अग्नि आलोक
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जीवन का मूल उद्देशय अंतश्चेतना का विकास 

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         डॉ. विकास मानव 

      बहुत्व के बीच में एकत्व का होना सृष्टि का नियम है। हम लोग मनुष्य होते हुए आपस में अलग हैं, लेकिन मनुष्य जाति के अंश के रूप में हम सब एक हैं। जब हम व्यक्ति विशेष होते हैं तो हम अलग-अलग होते हैं। पुरुष होने से हम स्त्री से अलग हैं पर मनुष्य होने के नाते  स्त्री-पुरुष एक हैं।  मनुष्य होने के नाते हम जीव जंतुओं से अलग हैं। किन्तु प्राणी होने के नाते स्त्री-पुरुष-जीव-जंतु–सभी समान हैं और “एक सत्ता” के नाते हमारा सबका विराट विश्व के साथ एकत्व है। भगवान ही वह विराट सत्ता है। वह ही इस जगत-प्रपंच के रूप में प्रकट है।

*चेतना- विकास और मोक्ष :*

       चेतना का अस्तित्व मन के पार है। मनसातीत और भावातीत हो जाने पर ही चेतना की अनुभूति होती है। जिन्हें विज्ञानमय जगत् और विज्ञानमय शरीर कहते हैं, वे चेतना-राज्य और चेतना-शरीर के ही पर्याय हैं। भौतिक जगत् में आत्मा स्थूल शरीर में रहती है, इसी प्रकार सूक्ष्मलोक में सूक्ष्मशरीर में और मनोमय शरीर से मनोमय लोक में रहती है। विज्ञानमय जगत् में केवल चेतना का साम्राज्य है, इसलिए आत्मा इस जगत् में चेतन शरीर (विज्ञानमय शरीर) में रहती है। इस जगत् में न है प्राण का अस्तित्व और न तो है मन का अस्तित्व ही। इसीलिये यहाँ न श्वास है, न भाव है, न विचार है, न रूप है और न तो है कोई रंग ही। लेकिन फिर भी सब कुछ है।

       तात्पर्य यह कि भाव में अभाव और अभाव में भाव है।कितना शान्त, कितना निर्विकार, कितना मोहक, कितना सुन्दर, कितना आकर्षक था और कितनी अद्भुत छटा से भरा हुआ था वह वैश्वानर लोक कि शब्दों में नहीं बतला सकता मैं !–चारों ओर वातावरण में शुभ्र् प्रकाश बिखरा हुआ था और बिखरी हुई थी घोर निस्तब्धता। दिव्य कैवल्य ने जैसा कि कहा था–भाव में अभाव और अभाव में भाव–उसीकी अनुभूति कर रहा था मैं उस समय और उस स्थिति में।

      सर्व प्रथम यह बतला देना आवश्यक है कि वैश्वानर जगत् तो है ही उच्चकोटि की दिव्य आत्माओं का निवास स्थान, लेकिन विज्ञानमय जगत् एक दृष्टि से अपनी विशिष्टता रखता है और वह विशिष्टता यह कि भूलोक की योग-आत्माएं तथा दिव्य-आत्माएँ और साथ ही पुण्यात्माएं तो अपना यहाँ कालक्षेम करती ही हैं, इसके अतिरिक्त अन्य लोकों की उच्च आत्माएं भी वहांj आती हैं और निवास करती हैं इसलिए कि विज्ञानमय जगत् का सम्पर्क विश्व ब्रह्माण्ड के अंतर्गत जितने लोक-लोकान्तर और ग्रह-नक्षत्र हैं, उन सबसे है।

      जिन उच्च लोकों की आत्माओं को भौतिक जगत् में अवतरित होना होता है, वे सर्व प्रथम विज्ञानमय जगत् में आती हैं। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि चेतना के कई स्तर हैं। सभी लोकों की चेतना समान नहीं, भिन्न-भिन्न स्तर की है। स्थूल शरीर से लेकर आनंदमय शरीर तक चेतना का स्तर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतम होता जाता है। चेतना सदैव शरीर की सीमा में रहती है, भले ही पांचों शरीरों में कोई भी शरीर क्यों न हो। आनंदमय शरीर के बाद है–निर्वाण शरीर। इस शरीर में चेतना का भी अस्तित्व नहीं है। यदि अस्तित्व है तो केवल आत्मा का। 

     इसीलिये इसे योग की भाषा में आत्मशरीर कहते हैं। इसके बाद किसी भी प्रकार का शरीर नहीं है। शरीर का अभाव है।

