तर पार चारों युगल के चेहरों पर चमक खिलने लगी। वार्तालाप का सिलसिला शुरू हुआ। सामने बैठे दोनों इंग्लिश दंपति हैं और वार्षिक उत्सव में शामिल होने जा रहे हैं। हर-दूसरे-तीसरे वर्ष एडिनबरा आते-जाते रहते हैं। कुछ समीपी रिश्तेदारियां भी हैं। वैसे, दोनों के लिए पर्यटन जीने की एक खूबसूरत अदा है। दोनों रिटायर्ड प्राणी हैं। पेंशन का आनंद ले रहे हैं। पति टेक्निकल पृष्ठभूमि के हैं पत्नी अकादमिक क्षेत्र से है। दोनों की काया भाषा उनके संतोष व संतुष्टि की साक्षी बनी हुई है।

बातों-बातों में उन्होंने अंदाज़ लगा लिया कि हम दोनों भारतीय हैं। हमारी ‘हां’ के बाद वे होले होले खुलने लगे। मालूम हुआ कि किसी कंपनी में पतिदेव हैदराबाद रह चुके हैं, साथ में कुछ समय के लिए पत्नी भी रहीं थीं। दोनों ही टूटी-फूटी हिन्दुस्तानी से परिचित हैं। इतना याद है, जब वे दोनों हैदराबाद में थे तब आंध्र प्रदेश का विभाजन नहीं हुआ था और तेलंगाना नहीं बना था। कांग्रेस का शासन था। इसका अर्थ हुआ कि वे दो एक दशक पहले वहां थे।

जब चार प्राणियों का चेतनाशील झुण्ड एक साथ बैठा  हो तब वार्ता में राजनीति घुसपैठ न करे, यह कैसे मुमकिन है! वज़ह भी है, हम चारों ही लोकतंत्र के नागरिक हैं। लोकतंत्र के उतार-चढ़ाव के साक्षी बने हुए हैं। दोनों ने बड़ी संयत भाषा में संकोच के साथ भारत के लोकतंत्र की दशा पर चिंता मिश्रित खिन्नता ज़ाहिर की। वे गांधी युग और नेहरू शासन के कायल लगे और मोदी -शासन के प्रति उदार नहीं थे। वे गुजरात में 2002 के दंगों के समाचार भूले नहीं थे। उसी दृष्टि से प्रधानमंत्री के रूप में मोदी को मुख्यमंत्री मोदी का एक्सटेंशन देख रहे थे। फिरभी उन्हें उम्मीद थी कि भारत में लोकतंत्र बना रहेगा।

लीजिए, बातों ही बातों में हमारी ट्रेन इंग्लैंड की सरहदों को पीछे छोड़ते हुए स्कॉटलैंड की सरहद में प्रवेश कर गई। लैंडस्केप काफी बदल चुका था। स्कॉटलैंड के अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य का आंगन फैला हुआ था। किसी एक दृश्य पर आंखें ठहर ही नहीं रही थीं। नयनाभिराम दृश्यों के आगोश में हम खोते जा रहे थे। इन्हें देख कर अपने देश के  उत्तराखंड और उत्तरपूर्व के दृश्य नयनों में ज़रूर उभर आये। लेकिन, स्कॉटलैंड की बात निराली है। किसी ने बताया कि चेविओट पहाड़ियां कतारबद्ध खड़ी हुई हैं। लोगों का कहना है कि यहीं प्राचीन ज्वालामुखी चट्टानों के ढेर भी हैं।

अंग्रेजी साहित्य में  एमए करते समय स्कॉटलैंड के लेखक-कवियों के माध्यम से इसकी सुंदरता से परिचय ज़रूर हुआ था। कल्पना नहीं की थी कि कभी इसका जीवंत साक्षात्कार भी होगा। इस स्थल पर मुझे कवि -निबंधकार -कथाकार रोबर्ट लुइस स्टीवेंसन याद आ रहे हैं। वे कहते  हैं, ”यहां कोई भी भूमि विदेश नहीं है। यहां केवल यात्री है जो विदेशी है।” कवि का यह कथन भूमि के माध्यम से प्राकृतिक एकात्मकता का आभास कराता है, और यह भी दिखलाता है कि यात्री के रूप में मनुष्य ने भूमि को सरहदों में बांटा है। इसलिए उनकी यह अभिव्यक्ति किसी और कथन में भी व्यक्त होती है।

स्टीवेंसन कहते हैं, “आप प्रतिदिन कैसी फसल काटते हैं, इससे अपना आकलन न करें, बल्कि आपने कैसे बीज बोकर पौधा उगाया है, उससे करें।” यह सार्विक सत्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि 19 वीं सदीके स्कॉटलैंड में था। इस कथन की दूरबीन से हम 21वीं सदी के अपने देश के लोकतंत्र को भी देख सकते हैं।

