डॉ. विकास मानव
वास्तविक साधना भूमि में सूक्ष्मशरीर का जितना महत्व है, उतना स्थूलशरीर का नहीं है। स्थूलशरीर तो सूक्ष्मशरीर के ऊपर एक आवरण की तरह है। लेकिन फिरभी दोनों शरीर दूध और पानी की तरह इस तरह घुले-मिले हैं एक दूसरे में कि उनके अस्तित्व का अलग-अलग बोध ही नहीं होता है, क्योंकि स्थूलशरीर से हमारा तादात्म्य इतना गहरा है कि स्थूलशरीर और ‘मैं’ में पृथकत्व का बोध नहीं होता। दोनों एक ही प्रतीत होते हैं।
जिस समय दोनों में पृथकत्व का बोध होगा, दोनों के अस्तित्व अलग-अलग प्रतीत होंगे, उसी समय हमें सूक्ष्मशरीर का बोध होगा और उसके अस्तित्व का भी अनुभव होगा। यह बोध और अनुभव होते ही हम सूक्ष्मशरीर में जीना शुरू कर देंगे।
तभी हमें प्रथम बार स्थूल शरीर की निरर्थकता का तो पता चलेगा ही, साथ ही सूक्ष्मशरीर के मूल्य का भी पता चलेगा।
स्थूलशरीर की अपनी एक सीमा और मर्यादा है, लेकिन सूक्ष्मशरीर की न कोई सीमा है और न तो है कोई मर्यादा ही। सूक्ष्मशरीर को उपलब्ध साधक बाह्यरूप से कोई भी साधना, उपासना, जप, पूजा आदि नहीं करता। भले ही लोग उसे अधार्मिक और नास्तिक समझें।
मगर वह ऐसा होता नहीं। उसकी सारी साधना, उपासना आदि सूक्ष्मशरीर द्वारा होती है। यहां यह भी बतला देना आवश्यक है कि सूक्ष्मशरीर द्वारा की गई कोई भी क्रिया सूक्ष्म जगत में होती है, वह क्रिया स्थूलजगत् में होती हुई दिखलाई नहीं पड़ती।
साधना भूमि में सूक्ष्मशरीर का तो मूल्य है ही, इसके अतरिक्त प्रकृति विज्ञान की दृष्टि में भी कम मूल्य नहीं है। इसका कारण यह है कि जन्म और मृत्यु का एकमात्र कारण है ‘सूक्ष्मशरीर’ ही है। जब तक उसका अस्तित्व है, तब तक जीवात्मा को जन्म और मृत्यु से मुक्ति नहीं।
प्रकृति विज्ञान के अनुसार समस्त दृश्य और अदृश्य जगत् सूर्य की सूक्ष्मतम रश्मितरंगों से बना है। इन तरंगों में तीन मुख्य तत्व हैं–जीवाणुतत्व, शक्तितत्त्व और विचारतत्व।
आत्मा इन तीनों तत्वों का एक विशिष्ट रूप है। मृत्यु के बाद आत्मा इन्हीं तीनों तत्वों के बल पर अपनी निजी प्रेरणा के अनुसार अपने लिए किसी भी शरीर-पदार्थ अथवा स्वरूप का निर्माण कर सकने में समर्थ होती है। वैसे तो योग के अनुसार कई शरीर हैं, लेकिन आत्मा का वाहकरूप जो शरीर है, वह एकमात्र सूक्ष्मशरीर ही है।
यह सूक्ष्मशरीर ‘न्यूट्रिन’ और ‘एस्ट्रल’ के कणों से निर्मित है, जबकि स्थूलशरीर पदार्थ के सूक्ष्म कणों से निर्मित है।
सूक्ष्मशरीर की रचना और उसकी शक्ति शक्तितत्त्व का वाहक आत्मा है और उस तत्व की ऊर्जा का वाहक है मन। इसी प्रकार जीवाणु तत्व यानी जीवनतत्व का वाहक है–एस्ट्रल कण। इच्छाओं, कामनाओं, वासनाओं, किये गए कर्मों, विचारों, भावों, भावनाओं के अलावा जो सोचा-विचार गया है, तथा अनुभव किया गया है–उन सबके सूक्ष्मतम संस्कारों का वाहक है–न्यूट्रिन कण। न्यूट्रिन कण प्रकृति की अद्वितीय देन है।
ये कण अदृश्य, आवेशरहित और इतने हल्के होते हैं कि उनका भार न के बराबर है। ये कण कहीं भी स्थिर नहीं रह सकते। प्रकाश की गति से कहीं भी चलायमान रहते हैं। कोई भी भौतिक वस्तु या पदार्थ इनकी गति में बाधक नहीं बन सकता।
ये अपनी गति से अंतरिक्ष में बिना किसी रुकावट के कहीं भी आ-जा सकते हैं। जब न्यूट्रिन कण का संबंध एस्ट्रल कणों से जुड़ता है तो ये किसी भी भौतिक वस्तु में बदल जाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं, दोनों कणों से निर्मित होने के कारण सूक्ष्मशरीर में भी इनके सारे गुण धर्म विद्यमान रहते हैं।