      निर्वाण शरीर में निवास करने वाली आत्मा को दिव्यात्मा कहते हैं। निर्वाण शरीर में रहने वाली आत्मा पिछले किसी भी शरीर को स्वीकार नहीं करती। निर्वाण शरीर का यथासमय त्याग होने पर संपूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड के सभी प्रकार के जागतिक और शारीरिक बंधनों से मुक्त हो जाती है वह हमेशा-हमेशा के लिए और इसीलिए उसे ‘मुक्तात्मा’ कहते हैं। लेकिन फिर भी विश्व ब्रह्माण्ड में कहीं न कहीं उसका अस्तित्व बना रहता है।

यदि किसी वस्तु का अस्तित्व है तो उस अस्तित्व को आधार भी चाहिए, क्योंकि बिना आधार के अस्तित्व रहता ही नहीं, भले ही वह आधार कोई भी हो। इस दृष्टि से मुक्तात्मा के अस्तित्व का आधार होता है– संपूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड। मुक्तावस्था में आत्मा आधार रूप में जिस काया में रहती है, उसे ही ‘ब्रह्माण्ड काया’ (cosmic body) कहते हैं। 

     यदि काया है तो उसका क्षीण होना भी अनिवार्य है। तो एक समय ऐसा भी आता है जब मुक्तात्मा से ब्रह्माण्ड काया भी छूट जाती है। इतना ही नहीं इस समस्त विश्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व शून्य में समा जाता है। वही शून्य परम ब्रह्म की निराकार अवस्था है। इसी अवस्था को ‘परम निर्वाण’, ‘परम मोक्ष’ की अवस्था कहते हैं। इसी अवस्था में आत्मा का अस्तित्व सदैव के लिए समाप्त हो जाता है। फिर कुछ भी शेष नहीं रहता।

       विज्ञानमय जगत् में चार प्रकार के लोग अन्य लोक-लोकान्तरों की आत्मा को किसी कार्यविशेष् के लिए, ईश्वर् से प्रेरित होकर भौतिक जगत् में आना होता है  तो वह आत्मा सर्वप्रथम विज्ञानमय जगत् में वहाँ के स्तर की चेतना के अनुसार विज्ञानमय शरीर ग्रहण करती है और उसके बाद क्रमशः मनोमय शरीर और सूक्ष्मशरीर धारण करती है। फिर अन्त में सुयोग्य माता-पिता द्वारा जन्म लेती है स्थूल शरीर में। किसी भी लोक की, किसी भी प्रकार की आत्मा क्यों न हो, उसे स्थूल शरीर तभी उपलब्ध् होगा जब उसके पास भौतिक स्तर की चेतना होगी, मन होगा और होगा प्राण और यही कारण है कि इन तीनों को प्राप्त करने के लिए आत्मा को विज्ञानमय शरीर, मनोमय शरीर और प्राणमय शरीर यानि सूक्ष्मशरीर क्रमशः स्वीकार करना पड़ता है और वह फिर जन्म लेती है मानव शरीर में। उस अवस्था में प्रकृति के नियामानुसार वे सभी शरीर बीज रूप में जिन्हें ‘कोश’ कहते हैं, स्थूल शरीर में विद्यमान रहते हैं। लेकिन स्थूल शरीर त्यागने के बाद वह आत्मा सीधे अपने निज लोक को चली जाती है। 

      उस अवस्था में उनके लोक का शरीर रहता है वाहक रूप में। जितने भी लोक हैं, उन सभीके अपने-अपने शरीर होते हैं जिनका निर्माण उन्हीं लोकों के तत्वों से हुआ रहता है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि ऐसी आत्मायें अपने निज शरीर द्वारा अपने लोक में गमन करती हैं तब उस समय स्थूल शरीर के साथ उसका बीज जल कर भस्म हो जाता है और उसी के साथ भस्म हो जाता है  सूक्ष्मशरीर और मनोमय शरीर का बीज भी। शेष रह जाती है केवल विज्ञानमय शरीर की बीज- चेतना जो अपने आप में भौतिक स्तर की होती है और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की सीमा के भीतर विद्यमान रहती है न जाने कबतक।

       उसका अस्तित्व कब नष्ट होगा–यह बतलाया नहीं जा सकता और यह भी बतलाया नहीं जा सकता कि इस प्रकार की और इस स्तर की कितनी चेतनाएं भटक रही होंगी पृथ्वी के वायुमण्डल में।

