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पुस्तक समीक्षा: ‘दी इन्कार्सरेशंस’

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प्रसिद्ध फ्रेंच डायरेक्टर कोस्टा गावरास की एक चर्चित फिल्म है– ‘मिसिंग’। इसे ‘अगस्तो पिनोशे’ के समय चिली में प्रतिबंधित कर दिया गया था। असल घटना पर आधारित इस फिल्म में एक अमेरिकी अपने प्रगतिशील पत्रकार बेटे को खोजने चिली जाता है। चिली में 1973 के तख्ता पलट के बाद से ही उसका बेटा ‘मिसिंग’ है। अपने बेटे को खोजने की प्रक्रिया में (जिसे जुंटा शासकों ने उसकी सच्ची पत्रकारिता के कारण मार दिया है) उसका सामना उस ‘ब्लैक होल’ से होता है, जहां लोकतंत्र, संविधान, मानवाधिकार या कानून कुछ भी काम नहीं करता। यहां बस साजिशें, दमन, क्रूरता व झूठ का बोलबाला है और सत्ता, ताकत और मुनाफे की हवस है। इसे ही राजनीति की भाषा में हम ‘डीप स्टेट’ कहते हैं।

मनीष आज़ाद 

इसी साल अप्रैल में प्रकाशित 561 पेज की वृहद लेकिन महत्वपूर्ण पुस्तक ‘दी इन्कार्सरेशंस : बीके-16 एंड दी सर्च फॉर डेमोक्रेसी इन इंडिया’ में भी लेखिका अल्पा शाह भीमा-कोरेगांव-16 और उनके केस की खोज [पड़ताल] करते हुए भारत के जिस ‘ब्लैक होल’ [डीप स्टेट] से हमारा सामना कराती हैं, वह उपरोक्त फिल्म की तरह ही हमारे रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी है।

किताब की शुरुआत सुधा भारद्वाज और स्टेन स्वामी के विस्तृत जीवन परिचय से होती है। हालांकि यहां अल्पा शाह ने यह साफ़ कर दिया है कि ‘बीके-16’ में जिनके बारे में उन्हें ज्यादा जानकारी मिली, उनके बारे में ज्यादा लिखा है। इसलिए इसे व्यक्ति विशेष के महत्त्व से न जोड़ा जाय।

खैर, करीब 60 साल की सुधा और करीब 80 साल के स्टेन स्वामी आखिर हैं कौन? अपने शानदार कैरियर को लात मारकर अपना जीवन मजदूरों और आदिवासियों, दलितों के लिए न्योछावर कर देने वाले ये लोग परमाणु बम से लैस भारतीय राज्य के लिए खतरा कैसे हैं? पार्किंसन नामक रोग के कारण खुद से एक गिलास पानी तक न पी पाने वाले स्टेन स्वामी भारतीय राज्य के लिए इतने खतरनाक कैसे हो गए कि उन्हें जेल में सिपर (पानी पीने के लिए पाइप) तक देने से इनकार कर दिया गया और अंततः जेल में ही उनकी जान चली गई?

अमेरिका में जन्मीं और मशहूर अर्थशास्त्री कृष्णा भारद्वाज की बेटी सुधा से जब मैं [मनीष आजाद] पहली बार मिला तो मैं उन्हें पहचान नहीं पाया। वे मजदूर, आदिवासी और दलित समुदायों की महिलाओं के साथ बैठी उन्हीं की भाषा और उन्हीं के अंदाज में बात कर रही थीं। बिना परिचय के उन्हें उन औरतों से अलगाना मुश्किल था। ऐसी सुधा ने भला क्या अपराध किया होगा कि उन्हें अपना 60वां जन्मदिन जेल में मनाना पड़ा और बेल पर छूटने के बाद भी उनके ऊपर मुंबई न छोड़ने की शर्त लाद दी गई? यह वैसे ही है जैसे मछली को जल से अलग कर दिया जाय।