वह भी बिना किसी बाधा के प्रकाश की गति से कहीं भी आ-जा सकता है। कहीं भी प्रकट हो सकता है। कोई भी रूप धारण कर् सकता है। पार्थिव शरीर से अलग होकर स्वतंत्र रूप से कहीं भी संचरण-विचरण भी कर सकता है।
गुह्यविद्या( Occultism) के अन्तर्गत जितने भी विषय हैं, उनमें सूक्ष्मशरीर भी एक विषय है। गुह्यविद्या का एक आश्चर्यजनक सिद्धान्त है कि श्रेष्ठतम मानवशरीर यानी योगशरीर Three Dimension of Space और One Dimension of Tune के सानुपातिक विप्रत्यय से आकार ग्रहण करता है।
इस सिद्धांत को भलीभांति समझकर उसके अनुसार आचरण करने की स्थिति प्राप्त होने पर योगी अपने सूक्ष्म शरीर को किसी स्थान पर, किसी भी दूरी पर और किसी भी आकार में प्रकट और विलीन कर सकता है।
इसी सिद्धान्त के अनुसार दीर्घकालीन ध्यान(meditation) द्वारा स्वदेह की रक्षा के लिए ब्रह्मांड रश्मियों का उपयोग किया जा सकता है। तब उस ब्रह्मांड क्षेत्र-संयुक्त स्थिति में योगी जो भी विचार करेगा, वही ब्रह्मांड रश्मियों द्वारा घनीभूत होकर सूक्ष्म अथवा स्थूल आकार ग्रहण कर सकेगा और उसे ज्ञात होगा कि उसका सूक्ष्मशरीर ‘ब्रह्म’ का एक अनन्त शक्तिमय अविष्कार है।
अतः इस स्थिति में सूक्ष्मशरीर से संबंधित सभी चमत्कार उसे बच्चों के खेल प्रतीत होंगे।
क्या सूक्ष्मशरीर जन्म-मृत्यु का कारण है सूक्ष्मशरीर जन्म-मृत्यु का कारण तो है ही, इसके अलावा यह आवागमन से मुक्त होने का भी साधन है। जन्म-मृत्यु से छुटकारा पाने के लिए सूक्ष्मशरीर से भी हमेशा के लिए छुटकारा प्राप्त करना पड़ता है। सूक्ष्मशरीर से छुटकारा सहज सम्भव नहीं है।
इसी हेतु सारी साधनाएं बनायी गयी हैं कि व्यक्ति सूक्ष्मशरीर से सदैव के लिए मुक्त होकर मुक्ति या मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर ले।स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर और आत्मा–इनमें से स्थूलशरीर संसार में रहने के लिए है। जबतक स्थूलशरीर है तबतक व्यक्ति का अस्तित्व संसार में है।
स्थूलशरीर व्यक्ति को संसार में लाने के लिए ही उपलब्ध् होता है और जब वह संसार से विदा होने लगता है तो वह वहीं छूट जाता है। जन्म और मृत्यु उसकी सीमाएं हैं और उन्हीं सीमाओं में उसका अस्तित्व है। वह अपनी सीमाओं से परे कहीं आता-जाता नहीं। लेकिन सूक्ष्मशरीर पर यह बात लागू नहीं होती।
वह आता भी है और जाता भी है। उसका अस्तित्व हर काल में, हर समय, हर अवस्था में बराबर बना रहता है। जहां तक प्रश्न आत्मा का है–वह तो सदा से ही है। स्थूलशरीर मिलता है माता-पिता के सौजन्य से, जबकि सूक्ष्मशरीर मिलता है पिछले जन्म से। जबतक आवागमन का चक्कर है, तबतक आत्मा और सूक्ष्मशरीर का संबंध अटूट है। आत्मा गर्भ में प्रवेश करती है तो सूक्ष्मशरीर के साथ। स्थूलशरीर द्वारा जन्म लेती है तो सूक्ष्मशरीर के साथ।
मृत्यु के बाद अपनी अनन्त यात्रा पर निकलती है तो भी सूक्ष्मशरीर के साथ।
गर्भ में जब सारे अँग-प्रत्यंग शिशु के निर्मित हो जाते हैं और मस्तिष्क का भी जब पूर्ण विकास हो जाता है, साथ ही मस्तिष्क की समस्त कोशिकाओं का भी पूर्ण विकास हो चुकता है, तब उस अवस्था में अपने स्वशरीर के साथ गर्भ में प्रवेश करती है।
प्रवेश के बाद ‘न्यूट्रिन’ कण जिनमें इच्छा, कामना, भावना, वासना, विचार भाव आदि रहते हैं, मस्तिष्क की असंख्य कोशिकाओं में प्रवेश कर जाते हैं।
उसके बाद ‘एस्ट्रल’ कण मस्तिष्क और उसकी कोशिकाओं को चैतन्य और क्रियाशील कर देते हैं।