योग का एक परम लक्ष्य है–चेतना का विस्तार करना। जिस योगी की चेतना का विस्तार हुआ रहता है, उसे जिस लोक से संपर्क स्थापित करने की आवश्यकता पड़ती है, उसी अभौतिक स्तर की भटकती हुई चेतना से अपनी चेतना का सम्बन्ध जोड़ते हैं और उस लोक में प्रविष्ट हो जाते हैं जिस लोक का ज्ञान प्राप्त करना होता है उन्हें। योग की अत्यन्त रहस्यमयी क्रिया है यह। विरला ही कोई योगी इस दुर्लभ क्रिया से परिचित होता है।

       उनकी अपनी मण्डली थी और उस मण्डली में अनेक उच्चकोटि के विद्वान् और ज्ञान-विज्ञान मर्मज्ञ थे। वहां उपस्थित सभी लोगों के शरीर पारदर्शी और प्रकाशवान थे। विज्ञानमय शरीर इसी प्रकार का होता है। मेरा शरीर भी वैसा ही था। महात्मा वेदश्री का शरीर सर्वाधिक तेजोमय था। गहरी शान्ति थी उनके दिव्य मुख मण्डल पर। विज्ञानमय जगत् में मुझे चार प्रकार के लोग दिखाई दिये–1-पहले वे जो विज्ञानमय जगत् के स्थायी निवासी हैं, 2–दूसरे वे जो ऊपर के लोकों से आये हुए होते हैं, 3–तीसरे वे जो अपनी साधना के बल से वहां पहुंचकर निवास कर रहे हैं और 4–चौथे वे जो मेरी तरह हैं जिनका स्थूल शरीर तो स्थूल जगत् में साधना रत है और विज्ञानमय शरीर के माध्यम से और विज्ञानमय जगत् के महात्माओं की मण्डली के संपर्क में आकर अस्थायी रूप से पहुँचते हैं।

         सार्वजनीन धर्म का यह अर्थ है कि किसी मत विशेष में संसार के सभी लोग विश्वास करें, उसके अनुसार चलें तो यह सर्वथा असंभव है। ऐसा समय कभी नहीं आएगा कि सब लोगों का मुख एक जैसा हो जाय, रंग एक जैसा हो जाय। ऐसा भी नहीं हो सकता कि सभी एक ही पौराणिक तथ्य में विश्वास करने लगें। यह भी नहीं हो सकता कि सभी एक ही अनुष्ठान-पद्धति को मान लें और उसे अपना लें।

       यदि कभी ऐसा हो भी जाय तो सृष्टि लुप्त हो जायेगी। कारण कि “विविधता” ही जीवन का मूल है और वैचित्र्य ही उसकी विशेषता है।”आखिर हम लोगों का आकार किसने बनाया?विषमता ने। सम्पूर्ण साम्यभाव होने से सम्पूर्ण विनाश निश्चित होता है। प्रकृति की साम्यावस्था में ही प्रलय हो जाती है। 

      यदि हम सब लोग एक प्रकार से विचार करेंगे, तो विचारों में विविधता नहीं आएगी। विविधता न होने से सजीवता नहीं रहेगी। हम निर्जीव हो जायेंगे, निष्क्रिय हो जायेंगे, हमारे मन में कोई भाव नहीं उठेगा। इसलिए यह भिन्नता, यह विषमता ही हमारी उन्नति का प्राण है। हमारे चिंतन की सृष्टा है। जिस तरह हमने स्वाभाविक रूप से एकत्व को स्वीकार किया है, उसी प्रकार यह भिन्नता- विषमता भी स्वीकार करनी पड़ेगी। जैसे हम भिन्न-भिन्न प्रकार के वर्तन लेकर जल भर लें, कोई कटोरी लाये, कोई लोटा लाये, कोई घड़ा लाये, तो कोई बाल्टी लाये। जल भरने के बाद हम देखते हैं कि प्रत्येक वर्तन के जल ने स्वाभाविक रूप से अपने- अपने वर्तन का आकर ग्रहण कर लिया है। परंतु वर्तन में वही एक जल है जो सबके पास है।

      मानव धर्म के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है। हमारे मन भी उन वर्तनों  के समान हैं। हम सब ईश्वर को पाने का प्रयास कर रहे हैं। वर्तनों में जो जल भरा है ,ईश्वर उसी जल के समान है। प्रत्येक वर्तन में भगवान् का दर्शन उस वर्तन के आकार के अनुसार होता है। फिर भी सब जगह तत्व एक ही है। वही घट-घट में विराजमान है।

       प्रश्न यह है कि क्या कथित धर्म का समन्वय हो सकता है? इसका कोई उपाय है? सभी धर्म-मत सत्य हैं। भारत, चीन, जापान, तिब्बत, यूरोप, अमेरिका–सभी  जगह सर्वसम्मत एक धर्म गठित करने का प्रयास एक बार नहीं, अनेक बार हो चुका  है। पर हर बार सभी प्रयास विफल होते रहे हैं। संसार में हज़ारों प्रकार के मन, विचार और संस्कारों के लोग विद्यमान हैं। उन सबको एक करना असंभव है। ऐसे लोग चार श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं।     पहले हैं–कर्मठ व्यक्ति जो कर्म के इच्छुक हैं। उनका उद्देश्य होता है–काम करना, अस्पताल बनवाना, सत्कार्य करना, रास्ता बताना आदि।  दूसरे हैं–भावुक व्यक्ति जो उदात्त और ‘सत्यम, शिवम्, सुंदरम’ को अंतःकरण से प्रेम करते हैं, वे सौंदर्य की चिंता करते हैं–प्रकृति के मनोरम दृश्यों के उपभोग के लिए। 

      वे महापुरुषों, अवतारी पुरुषों का आदर करते हैं, उनकी पूजा करते हैं, प्रेममय भगवान् की पूजा करते है, प्रेम और भक्ति करते हैं। तीसरे हैं–योगमार्गी व्यक्ति या ज्ञानमार्गी व्यक्ति जो अपना आत्म-विश्लेषण करना चाहते हैं। मानव-मन की चेष्टाओं को जानना चाहते हैं। मन में कौन सी शक्ति कार्य कर रही है–उसे जानने-पहचानने और उसे वश में करने के उपायों कोे खोजना–इसी उद्देश्य के लिये उत्सुक रहते हैं।

      भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग का समन्वय–सार्वभौमिक धर्म हो सकता है। योग के द्वारा उस आदर्श धर्म को प्राप्त किया जा सकता है। कार्य करने वाले व्यक्ति के लिए, कर्मी के लिए वह मनुष्य के साथ मनुष्य का योग है। योगी के लिए वह जीवात्मा-परमात्मा का योग है। भक्त के लिए अपने साथ प्रेममय भगवान् का योग है और ज्ञानी के लिए बहुत्व के बीच एकत्व का योग है।

       जो कर्म के माध्यम से इस योग का साधन करते हैं–उन्हें ‘कर्मयोगी’ कहते हैं। जो भगवान के भीतर इस योग का साधन करते हैं–उन्हें ‘भक्तयोगी’ कहते हैं। जो रहस्यवाद के द्वारा इस योग की प्राप्ति करते हैं–उन्हें ‘राजयोगी’ कहते हैं और जो ज्ञान-विचार के बीच इस योग का साधन करते हैं–उन्हें ‘ज्ञानयोगी’ कहते हैं। एक शक्ति दूसरी शक्ति से भिन्न नहीं है। दोनों ही एक शक्ति के रूप हैं। एक शक्ति दूसरी शक्ति की विकसित अवस्था हो सकती है, भिन्न अवस्था नहीं। जिस प्रकार वृद्ध-बालक विरोधी नहीं हैं, बल्कि उसकी  परणति है, उसी प्रकार शक्ति-शक्ति में भेद नहीं है।        

      उसमें भेद  करना अज्ञानता है। निम्न श्रेणी की शक्ति और उच्च श्रेणी की शक्ति में भेद करना भारी भूल है।हम में से प्रत्येक किसी न किसी प्रकार का कार्य कर रहा है। लेकिन हम लोगों में से अधिकतर लोग ऐसे हैं जो अपनी शक्ति का दुरूपयोग करते हैं। इसका कारण यह है कि हमें कर्म का रहस्य नहीं पता। कर्मयोग इस रहस्य को समझाता है और कहाँ किस भाव से कार्य करना है–इसकी शिक्षा देता है।

यहाँ एक आपत्ति है जो कर्म के विरुद्ध जाती है। वह आपत्ति है– “दुःख या सुख का कारण कर्म है।” लेकिन यह बात इस तरह से सच नहीं है।     

       दुःख-सुख का कारण कर्म नहीं, बल्कि कारण है–“कर्मफल के प्रति  आसक्ति” है। जैसे कोई व्यक्ति काम करना चाहता है, वह किसी का उपकार करना चाहता है तो अक्सर देखने में आता है कि जिस व्यक्ति की उसने सहायता की, वह मौका मिलते ही सारे उपकारों को भूल कर उससे शत्रुता करने में संकोच नहीं करता। परिणाम यह होता है कि उस व्यक्ति को जिसने उपकार किया है, असीम कष्ट होता है। ऐसी अनेक घटनाओं के कारण मनुष्य कर्म से विरत हो जाता है और इन दुःखों का भय मनुष्य के कर्म की ‘अच्छी भावना’ को नष्ट कर देता है। 

