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 देश की कुछ अदालतें  कर रही हैं  अंतर्विरोधी फैसले

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रघु ठाकुर

पिछले कुछ समय से देश की कुछ अदालतें ऐसे मनमानी फैसला कर रही हैं कि वह स्वत ही हास्य का पात्र बन रही है। देश के विधि जानकारों का एक बड़ा हिस्सा यह मानता है कि उनके निर्णयों में मनमाना पन भी है और परस्पर अंतर विरोध भी है। अभी पिछले दिनों जब दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल को ई डी ने गिरफ्तार किया तो उनके जमानत के मानत के आवेदन पर जस्टिस खत्रा और जस्टिस दीपांकर ने यह कहते हुए जमानत दी कि चुनाव प्रचार करना उनका लोकतांत्रिक अधिकार है और इसीलिए उन्हें । जून जो चुनाव के सातवें चरण का अंतिम दिन है, तब तक की जमानत दी है व 2 जून को वापिस कोर्ट के समक्ष समर्पण करना होगा।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय की चिंता जायज है व्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करना सर्वोच्च न्यायालय का संवैधानिक दायित्व भी है। परंतु इसी ई डी के द्वारा गिरफ्तार झारखंड के मुख्यमंत्री श्री हेमंत सोरेन को उनके लोकतांत्रिक अधिकार के प्रयोग के लिए जमानत नहीं दी गई। पहले तो इस डबल बेंच के खन्ना और जस्टिस दीपांकर के बाद लगाएंगे परंतु जब श्री हेमंत सोरेन के वकील ने कहा की तब तक तो चुनाव हो जाएंगे तब बेंच ने अपनी व्यस्तता का कारण बताया कि इतने ज्यादा व्यस्त हैं कि वे इसे जल्दी नहीं सुन सकते। यह आश्चर्य की बात है कि जमानत जो लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रयोग के लिए दी जानी है और उसमें भी एक उन्हीं के फैसले की नजीर पर एक सप्ताह पूर्व की नजीर है जिसमें इसी आचरण पर जमानत दी थी तो उसी आधार पर क्या श्री हेमंत सोरेन को भी जमानत दी जानी चाहिए थी? यह प्रश्न आम आदमी के रूप में घूम रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश चाहे जो कहें परंतु देश के आम जनमानस में यह निर्णय और टिप्पणी दोहरी, भेदभाव और दोहरे न्याय की पर्याय बन गई है। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि चूंकि हेमंत सोरेन आदिवासी हैं इसलिए उसके बारे में समान मापदंड, नहीं अपनाया गया। क्या सच्चाई है यह तो माननीय न्यायाधीश ही जानते होंगे या वे ही कभी बताएंगे तब देशको मालूम पड़ेगी, परंतु देश के आमके वकील के निरंतर आयत पर जमानत की सुनवाई की गई ती माननीय न्यायधीश महोदयों ने उन्हें यह कहकर पेशी दे दी कि आपने पहले से एक दरखास्त नीचे की अदालत में लगाई हुई है और इस तथ्य को यहां छुपाया है। इस बारे में भी कोई प्रमाणिक बात कहना न्यायालय को ही संभव है। हो सकता है नीचे की कोर्ट में दरखास्त लगी ही परंतु क्या इससे माननीय सर्वोच्च न्यायालय के जमानत देने का अधिकार जो की विशेष अधिकार के रूप में है जिसके आधार पर उन्होंने पिछले दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री जी को जमानत दी थी पर क्या कोई बंधन लगता है? मेरे ख्याल से ऐसा बंधन तो नहीं है। सुप्रीम कोई उस समय जब चुनाव के लिए मात्र 10 दिन और प्रचार के लिए मात्र दिन बचे तो मात्र के लिए मात्र रिम जमानत दे ही सकता था ताकि श्री हेमंत सोरेन भी केजरीवाल के समान अपनी पार्टी या गठबंधन का प्रत्चार कर

पाते। इसके कुछ दिनों बाद एक और फैसला पुणे की किशोर अदालत ने दिया है जिसमें एक रईसजादा नौजवान (17 वर्षीय) ने अपने दोस्तों के साथ अपने दोस्तों के साथ पांच सितारा होटल में जमकर शराब पी। यहां तक की अपने पिता के नाम के के क्रेडिट कार्ड से 48000 का बिल चुकाया और अपने पिता के ढाई करोड़ रुपए की कोई कीमती कार जिस से वह आया था उसी से मात्र 160 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से वापस उड़ने लगा। उसे नशे में ख्याल भी नहीं रहा और उसने मोटरसाइकिल पर जा रहे. दो नौजवानों के ऊपर गाड़ी चढ़ा दी। जिससे वे

न्यायालय ने उस अपराधी को इस शर्त पर छोड़ने का आदेश दिया कि वह दुर्घटना पर निबंध लिखेगा और आरटीओ ऑफिस में जाकर ट्रैफिक के नियम समझेगा। न्यायपालिका को क्या जमानत के नाम पर ऐसे निर्णय देने एक और घटना इसी समय हुई। उत्तराखंड में एक कम उम्र के नौजवान ने, जो 14 वर्ष का था अपने साथ पहने वाली लड़की का नग्न वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल दिया वह जब वायरल हुआ तो उस लड़की ने शर्म से क्षुब्य होकर आत्महत्या कर ली। इस युवक के ऊपर मुकदमा दर्ज हुआ और

पियले पांच माह से वह पुर्वक जेल में बंद है। किशोर न्यायालय ने उसकी जमानत नहीं दी। उसका परिवार अपील में हाईकोर्ट गया। हाई कोर्ट ने भी जमानत नहीं दी और इसके बाद वह सुप्रीम कोर्ट गया और सुप्रीम कोर्ट ने भी उसके जमानत के आवेदन को खारिज किया और हाईकोर्ट के आदेश को सही माना। ये फैसले यद्यपि दो अलग-अलग न्यायालय के हैं, परंतु इनकी मूल वस्तु कहीं ना कहीं समान है।

जब सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड के मामले में हाईकोर्ट के जमानत निरस्ती आदेश के खिलाफ अपील सुनी तो न केवल हाईकोर्ट के आदेश को सही ठहराया बल्कि जमानत देने से इनकार कर दिया। देश के जनमानस ने भी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की सराहना की। यह बात सही है कि कोर्ट को जन भावनाओं के आधार पर नहीं कानून के आधार पर निर्णय करना चाहिए परंतु यह भी तथ्य है कि जनमानस कोर्ट के निर्णयों को समाज के हित आदि की भावनाओं से देखता है दूसरे कानून के शब्द सदैव बहुअर्थी हो सकते हैं। उनका अर्थ या निम्न निकलने का अधिकार होते कोर्ट का ही होता है, तो फिर में

Qqqqqq के किशोर न्यायालय के इंजीनियर की हत्या के अपराधी भले ही वह उद्देश्य विहीन हत्या मानी कार परंतु इस अर्थ में एक गंभीर घटना है कि आव कर को नौजवान है वह किस प्रकार विकृतियों की और यह भी हास्यास्पद शर्तों पर कानून का मजाक व अधिकारों का दुरुपयोग है। है। जमानत के लिए किशोर न्यायालय ने कहा था कि अपराधी दुर्घटना पर निबंध लिखे और आरटीओ कार्यालय जाकर ट्रैफ़िक के कानून समझे। क्या यह मानवता के साथ, किशोर न्यायालय का क्रूर मजाक नहीं है?

पुणे की पुलिस को भी देनी होगी की पुणे पुलिस ने केवल अपराध के लिये नौजवान के विरुद्ध कार्रवाई की बल्कि उसके माता पिला, किशोर न्यायालय के अधिकारी, डॉक्टर्स और कुछ अन्य लोगों के खिलाफ भी उसी प्रकार की धारा में मुकदमा दर्ज किया है और न्यायालय ने तो बाद में इतने महत्वपूर्ण आदेश दिए कि किशोर न्यायालय के अधिक्षरी के विरुद्ध भी टिप्पणी व आदेश दिए। चूँकि लड़के के अरबपति पित्ता ने जैसा कि आमतौर पर होता है कि पैसे वाले अपने ड्राइवर को चालक बनाकर उसके विरुद्ध अपराध बनवा देते हैं बाद में या तो मुकदमे बाजी के हथकंडों से उसे छुड़ा लेते हैं या अगर कुछ थोड़ी बहुत सजा भी हुई तो उसके परिवार के लिए समुचित आर्थिक व्यवस्था कर उसे जेल भिजवा देते हैं। बिचारे गरीब ड्राइवर लाचार होते हैं उनका सोचता है की कुछ दिन सजा काट लेने से मालिक की वफादार बने रहेंगे एवं नौकरी सुरक्षित रहेगी, अन्यथा निकाल दिए जाएंगे तो बच्चे भूखे मरेंगे। अतरू ड्राइवर निर्दोषहुार भी दोष स्वीकार कर लेता

पुणे पुलिस को इसलिए भी चन्यवार देना होगा कि उन्होंने इस प्रकरण में के प्रयाग के बनी मुल नहीं बनाया। इतना ही नहीं, अपराधी लड़के के पिता को गवाह बदलगाने की ब लाचार करने के अपराध में गिरफ्तार किया है। तया किशोर न्यायालय के जाय भी शुरू हुई है। पुणे पुलिस की यह कार्यचली अनुकरणीय गया संराहनीय। चना, मुंबई, दिली में राईसजादों के द्वारा, अपनी बड़ी- बड़ी गाड़ियों से कितने ही निदोष लोगों को मार देने कचराको कितनी ही महारथी नीहा में बाकिर खान तक) जिनों देश जानता है। पुणे कांड में प्रष्ट यहां तक पहुंचा कि डॉक्टरी किशोर का बलत संपल ही दिया तथा उसके स्थान पर कित महिला का शायद उसकी मां ब्लड सैंपल लगा दिया। अब प पुलिस ने उन दोनों डॉक्टरों को गिरफ्तार किया है और वे अब में हैं। इस दुर्घटना कांड में कि प्रकार की तत्परता व कार्रवाई पुनि से लेकर न्यायालय ने की अब भविष्य के लिए उदाहरण और भविष्य में ऐसे रईसजादो अपराधों को रोकने का माध्यमब 17 साल के नाबालिग नौ के लिए आखिर उसके पिता ने गाड़ी चलाने को क्यों दी, नि रफ्तार 200 किलोमीटर तक है। इतना ही नहीं अपने बेटे के उन्होंने अपना क्रेडिट कार्ड क्यों जबकि कानून के अनुसार नाल का ड्राइविंग लाइसेंस नहीं जाता है। यह माना जाता है कि उम्रन अस्थिरता कि उम्र होती है।

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