दरअसल पूरी किताब में अल्पा शाह ने भीमा-कोरेगांव के कुल 16 लोगों के जीवन पर विस्तार से लिखा है और उनके राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कामों को भारत सरकार की जनविरोधी क्रूर नीतियों और उसके सांप्रदायिक अभियान की तुलना में इतने शानदार तरीके से रखा है कि यह शीशे की तरह एकदम साफ़ हो जाता है कि ये 16 लोग या इन जैसे और भी शानदार लोग आज भारतीय राज्य के निशाने पर क्यों हैं। इन 16 लोगों के बारे में जब अल्पा शाह लिखती हैं तो लगता है कि उनके परिवार का कोई नजदीकी व्यक्ति उनके बारे में लिख रहा हो। इसी शैली के कारण यह बेहद राजनीतिक किताब कला की वह गहराई भी हासिल कर लेती है कि हमें एक उत्कृष्ट साहित्य का आस्वाद भी मिलने लगता है। इसी कारण यह किताब इस बार प्रतिष्ठित ‘द ओर्वेल प्राइज’ के लिए भी नामित हुई।

सुधा और स्टेन स्वामी की विस्तृत जीवनी के बाद यह किताब ‘बीके-16’ और उनके केस के बीच इस तरह आवाजाही करती है कि पाठकों को यह समझने में मदद मिलती है कि ये व्यक्ति अपने कामों और अपने जीवन में जितने ही सच्चे हैं, उन पर थोपा गया केस उतना ही झूठा है। एक बानगी देखिए। अल्पा शाह लिखती हैं–

तुसार दामगुड़े के जिस एफआईआर पर भीमा-कोरेगांव का केस टिका है, उसमें कहा गया है कि दलित एक्टिविस्ट और रिपब्लिक पैंथर के संस्थापक सुधीर धावले [जो अभी भी जेल में हैं] ने 31 दिसंबर, 2017 को ‘एलगार परिषद’ के प्रोग्राम में जिस वक्तव्य से अपनी बात पूरी की, वह पंक्ति राष्ट्र विरोधी थी और इसके कारण ही अगले दिन व्यापक पैमाने पर हिंसा हुई।

बाद में पता चला कि जिस कथित वक्तव्य को एफआईआर में उद्धृत किया गया है, वह ब्रतोल्त ब्रेख्त की एक मशहूर कविता ‘अनहैप्पी मेन’ थी। सुधीर धावले ने अपने भाषण के अंत में इसी कविता का मराठी अनुवाद पढ़ा था।

ब्रेख्त भी अपनी कब्र में करवट बदल रहे होंगे।

अल्पा शाह ने जिस विस्तार और बारीकी से 1 जनवरी, 2018 की हिंसा और संबंधित घटनाओं का वृत्तचित्र खींचा है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि संभाजी भिडे और मिलिंद एकबोटे जैसे हिंदुत्व फासीवादियों ने भीमा-कोरेगांव की तरफ जाने वाले दलित एक्टिविस्टों पर हमला किया था। उन्हें यह एकदम बर्दाश्त नहीं था कि भयंकर जातिवादी पेशवाओं पर दलितों की जीत [1 जनवरी, 1818] का जश्न मनाया जाय।

आपको याद होगा कि इन्हीं संभाजी भिडे को मोदी ने अपना गुरु कहा था। ग्रामीण पुणे पुलिस ने पहली एफआईआर इन्हीं दोनों के खिलाफ दर्ज की थी। मिलिंद एकबोटे को गिरफ्तार भी किया गया। लेकिन सिर्फ तीन माह बाद पुणे सिटी पुलिस ने एक और एफआईआर दर्ज की, जिसमें हिंसा का आरोप एक दिन पहले हुए एल्गार परिषद के कार्यक्रम पर थोप दिया गया और बिना किसी सबूत के एल्गार परिषद को माओवादियों से जोड़ दिया गया। इसी आधार पर सुधीर धावले और कबीर कला मंच के रमेश गाय्चार, सागर गोरखे और ज्योति जगताप के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर दिया गया। रमेश गाय्चार, सागर गोरखे दोनों दलित समुदाय से तथा ज्योति जगताप पिछड़ा वर्ग से आती हैं।