      उसके मन में उसके लिए नकारात्मकता आ जाती है। किसकी सहायता की जा रही है या किस कारण से की जा रही है आदि बातों पर ध्यान दिए बिना “अनासक्त भाव से केवल कर्म करने के लिए कर्म करना”–यही सही मायने में कर्मयोग है।

कर्मयोगी कर्म करते हैं। यह उनका स्वभाव है, उद्देश्य नहीं। वे संसार को देते हैं, कुछ लेते नहीं और न ही लेने की आशा रखते हैं। वे दान का प्रतिदान नही चाहते। इसी कारण उन्हें कोई आसक्ति नहीं होती। आसक्ति नहीं ,तो दुःख नहीं। दुःख आसक्ति की ही परिणति है, उसका प्रतिफल है।कर्मयोग के बाद आता है -भक्तियोग। यह भावुक और प्रेमी लोगों के लिए है। भक्त को क्या चाहिए?– भगवान का प्रेम। भगवान की भक्ति। 

      इसमें वे धर्म के क्रिया-कलापों का सहारा लेते हैं। फूल, धूप, दीप, मंदिर, मूर्ति, माला व आसन आदि विभिन्न प्रकार की वस्तुओं से वे भगवान से सम्बन्ध जोड़ते हैं। इन वस्तुओं और अनुष्ठानों से अनेक व्यक्तियों ने आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किया है। 

भावुक लोगों को सत्य की नीरस परिभाषा पसंद नहीं। भगवान उनके लिए स्पर्श करने, रखने, उठाने की वस्तु हैं। उन्हें वे अनुभव करते हैं, उनसे बात करते हैं, देखते हैं, उनके सामने रोते हैं, हँसते हैं, रूठते हैं, मनाते हैं। भक्तियोग हमें निस्वार्थभाव से प्रेम व भक्ति की शिक्षा देता है। 

      संसार, पुत्र, धन, वैभव पाने की कामना न रहना–केवल भगवान की कामना रखना, उनसे प्रेम करना या जो शुभ और मंगलमय हो–उससे प्रेम करना–यही भक्तियोग का रहस्य है। कर्मयोग, भक्तियोग के बाद आता है–ज्ञानयोग। जो संसार की तुच्छ वस्तुओं से संतुष्ट नहीं होते, जो इस दृश्य जगत के रहस्यों को जान कर उससे परे जाना चाहते हैं, और जो प्रतिदिन के खाना-पीना, उठना-सोना-जागना आदि से परे चले जाना चाहते हैं–उनकी दृष्टि में वे सत्यसिन्धु में केवल एक बून्द हैं। उनकी आत्मा उस परमतत्व में डूब जाना चाहती है–जो सबसे परे होते हुए भी सबमें विद्यमान है, उस विराट के साथ एकाकार हो जाना चाहती है। वे ही ज्ञानी हैं। 

    सुख-दुःख–सब मन की अवस्थाएं हैं। वह सब मिथ्या है, उसका बोध भी मिथ्या है। सब स्वप्नमात्र है। यह संसार भ्रम-जाल है। 

       मनुष्य तब वास्तविक ज्ञान के निकट पहुँचने लगता है। जितना वह ज्ञान के निकट पहुँचता जाता है ,उतना ही वह वास्तविकता समझने लगता है। उसके “मैं” का लय होता जाता है। रह जाता है केवल वह। “वह” तुम्ही हो, तुम “वही” हो– “तत्वमसि” का रहस्य खुल जाता है उसके समक्ष। ज्ञानयोग इसी रहस्य का पर्दाफाश करता है। अंत में सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण बात यह है कि इन सब विभिन्न योगोँ को हमें कार्यरूप में बदलना होगा। केवल कल्पना से, केवल विचार से कुछ नहीं होने वाला है।– “श्रोतव्यो, मन्तव्यो निधिध्यासितव्याः।”     

       अर्थात्–पहले उसके सम्बन्ध में सुनना पड़ेगा, फिर सुन कर चिंतन-मनन करना होगा ,समझना होगा और उसके बाद उनकी उपलब्धि करनी पड़ेगी। तब धर्म हमारे लिए कुछ  धारणा, कुछ कल्पना या कुछ मत नहीं रहेगा। हमारे भीतर वह आत्मसात हो जायेगा। वास्तविक धर्म कभी परिवर्तित नहीं होता। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, उसका साक्षात्कार करना और अंत में उसी में तदाकार  हो जाना–यही धर्म है। यही धर्म का चरम लक्ष्य भी है।

      यह ध्रुव सत्य है कि वास्तविक तत्त्व ज्ञान स्वात्मनिष्ठ है। इसे जानने का प्रयत्न होना या करना चाहिए। वे लोग मूढ़ ही कह जा सकते है जो शास्त्रों को अनन्त विस्तार मे ही अपने को खपा देते है और स्वात्मनिष्ट साक्षात्कार से वंचित रह जाते है।

यह कथा प्रसिद्ध है कि गो पालक गोष्ठी मे बँधी बकरी को कातर भाव से गाँव के कुओं मे खोज रहा था इससे उसकी बुद्धि की बलिहारी ही माना गया था। वैयाकरण विद्वन्मन शाब्दबोध ये शास्त्रार्थ मे ही रह जाते है और तब तक प्राण पखेरू के पंख परलोक के लिए उडान भरने लग जाते है। 

        यह निश्चय है कि संसार के मोह नाश से शब्दकोश सर्वथा असमर्थ रहता है ।यह सोचने वाली बात है कि दीपक ये विषय मे वार्तालाप करने से क्या अन्धकार विवर्तन सम्भव है।अर्थात कभी नही. प्रज्ञा से ज्ञान होता है। प्रज्ञाहीन मनुष्य कि शास्त्र स्वाध्याय ठीक उसी तरह कि काम है जैसे जन्मान्ध या आंख कि अंन्धा दर्पण मे प्रतिबिम्ब का दर्शन करना चाहता है । वस्तुत शास्त्र दर्पण है जिनकी गहराई से पैठ कर तत्व का साक्षात्कार कर लिया जाता है।

      इसके लिये प्रज्ञा आवश्यक है शास्त्र भी तत्त्वज्ञान को कारण माने जा सकते है, किन्तु सबके लिये नही प्रज्ञावान को ही यह सौभाग्य मिल सकता है।                

तत्त्व क्या है ?ये विवाद का विषय नही। यह मात्र अनुभूति का विषय है यह आगे आगे है या पीछे मुडने पर प्राप्य है अथवा अगल बगल ही है अथवा ऐसा है या वैसा है।

       सामान्य पाठक शास्त्रों को पढते हुए इसी चक्कर मे पडा रहता है कि यही ज्ञान है यही ज्ञेय है यह वह बात वह शास्त्रज्ञों से सुनना भी चाहता है । किन्तु वह यह नही जानता है कि यदि उसकी हजारों वर्ष कि भी आयु निर्धारित कर दी जाय तो शास्त्रों के विस्तार या अन्त  उसे नही ज्ञात हो सकता। इसलिए शास्त्र विस्तार की चिन्ता छोड तत्त्वसाक्षात्कार कि बात सोचनी चाहिए। 

    वेद आदि अनन्त शास्त्र और उधर पाठक वर्ग को आयु की  स्वल्प सीमा साथ ही जीवन के करोड़ो विध्न. इसलिए शास्त्र विस्तार का पार पाने की चाह की अपेक्षा सार रहस्य की जानकारी प्राप्त मे लगना चाहिए। उसी तरह जैसे हंस जल से दुध का अविष्कार कर लेता है। यह नीरक्षीरविवेक कहलाता है।

      शास्त्रों का स्वाध्याय करे उसमे बतायी विधियों या अभ्यास भी करें वेदाचार वैष्णवाचार शैवाचार और दक्षिणाचार उत्तम पशुभाव साधक से संबंध रखते हैं वीर साधक से वामाचार और सिद्धांताचार संबद्ध होते हैं और दिव्यभाव साधक का संबंध कुलाचार से होता है सनातन हिंदू जाति में धर्म ज्ञान भक्ति देव देवी शास्त्र साधना साध्य और जाति आचार मुलक मानी गई है तंत्र शास्त्रों में सातो आचारों के स्वरूप का विशुद्ध वर्णन मिलता है।

नित्यतन्त्र मे वेदाचार की ही भांति संयम नियम का पालन करते हुए ब्रह्मचर्य व्रत रहना हिंसा की निंदा कुटिलता से दुर रहना  भगवान विष्णु की अर्चना करना हो तभी कर्मों को समर्पित कर देना तथा संपूर्ण जगत की को विष्णुमय समझना यही वैष्णवांचार है।

