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वैदिक दर्शन : काल सर्वव्यापी है

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         डॉ. विकास मानव 

कालोऽम् दिवमजनयत् काल इमाः पृथिवीरुत।
काले है भूतं भव्यं चेषितं हवि तिष्ठते।।
~अथर्ववेद (१९ । ५३ । ५)
कालः = काल शब्द पुंलिंग प्रथमा एक वचन [ काल ने]
अमूम् = अदस् शब्द स्त्रीलिंग द्वितीया एकवचन [ उसको]
दिवम् = दिव् शब्द [स्वर्ग, आकाश, दिन, प्रकाश] स्त्रीलिंग द्वितीया, एकवचन।
अजनयत् = जन् धातु प्रेरणार्थक लङ् लकार प्रथम पुरुष एक वचन [उत्पन्न किया, पैदा किया।]
इमाः = इदम् शब्द स्त्रीलिंग द्वितीया बहुवचन [ इन सब]
पृथिवीः = पृथिवी शब्द स्त्रीलिंग द्वितीया बहुवचन | पृथिवियों को ]
पृथु विस्तारे से पृथिवी शब्द बना है असंख्य पृथिवियाँ हैं।
उत = (उ + क्त) अव्यय शब्द है। अहो, स्वित्, अहोस्वित्, और भी अर्थ में यहाँ यह प्रयुक्त हुआ है।

काले = काल शब्द सप्तमी एक वचन [काल में]
ह = अव्यय है। निश्चय ही, सचमुच अर्थ में यहाँ आया है।
भूतम् = (भू+क्त) [जो हो चुका हो, व्यतीत, गत, अतीत ]
भव्यम् = (भू + यत्) [होने वाला, आगे घटित होने वाला होनहार, भविष्य, भविष्यत्.
च = अव्यय योजक [ और ]
•इषितम् = (इष् + क्त) [ इच्छित वर्तमान जगत, कामायमान विद्यमान वर्तमान वस्तु वा संसार ]
वितिष्ठते = विपूर्वक स्था धातु आत्मनेपदी लक्रिया प्रथम पुरुष एकवचन । यहाँ इसका अर्थ है-अचल है, बसा हुआ है, फैला हुआ/ विस्तीर्ण है।
अन्वय ~
कालः अमूम् दिवम् अजनयत्। ततः कालः इमाः पृथिवी (अजनयत्) काले भूतम् भव्य च। ह (काले) इषितम् (विश्वम्) वितिष्ठते।
मन्त्रार्थ ~
काल ने इस आकाश को उत्पन्न किया तथा काल ने इन पृथिवियों (नाना पिण्डों, शरीरों) को पैदा किया। सचमुच, काल में भूत और भविष्य है। निश्चय ही काल में यह विश्व वसा हुआ / फैला हुआ अचल है।

इस मंत्र का तात्पर्य है सब कुछ काल से है, काल में है। काल बाह्य कुछ भी नहीं है। ऐसे काल का जो सतत स्मरण नहीं करता उसका जीवन मटियामेट हो जाता है। एतस्मै कालाय नमः यह- काल हमारे मन और बुद्धि को अपने घेरे में लिये हुए है। वह जैसा चाहता है, वैसा ही मन बुद्धि प्रेरित होती है। यह काल हमारे मन और बुद्धि में ऐक्य स्थापित रखे।
इन दोनों को परमार्थ में लगाये। हमारा यज्ञोपवीत हमें इस काल का सतत स्मरण कराता है। भूत, वर्तमान, भविष्य रूप इसके तीनों सूत्र त्रिदेवों की उपासना से विरत न करें, त्रिदेवियों / शक्तियों (ब्राह्मी, वैष्णवी, शाम्भवी) से अलग न रखें। एतस्मै यज्ञोपवीताय नमः यह काल एक ही साथ क्रूर एवं कोमल दोनों है। यह मन और बुद्धि की पहुँच से परे है। यह अपने प्रकाश से प्रकाशित है।
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्र तारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥
~श्वेताश्वतरोपनिषद् (६।१४)

पुन:
काले मनः काले प्राणः काले नाम समाहितम्।
कालेन सर्वा नन्दन्त्यागतेन प्रजा इमाः॥”
~अथर्ववेद (१९ । ५३ । ७)
अन्वय-
काले मनः काले प्राणः । काले नाम समाहितम् । अनागतेन कालेन इमाः सर्वाः प्रजाः नन्दति । इस मंत्र में मन प्राण नाम- ये तीन ब्रह्म वाचक है।

मनो ब्रह्मेति व्यजानात्।
~तैत्तिरीयोपनिषद् (३ । ४)
प्राणो ब्रह्मेति व्याजानात्।
(तैत्तिरीयोपनिषद् १३।३)
बृहस्पते प्रथमं वाचो अप्रं यत्प्रेरत नाम धेयं दधानाः।
~ऋग्वेद (१० । ७१ । १)