प्रसिद्ध दलित बुद्धिजीवी और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता आनंद तेलतुंबड़े का केस तो और भी दिलचस्प है। आनंद एक बार पेरिस में किसी सेमिनार में भाग लेने गए थे। साथ में डॉ. आंबेडकर की पोती और आनंद की पत्नी रमा भी थीं। इस यात्रा का जिक्र करते हुए आनंद तेलतुंबड़े के खिलाफ दायर एफआईआर में पुणे पुलिस [और बाद में ‘एनआईए’] ने दावा किया कि सेमिनार के एक संयोजक प्रसिद्ध फ्रेंच मार्क्सवादी और विगत के प्रसिद्ध मार्क्सवादी दार्शनिक लुई अल्थुसर के छात्र रह चुके एतियन बलीबर ने माओवादियों के कहने पर आनंद को सेमिनार में बुलाया था और उन्हें माओवादियों के समर्थन में एक अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क का हिस्सा बनाने की सलाह दी थी। एफआईआर में यह भी दावा किया गया कि यह सेमिनार माओवादियों के पैसे से आयोजित किया गया था।

आनंद तेलतुंबड़े की गिरफ्तारी के बाद जब यह कहानी एतियन बलीबर को पता चली तो उनकी हैरानी का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने गुस्से में भारत के फ्रेंच दूतावास को पत्र लिखा और कहा कि इस कहानी का ना तो सर है और ना ही पैर। मजे की बात यह है कि इसी पत्र को कोर्ट में पेश करने पर आनंद तेलतुंबड़े को जमानत मिली।

इसके अलावा अल्पा शाह ने आनंद तेलतुंबड़े के क्रांतिकारी लेखन का सार भी यहां पेश किया है और यह बताने की कोशिश की है कि उनका लेखन भी वह कारण था, जिसके लिए उन्हें सत्ता का दंश झेलना पड़ा। विशेषकर उनकी किताब ‘दी पर्सिसटेंस ऑफ कास्ट’ का विस्तार से जिक्र करते हुए उन्होंने खैरलांजी की घटना और उसमें एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और दलित बुद्धिजीवी के रूप में आनंद तेलतुंबड़े की भूमिका का वर्णन किया है।

अल्पा शाह ने एक जगह लिखा है कि आनंद ने कम्युनिस्टों और दलितों की एकांगी समझ से अलग जाति और वर्ग का जो अंतरसंबंध बताया है वह एकदम नई जमीन का निर्माण करती है।

लेकिन इसके बाद अल्पा शाह ने जो बताया है, उसे पढ़कर रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा हो जाती है। राजनीतिक कैदियों के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट रोना विल्सन के कंप्यूटर को उनकी गिरफ्तारी से करीब चार साल पहले ही हैक कर लिया गया था। फिर उसके माध्यम से वरवर राव, सुधा, गड्लिंग व अन्य को स्पैम मेल भेजा गया और इसी प्रक्रिया में स्टेन स्वामी, सुरेंद्र गाडगिल, हैनी बाबू व अन्य के कंप्यूटर में वे आपतिजनक फर्जी पत्र रख दिए गए, जिनके आधार पर दावा किया गया कि ‘बीके-16’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल थे।

यहां अल्पा शाह ने अमेरिकी डिजिटल फोरेंसिक फर्म ‘आर्सेनल कंसल्टिंग’ की रिपोर्ट को आधार बनाया है, लेकिन इसकी बारीकियों को समझाने के लिए उन्होंने दुनिया के तमाम डिजिटल फोरेंसिक एक्सपर्ट्स से बात की। सभी ने यह बताया कि 16 लोगों को फंसाने के लिए भारत सरकार ने जिस तरह से और जिस बड़े पैमाने पर हैकरों का इस्तेमाल किया और इसके लिए जिस बड़े पैमाने पर संसाधनों का इस्तेमाल किया गया वह दुनिया के इतिहास में अभूतपूर्व है। इन्हीं डिजिटल एक्सपर्ट्स से बात करते हुए यह सनसनीखेज खबर का भी पर्दाफाश हुआ कि कमजोर डिजिटल कानून के कारण भारत दुनिया के हैकरों की राजधानी बन चुका है। ठीक वैसे ही जैसे साइबर क्राइम के लिए देश में जामताड़ा(झारखंड) या नूह(हरियाणा) है। दुनिया में सभी तरह के गैर-कानूनी हैकिंग के लिए अधिकांश ठेका भारत के हैकरों को ही दिया जाता है। भारत सरकार ने भी भीमा-कोरेगांव केस में किन-किन हैकरों की मदद ली है और उन्हें हमारे आपके टैक्स के कितने पैसे दिए हैं, यह शायद कभी पता नहीं चल पाएगा।

लेकिन यह देखना और भी दिलचस्प है कि हैकर और सरकार इतने बेपरवाह हैं (कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता) कि उन्होंने हैकिंग की इस प्रक्रिया में अपने ‘फुटप्रिंट’ भी नहीं मिटाए और ‘सेंटिनल लैब’ या ‘आर्सेनल कंसल्टिंग’ से जुड़े विशेषज्ञों को यह पता लगाने में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी कि इस हैकिंग का दूसरा सिरा ‘बीके-16’ केस की पड़ताल कर रहे पुणे पुलिस के अनुसंधानकर्ता अधिकारी शिवाजी पवार से जुड़ा है। अल्पा शाह ने जब इस विषय पर शिवाजी पवार से बात करनी चाही तो उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया। किसी जासूसी थ्रिलर फिल्म की तरह अल्पा शाह उन्हीं विशेषज्ञों के हवाले से यह रोचक जानकारी भी देती हैं कि स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी से ठीक पहले रात में हैकर अपना ‘फुटप्रिंट’ साफ़ कर रहा था, लेकिन वह इसलिए सफल नहीं हो पाया, क्योकि स्टेन सामी रात 9 बजे ही अपना कंप्यूटर बंद करके सोने चले गए। हैकरों का काम तो रात में ही शुरू होता है।

इसी संदर्भ में अल्पा शाह ने पिछले 4 सालों से जेल में बंद दिल्ली में अंग्रेजी के प्रोफेसर और दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों के अधिकारों के लिए लड़नेवाले एक्टिविस्ट हैनी बाबू की पत्नी जेनी रोवेना से जब यह पूछा कि उन्हें सबसे बाद में क्यों गिरफ्तार किया गया तो जेनी ने हंसते हुए कहा कि उनके पास अपना कंप्यूटर नहीं था। जैसे ही उन्होंने अपना लैपटॉप खरीदा, उसे हैक करके चंद महीनों के अंदर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इससे आप भारत के ‘डीप स्टेट’ का चरित्र समझ सकते हैं।

‘बीके-16’ की तरह ही अमेरिका में ‘शिकागो-8’ मुकदमा भी काफी प्रसिद्ध हुआ था। इसके एक ‘अभियुक्त’ का कोर्ट में दिया बयान काफी प्रसिद्ध है। उसने कहा था– “हम जेल में इसलिए नहीं हैं कि हमने कुछ गलत किया है, दरअसल हम जो हैं, उसी कारण से हम जेल में हैं।” और अल्पा शाह ने भी यहां यही साबित किया है कि ये 16 लोग इसीलिए जेल नहीं भेजे गए क्योंकि इन्होंने कुछ गलत किया है, बल्कि इन्हें इसलिए जेल भेजा गया कि ये सभी लोकतंत्र, संविधान और न्याय के प्रहरी हैं। और इसका मतलब यह भी है कि भारतीय राज्य किस तरह लोकतंत्र विरोधी, संविधान विरोधी, और सबसे बढ़कर न्याय विरोधी है।

डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के समय योजना आयोग की एक रिपोर्ट में यह कहा गया था कि छत्तीसगढ़, झारखंड और अन्य ग्रामीण/आदिवासी इलाकों में जो जमीन की लूट चल रही है, वह कोलंबस के समय अमेरिका में चल रही जमीन की लूट से भी बड़ी और क्रूर है। जब तक हम इस लूट को संबोधित नहीं करते, हम इन इलाकों में हो रही हिंसा को नहीं रोक पाएंगे।

लेकिन कांग्रेस के समय ही इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। अल्पा शाह ने बहुत विस्तार से बताया है कि 2014 के बाद भाजपानीत एनडीए सरकार ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए, इस क्षेत्र से खनिज के दोहन के लिए पूरे मध्य भारत के जंगली/ग्रामीण क्षेत्र को एक ‘मिलिट्री जोन’ यानी ‘ब्लैक होल’ में तब्दील कर दिया है। इस ब्लैक होल में बंदूक की नोंक पर आदिवासियों से जमीन खाली कराई जा रही है। बदले में आदिवासी भी कभी माओवादियों के नेतृत्व में और कभी स्वतःफूर्त तरीके से इसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं। लेकिन सरकार नहीं चाहती है कि इस ‘ब्लैक होल’ से कोई खबर बाहर जाए और उसका मुखौटा सबके सामने आ जाय।

लेकिन सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, स्टेन स्वामी, शोमा सेन, महेश रावत, आनंद तेलतुंबड़े सहित ‘बीके-16’ इस ब्लैक होल में अपनी जान जोखिम में डालकर प्रवेश करते रहे हैं, यानी फैक्ट-फाइंडिंग करते रहे है, और उसे कोर्ट तक भी पहुंचाते रहे है। और इस तरह राज्य के मुखौटे को नोंच कर फेंकते रहे है। यह इन्हीं के प्रयासों का नतीजा था कि सलवा जुडूम जैसे क्रूर हिंसक अभियान पर सुप्रीम कोर्ट को रोक लगानी पड़ी और दुनिया ने देखा कि भारतीय राज्य कैसे अपनी दुनिया की सबसे गरीब जनता के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए है, महज चंद देशी-विदेशी पूंजीपतियों की तिजोरी भरने के लिए।

अल्पा शाह यह भी बताती हैं कि ‘बीके-16’ और ऐसे ही अन्य एक्टिविस्ट/बुद्धिजीवी इस क्रूर दमन को देख मूकदर्शक नहीं हैं। यही इनमें और अन्य बुद्धिजीवियों [विशेषकर हिंदी पट्टी के ‘मुख्यधारा’ के बुद्धिजीवियों] में बुनियादी फर्क है। जब यह दमन नागालैंड, मणिपुर और कश्मीर में किया जा रहा था (है) तब भी ‘मुख्यधारा’ के बुद्धिजीवी चुप थे। आज भी चुप हैं। लेकिन ‘बीके-16’ और इन जैसे साहसी (इतालवी मार्क्सवादी दार्शनिक अंतोनिओ ग्राम्शी के शब्दों में) ‘ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी’ हिंसा-अहिंसा की आड़ में कभी भी जनता का साथ नहीं छोड़ते। चाहे वह तथाकथित बेचारी जनता हो या दुनिया का सबसे शानदार प्रतिरोध रचती मध्यभारत के जंगलों की जनता हो। और इसीलिए इन्हें गिरफ्तार किया गया है।

लेकिन विडंबना देखिये कि अल्पा शाह ने इनकी और विशेषकर इनकी गिरफ्तारी की कहानी दुनिया के सामने लाकर एक बार फिर से सत्ता के मुखौटे को नोंच कर फेंक दिया।

प्रसिद्ध पत्रकार और दस्तावेजी फिल्ममेकर जॉन पिल्जर का एक बहुत मशहूर उद्धरण है– “सरकारी सच प्रायः ताकतवर भ्रम होते हैं।” अल्पा शाह ने इस 561 पेज की किताब में पृष्ठ-दर-पृष्ठ अपने सच रूपी ‘बारूद’ से इस ताकतवर दिखाई देने वाले भ्रम की धज्जियां उड़ा दी हैं। और इस ‘बारूद’ की गंध आप इस किताब में पृष्ठ-दर-पृष्ठ महसूस कर सकते हैं।

अल्पा शाह ने किताब का अंत करते हुए लिखा है– “फासीवाद में भी जनवाद के बीज को सुरक्षित रखा जाएगा। और एक दिन निश्चित ही उन्हें फलने-फूलने का माहौल मिलेगा। हमारे सामूहिक भविष्य के लिए यही आशा के बीज हैं।”

और इस किताब को पढ़कर लगता है कि भविष्य के लिए उम्मीद के बीज को बचाने में ‘बीके-16’ और इन जैसे अन्य एक्टिविस्टों/बुद्धिजीवियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। यहीं पर ब्रतोल्त ब्रेख्त बरबस याद आ जाते हैं, जिन्होंने लिखा था– 

क्या अंधेरे दौर में भी गीत गाये जाएंगे
हां, अंधेरे दौर के ही गीत गाये जाएंगे।

अल्पा शाह की यह शानदार और महत्वपूर्ण किताब इस अंधेरे दौर का गीत ही है, लेकिन इसी गीत में कल की सुबह के संकेत भी मौजूद हैं।

समीक्षित पुस्तक : दी इन्कार्सरेशंस : बीके-16 एंड दी सर्च फॉर डेमोक्रेसी इन इंडिया
लेखिका : अल्पा शाह
प्रकाशक : हार्पर कोलिन्स
मूल्य : 699/- रुपए

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