     नित्यतन्त्र मे शैवाचार वेदाचार की भांति शिव और शक्ति की आराधना करना शैवाचार है इसमें एक विशेषता यह है कि इसमें बलिदान भी किया जाता है।

     नित्यतन्त्र मे दक्षिणाचार दक्षिणामूर्ति का आश्रयण करने से इसे दक्षिणाचार कहा गया है यह आचार वीरभाव और दिव्यभाव संपन्न साधको के लिए परिवर्तित किया गया है भगवती परमेश्वरी की पूजा वेदाचार क्रम से की जाती है विजयदशमी की रात में इस आचार को ग्रहण करने अनन्यधी होकर मूल मंत्र का जप किया जाता है।

      भावरहस्य मे वामाचार वीर भाव में स्थित साधक के लिए दक्षिणा चार और समाचार दोनों विधियो से साधना का विधान है स्वधर्म नीरत साधक पंचतत्वो(पंचमकारो) से भगवती पर देवता की अर्चना करे अष्टपाशों से रहित साधक साक्षात शिव बनकर‌ परम प्रकृति भगवती शक्ति की आराधना करें।

     सदा तन मन से पवित्र होकर महामंत्र की साधना करें वीरभाव से दिव्यभाव में प्रविष्ट होने पर साधक सिद्धांताचार्य में तत्पर हो और किस कौलाचार का ग्रहण करें अपने को देवता मानकर सूक्ष्मतत्व की भावना मानसिक से पूजा करें।

      भावारहस्य मे सिद्धान्ताचार शम दम युक्त होकर योगयुक्त साधक अपने में परमात्मभाव रखकर योगभाव से जब साधना करता है तो उसकी वह साधना पद्धति सिद्धांताचार कहलाती है।

      भावरहस्य मे कुलाचार जिस प्रकार शिशु सभी कर्मों को भूलकर माता के स्तनों का पान करता है उसी प्रकार साधक ज्ञानमार्ग में प्रविष्ट होकर सतोगुण से समविन्त होकर आचारविहीन होने पर भी ब्रह्मभाव में निरत रहता है वह पूर्णानंद परायण की वह साधना पद्धति कौलाचार कहलाती है।

      कुल कौल कौलाचार का भी रहस्य है कौलार्चन दीपिका मे कौल रहस्य को अत्यंत गोपनीय बताया गया है यह शाम्भवी विधा कुलवधू के समान छिपी रहती है श्यामा रहस्य में कौल का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि अंदर  से शाक्त बाहर से शैव और सभा समाज में वैष्णव की भाति आचरण करने वाला नाना वेशधारी साधक कौल है।

      भाव चूड़ामणि कौल का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि कीचड़ और चंदन में पुत्र और शत्रु में श्मशान और देवगृह में कंचन और कंकड़ में जो समान भाव रखता है वह कौल है तंत्र शास्त्र की भाषा संकेतित होने के कारण सर्वसाधारण के लिए उसका अर्थबोध दुरूह होता है वस्तुत कुल शब्द का अर्थ शरीर स्थित स्वस्थ चक्रों में से एक चक्र मूलाधार है कुल से कु शब्द पृथ्वीतत्त्व का बोधक है. पृथ्वीतत्त्वमें लीन होना कुल है कुल शब्द ही आधार मूल चक्र है कुल को त्रिकोण या योनि समझना चाहिए वह योनि ही मातृका है और वर्णात्मिका परावाक अधिष्ठित शक्ति मातृयोनि‌ है यह शब्द परिभाषिक है जो साधक इस मातृ योनि से कुंण्डलिनी शक्ति को मणिपुर से ऊपर उठाता हुआ उत्तरोत्तर सहस्त्रार चक्र तक उठाकर प्रत्येक चक्र में कुंण्डलिनी के साथ जीवात्मा की सामरसत्ता स्थापित कर आनंद से का उपयोग करता है वही सादर कौल है और उसकी पद्धति कौलाचारी है।

        तंत्र शास्त्र में एक संप्रदाय में वामाचार को ही कुलाचार कहा जाता है वाममार्गी अपनी बाह्य पूजा में पंचतत्व मध मांस मत्स्य मुद्रा और मैथुन का प्रयोग करते हैं वह इस प्रकार लौकिक एवं स्थुल पूजा द्रव्य अपने इष्ट देव को समर्पित कर अमृत पद पाने का विश्वास रखते हैं।