लीजिए, हमारी ट्रेन एडिनबरा पहुंच चुकी है। बातों का सिलसिला ख़त्म। स्टेशन का नाम है ‘एडिनबरा ववरले’। यह देश का सबसे बड़ा स्टेशन है और 1866 से अगस्त 2024 तक घरेलू और विदेशी ट्रेनों की विश्राम व प्रस्थान स्थली बना हुआ है। बेहद सुन्दर और विशाल है। यह स्टेशन पुराना और आधुनिक एडिनबरा के बीच सेतु है। स्टेशन से स्कॉटलैंड के महत्वपूर्ण नगरों के लिए ट्रेनें उपलब्ध हैं। ववरले स्टेशन को स्कॉटलैंड की विरासत और आधुनिक उपलब्धियों का प्रतीक माना जाता है। देख रहा हूं, भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे देशों के पर्यटक और विद्यार्थी स्टेशन पर  दिखाई दे रहे हैं। साड़ियों में भी भारतीय महिलाएं पहुंची हुई हैं, सलवार -कमीज़ में तो हैं ही। लगता है, फेस्टि वल का रंग विदेशी सैलानियों और स्थानीय लोगों पर ज़मकर चढ़ा हुआ है।

करीब पौन घंटे की प्रतीक्षा के बाद हम टैक्सी तक पहुंच पाते हैं। इस टैक्सी को लंदन से बुक कर लिया गया था। हम लोग जितने दिन एडिनबरा में रहेंगे, यह किराये की बड़ी कार हमारे साथ रहेगी। लेकिन, इसे चलाने की ज़िम्मेदारी हमारी होगी; मनस्विता और कार्तिकेयन के हाथों में स्टेयरिंग  रहेगा और शेष पीछे की सीटों के यात्री रहेंगे।

रेंटल कार एडिनबरा की सड़कों से गुज़र रही है। सड़कें पुरानी ईमारतों की गलियों से जा रही है। गलियों और भवनों को देख कर लगता ही नहीं है कि स्कॉटलैंड 21वीं सदी में पहुंच चुका है। महसूस यही हो रहा है कि यह नगर बीती सदियों की  वास्तुकला में ही रमा हुआ है। लेकिन, सच्चाई तो यह है कि श्वेत जाती अपने इतिहास, अपनी धरोहर की देख-रेख  शिशु की भांति करती है। वैसे इन भवनों को देख कर मैं कुछ क्षणों के लिए नीमराना के दुर्ग, बीकानेर और जैसलमेर की हवेलियों में पहुंच गया। आज भी उन हवेलियों में विरासत प्राणवान प्रतीत होती हैं। लेकिन, अब यह विरासत या हेरिटेज पर्यटन स्थल बन चुके हैं, होटलों व रिसोर्ट में तब्दील होते जा रहे हैं।

जयपुर ज़िले के भूतपूर्व जागीरदारों ने अपने ठिकानों को रिसोर्ट की भेंट चढ़ा ही दिया है। हो सकता है एडिनबरा में भी ऐसा ही हो रहा हो! ख़ैर, इन मध्ययुगीन वास्तुशिल्प को पीछे छोड़ते हुए आधुनिक बस्तियों के मार्ग से जा रहे हैं। मार्ग की दोनों तरफ खड़े बेहद ख़ूबसूरत विला अपनी ओर हमें आकृष्ट कर रहे हैं। बरबस सभी की आंखें  विलाओं पर फिसलती जाती हैं। इसके बाद हमारी कार हरियाली से सजे विशाल मैदानों के बीच से गुजरतीं जाती है। करीब पैंतालीस मिनट की दूरी को तय करते हुए एक ग्रामीण क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। पतली सी सड़क है, लेकिन दोनों तरफ़ गंवई छाप के मकान और चर्च हैं। एक-दो छोटे- मोटे  रेस्तरां भी हैं। कहीं भी तड़क-भड़क नहीं है। बाशिंदों पर भी देहातीपन झलक रहा है। छोटी-छोटी कारें हैं, लेकिन खेतों में ट्रेक्टर और हार्वेस्टर ज़रूर दिखाई दे रहे हैं।

और अंततः हम अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच ही गए हैं। हमारी रुकने की व्यवस्था  लाउडर गांव के एयरहाउसेस के लामोंट कॉटेज में की गई है। लामोंट में तीन बैडरूम, एक लिविंग रूम और बालकनी हैं। हॉट-वाटर के टब अलग से हैं। और हां, एक कोने में किचन है, जोकि आधुनिक वस्तुओं से सुसज्जित है। इसके साथ ही एक कोने में कैबिनेट-लाइब्रेरी भी है। कुछ पठनीय पुस्तकें भी हैं। काष्ठ संस्कृति की छाप है। आनंद- ही- आनंद है!

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं 

जनचौक से साभार

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें