डॉ. विकास मानव
मानव के अस्तित्व के पीछे एक रहस्यमय सकती है यह सर्वमान्य सिद्धांत से मानव के विचारों की उत्पत्ति व चेतना के विकास का मूड कहां है.
इस रहस्यमय शक्ति के विवेचन सिद्धांत रूप से नहीं किया जा सकता हां अनुभव कमी अवश्य है. ज्ञान मस्तिष्क के अंतर्गत है या विचार मन से उठते हैं किंतु अनुभव मन प्रज्ञाबुद्धि और भावुकता से परे है.
जहां तक अनुभव का प्रश्न है उसे परिभाषित नहीं किया जा सकता और ना ही वह किसी संम्प्रेक्षण क्रिया का परिणाम है अनुभव काल व अंतराल की सीमाओं से परे है।
इस समय शक्ति की खोज तंत्र ने किया है संत की सामाजिक परिभाषा जादू टोना कामवासना का उदात्तीकरण या भूमिगत अध्यात्मिक साधना है जो वास्तविकता से परे है या यूं कहिए इस तन्त्र का विकृत स्वरूप है.
क्यों रहस्य भौतिकता से प्रेरित अपरा तंत्र के अंतर्गत है? वास्तव में तंत्र का शाब्दिक अर्थ शक्ति स्वातंत्र्य और चेतना का विकास है व्यक्तिगत चेतना के विकास की प्रक्रिया तंत्र का ही एक अंग है।
हमारा व्यष्टि मन सीमित है और एक क्षेत्र पर ही आधारित है क्योंकि हम वही तक देख सुन सकते हैं जहां तक हमारे कर्मेन्द्रियां आंख कान की शक्ति साथ देती है.
ब्रह्मांड की इस सूक्ष्म वस्तुओं को हम नहीं देख पाते और ना ही ध्वनि तरंगों को सुन सकते हैं अतः मन सीमित दायरे में ही काम करता है.
मंन की सीमा बंन्धन को तोड़ना है तब ही वह असीम में डुबकर अनंन्तता का अनुभव कर सकता है किंतु मन की गति दी हुई सूचनाओं पर निर्भर है।
यदि आपका तर्क या निर्णायक शक्ति समुचित सहायता नहीं करती तो बुद्धि काम नहीं करेगी शृंखलाओ को तोड़ने का एकमात्र उपाय है. मन का विकास जो तांत्रिक माध्यम से ही संभव है मन को पृथक करके उसकी गति अवरुद्ध करने के लिए मंत्र विज्ञान समझना आवश्यक है तभी मन को विकसित किया जा सकता है.
मन अपने भीतर की सुप्त शक्तियों को जागृत करने की प्रक्रिया है मंत्र जप में कभी-कभी गुंजायमान सीधी और तथा लेयबद्ध ध्वनि तरंगे उत्पन्न होती हैं।
जो व्यक्ति के आंतरिक ढांचे को सीधे प्रभावित करती है. ध्वनि तरंगों से विद्युत शक्ति पैदा होती है. मन की गहराइयों में प्रत्येक मंत्र की ध्वनि किसी न किसी परिमाण मे उर्जा उत्पन्न करती है और ध्वनितरंग का अपना एक आधप्ररूप होता है.
ॐ हमारी चेतना का ही विस्तार है. इसके उच्चारण से ज्यामिती का ही एक नमूना बनता है. हर ध्वनि वृत्ताकार त्रिकोण आयत षटकोणीय आदि नये नये आकार बनाती है. आकृतियां मात्र काल्पनिक नहीं है अपितु ध्वनियों के आघप्ररूप हैं. मंत्र का आघप्ररूप ही यंत्र कहलाता है।
मंत्र और ध्यान साथ साथ चल सकते हैं किंतु मंत्र ज्ञान का अस्त्र नहीं है. मन्त्र संस्मरणों व भावनाओं को दबाया नहीं जाता. इनके साथ खेला जाता है. इनके दबने से साधक के व्यक्तित्व में आंतरिक द्वन्द्व के फलस्वरूप मानसिक रोग पैदा हो सकता है. मन के सभी विचारों का सतत बोद्घ रखने से किसी समय साधक भावातीत स्थिति का अनुभव कर सकता है.
मन के बंधनों को तोड़कर उसे स्वच्छंद गति में प्रवाहित करना है. वास्तव में मन साधक की समस्या नहीं है अपितु साधक स्वम मन की समस्या है जो नित नूतन अनुभव की प्रतीक्षा करता रहता है।
तंत्र शक्ति स्वातंत्र्य को उर्जा से युक्त होने की प्रक्रिया है जिससे यह ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है. मनुष्य मात्र का ही यह सौभाग्य है कि संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त इस निरपेक्ष उर्जा को खोज कर करें. यही बिंन्दु है वृत्त की परिधि में काल और अंतराल लक्ष्य और भावातीत चेतना है. केंद्र में बिंन्दु है जो कि उस निरपेक्षता सत्ता का घोतक है इस ब्रह्मांड की वास्तविकता है. काल अंतराल लक्ष्य तथा अंतिम बिंन्दु की अतीतावस्था या अतीन्द्रियता तंत्र में बिंदु प्रमुख है।
ब्रह्मांड ही बिंदु का विकास है. बिंदु अनंत है जिसका विभाजन असंख्य विभागों में होता है बिंदु (आज्ञाचक्र)पर ध्यान केंद्रित करने से काल तथा अंतराल दोनों एक दूसरे के निकट आ जाते हैं. अन्यथा वह एक दूसरे से बहुत दूर है. यह दोनों ही मन के अंतर्गत हैं. काल और अंतराल मन की चरित्रगत की विशेषता है.
यदि काल और अंतराल नहीं है तो मन भी नहीं है. ध्यानावस्था मे दोनों ही युक्त हो जाते हैं. एक तत्व है शिव दूसरा तत्व है शक्ति. दोनों का सामरस्य काल और अंतराल दोनों की बिजली के तार हैं.
एक घटनात्मक तथा दूसरा ऋणात्मक. दोनों के मिलने से चमक पैदा होती है दोनों बिंदु के निकट लाते ही बम का सा विस्फोट होता है. यही विस्फोटक उर्जा तंत्र में आत्मा के रूप से अनुमन्य है.
समष्टि मन के दो किनारे हैं काल और अन्तराल मृत्यु के समय ही हम दोनों से छुटकारा पाते हैं और इनसे निवृत्ति पाने के लिए अध्यात्मिक साधना या ध्यान से संम्बद्ध होते हैं. आज्ञा चक्र पर केंद्रित ध्यान से दोनों निकट आ जाते हैं. जब यह विस्फोट उद्धोधित होता है तब समष्टि मन का विभाजन अगणित अंशों में बँट जाता है।
यही निहारिका है जिसका हर कण ही पूर्ण बिंदु या पूर्ण सत्ता है. ठीक वैसे ही जैसे अणु बम् सैकडो टुकड़ों में बिखर जाता है. चेतना विकास के इस क्रम में साधक परमात्मस्वरुप हो जाता है. तंत्र का यही अंतिम लक्ष्य और परातंत्र की यही उपलब्धि है.