      कुलाचार को वेद विरुद्ध मानकर द्विजातियों के लिए उसका निषेध किया गया है।

      समयाचार और कौलाचार मे भी भेद है निगमागम द्वारा निःसृत भारतीय साधना और संस्कृति की विशेषता यह है कि जन जन की भिन्न-भिन्न रूचियों और प्रवृत्तियों को दृष्टिगत रखते हुए हर व्यक्ति के रूति अनुसार श्रेय और प्रेय प्राप्त करने वाली अनेक रूप साधना पद्धतियां आविष्कृत की गई है

ज्ञानार्वण तंत्र में शक्ति की साधना करने वाले साधकों के लिए कुलाचार मिथ्याचार और समाचार तीन आचार  बताए गए हैं यहां पर समय शब्द की तात्विक व्यवस्था कर देना आवश्यक है समय शब्द अनेकार्थवाची है।

*अंतश्चेतना जागरण और विकास :*

     अंतश्चेतना जागरण करने के लिए अष्टांग योग का पालन करना आवश्यक है l

आप चाहे कितने भी वर्षों तक साधना क्यों ना कर लो यदि आप अपने अंतश्चेतना को जागरण नहीं करते हो , अष्टांग योग का पालन नहीं करते हैं तो किसी भी कीमत पर साधना में किसी प्रकार की सफलता प्राप्त नहीं होगी। अब तक मैंने देखा लोग गुरु दीक्षा लेते हैं और बिना अष्टांग योग का पालन किए साधना और मंत्र जाप प्रारंभ कर देते हैं। 

      मंत्र की पुस्तक हजारों मार्केट में मिलती है वहां से कोई भी पुस्तक खरीद लेते हैं और मंत्र देखकर साधना प्रारंभ कर देते हैं जबकि इससे किसी भी प्रकार का लाभ प्राप्त होने वाला नहीं है।

    मानव के अंदर दो प्रकार की चेतना होती है एक अंतश्चेतना दूसरी बाहरी चेतना।

बाहरी चेतना गलत सही का चुनाव नहीं करती। व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए जो भी करता है वह उसे अच्छा लगता है। व्यक्ति जो भी झूठ , छल , धोखा , फरेब आदि कार्य करता है वह बाहरी चेतना के प्रेरणा से करता है।

जबकि अंतश्चेतना सर्वथा सक्रिय , शुद्ध एवं निर्मल बनी रहती है। अंतश्चेतना मानव की मूल शक्ति है जो सर्वथा शुद्ध , निष्पाप एवं निर्मुक्त होती है।

      अंतश्चेतना की शक्ति अद्भुत होती है और इसके माध्यम से वे सभी कार्य संभव है जो प्रत्यक्ष असंभव या कठिन लगते हैं।

     इंसान जब भी कोई गलत कार्य करता है तो उसकी अंतश्चेतना अवश्य कहती है कि यह गलत है परंतु व्यक्ति उसको नकार कर बाहरी चेतना के प्रेरणा से गलत कार्य करता है। किसी भी व्यक्ति के अंदर अंतश्चेतना कभी भी गलत कार्य करने की प्रेरणा नहीं देती। किसी व्यक्ति में अंतश्चेतना अधिक मात्रा में जागृत रहती है किसी में कम मात्रा में जागृत करती है। जिसके अंदर अधिक मात्रा में जागृत रहती है वह कोई भी गलत कार्य नहीं करते हैं। जब अंतश्चेतना और बाहरी चेतना एक हो जाती है या बाहरी चेतना से अंतश्चेतना का प्रभाव बहुत ज्यादा हो जाता है तब मानव किसी प्रकार का कोई भी गलत कार्य नहीं करता क्योंकि वह जो भी कार्य करता है अंतश्चेतना के प्रेरणा से करता है।

    अतः हमारे साधना क्षेत्र की आधारभूत अंतश्चेतना ही है , इसके उत्थान से और उपयोग से मंत्र में चैतन्यता दे सकते हैं।

      अंतश्चेतना को जागरण करने के लिए अष्टांग योग का पालन करना आवश्यक है। बिना अष्टांग योग के पालन किए आप कभी भी साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हो। अष्टांग योग का मतलब योगासन नहीं , योग का मतलब जोड़ना होता है। जिस क्रिया के माध्यम से हम अपने आत्मा को परमात्मा से जोड़ते हैं अंतश्चेतना को बाहरी चेतना से जोड़ते हैं उसे योग कहते हैं , जिसे 8 भागों में बांटा गया है। इसलिए इसे अष्टांग योग कहते हैं जो निम्न है :

1-यम , 2 – नियम , 3 – आसन , 4 – प्राणायाम , 5 – प्रत्याहार , 6 – धारणा , 7 – ध्यान , 8 – समाधि.

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