मैं यहाँ मन, प्राण एवं नाम- इन शब्दों की व्युत्पत्ति पर आर्ष दृष्टि डालता हूँ जिससे इनके गुह्य अर्थ का प्रकटन हो सके।
हन् हिंसायाम् से हिंस शब्द बना है। इसे उल्टा करके सिंह कहते हैं। सः अहम् = सोऽहम्= सोह। इसे उल्टा करके हंसो हंसः मान लेते हैं। ‘राम’ जिसका अर्थ सुन्दर है, असुन्दर व्याथ बाल्मीकि को ‘मरा’ कर के जपाया गया। उल्टा कहने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। इससे यह निष्कर्ष निकलता है-हिंस = सिंह। सोहं = हंसः। मरा = राम इस सन्दर्भ में, ठीक ऐसे ही नम= मन ।नम् + अच्= नम
अर्थात् झुकने वाला।
मन का यह सर्वप्रधान गुण है। मन झुकता है-पञ्च विषयों पर/पश्च तन्मात्राओं पर पच वासनाओं पर जैसे जल नीचे की ओर बहता है, वैसे ही मन अधोगामी है।
मन का ऊर्ध्वगामी होना, उसका ऊपर की ओर झुकना है। नम और मन-इन दो शब्दों के शील-स्वभाव, गुण-धर्म एवं अर्थ में कोई भेद नहीं है। मह, नक्षत्र, राशियों सब मन हैं क्योंकि इनका कभी ऊपर की ओर झुकाव होता है तो कभी नीचे की ओर। आकाश में जितने भी पिण्ड हैं, वे सब धरती के लिये मन हैं, नम हैं। नम + अण्= नाम जो स्वयं झुके और झुकने वालों को पैदा करे वा दूसरों को झुकाए। वह नाम है।
नाम का अर्थ है, आकाश धरती पर हम कहीं भी खड़े होकर देखें, हमें आकाश चारों ओर से झुका हुआ लगेगा। यद्यपि झुका हुआ नहीं है। झुकने का अभ्यास मात्र है। प्राण= प्र + आ + न। प्र उपसर्ग है। आ उपसर्ग है। न अव्यय है।
जो सम्पूर्ण रूप रूप से नहीं है अर्थात् जो बिल्कुल नहीं है पर, बिना उसे माने काम नहीं चलता। न = ण। इस तरह, प्राण = शून्य। घटाते-घटाते/कम करते करते/विभाजन करते करते. जब कुछ भी न शेष रहे तो उसे शून्य वा नकार कहते हैं। यही शून्य वा नकार ब्रह्म है, अशेष है।

अतएव मन= नाम = प्राण = ब्रह्म।
समाहितिम् = सम् + आ + था + क्त लीन, समाप्त, संगृहीत।
अनागतेन अन् + आ + गम् + क्त, तृतीया एकवचन अप्राप्त, अज्ञात, निकट नहीं, दूर।
नन्दति = नन्द् लट् प्र. पु. बहु. व.। सन्तुष्ट / हर्षित / प्रसन्न होती हैं।
इमाः सर्वाः प्रजाः = ये सब प्रजाएँ। इस लोक के सभी प्राणी। इस धरती पर जायमान चराचर जीव।
काले मनः = काल में मन प्रतिष्ठित है।
काले प्राणः = काल में प्राण रहता है।
काले नाम समाहितम् = काल में नाम सुप्रतिष्ठित है।

मन [= नम) और नाम में सूक्ष्म भेद है। मन में गति है/मन स्वयं गतिशील है। जब की नाम के भीतर गति है/ नाम स्वयं अचर स्थाणु है। ग्रहादि पिण्ड मन हैं। क्योंकि ये गतियुक्त हैं। शब्द मन है। शब्द में गति है। आकाश नाम है आकाश में गति का नितान्त अभाव है। शब्द आकाश में स्थित होता है, विचरता है। शब्द मन है तो आकाश नाम है।
शब्द भी ब्रह्म है, आकाश भी ब्रह्म है। ये दोनों काल में संकेन्द्रित हैं। प्राण निर्गुण है। इसलिये शून्य है। यह अवाङ्मनसगोचर है। इसलिये प्राण भी ब्रह्म है। यह प्राण काल में है। यह आकाशवत् व्यापक है। ब्रह्म के तीन पर्याय मन प्राण एवं नाम सतत काल की अनन्त परिधि के भीतर स्थित हैं।
इमाः सर्वाः प्रजाः अनागतेन कालेन नन्दन्ति = ये सभी चराचर जीव काल में अनागत काल में रहते हुए प्रसन्नता को प्राप्त होते हैं। काल अज्ञात है, अप्राप्त है, अति निकट होते हुए भी दूर है, पहुँच से परे है। इसलिये इसे अनागत कहा गया है।

काल अनागत इसलिये भी है कि यह किसी के पास आता नहीं। इसी के पास/इसी में सब जाते हैं। जाते भी नहीं प्रत्युत् इसी में बसते हैं, मरते-जीते हैं।
कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा।
भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या॥
~श्वेताश्वतरोपनिषद् (१।२)

काल, स्वभाव है, नियति है, यदच्छा (अनागत, आकस्मिक) है, भूतों की योनि है, पुरुष है ऐसा जानना चाहिये।
इस कथन से भी, काल सब कुछ है काल के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं है, काल सर्वोपरि है यह काल ही तो विष्णु है। जो काल को जानता है, वह वैष्णव है। ऐसे वैष्णवों को मैं नमन करता हूँ।
मन्त्रविश्लेषण :
काले चराणां अधिपः मनः तिष्ठति, खेचराणां अधिपः सूर्यः निवसति वा काले प्राणः अदृश्यशक्तिर्वा वसति। काले नाम अयमाकाशः वा स्थितमस्ति । अज्ञातेन कालेन इमाः सर्वाः प्रजाः प्राणिनां समुदायाः जीवन्ति विनश्यन्ति उत्पद्यन्ते वा । कालात् परः किञ्चिन्नास्ति।
ऐसे काल की प्रभाव का वर्णन भला कौन कर सकता है?

काल सबको अपने उदर में रखता है, प्रकट करता है, पचाता है। यह काल अवश है। इसे जानना चाहिये। यह अपने को जानने नहीं देता। यदि इसकी शरण में जाया जाय तो यह अपने अनिर्वचनीय स्वरूप की एक झलक अवश्य देता है। 

तस्मिन् शरणं प्रपद्येऽहं।

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