श्रावण देवरे
क्रांति करनी हो या प्रतिक्रांति, दोनों के लिए समाज में ध्रुवीकरण अनिवार्य होता है। वर्गीय समाज में वर्गीय ध्रुवीकरण और जातीय समाज में जातीय ध्रुवीकरण। वर्गीय समाज में पूंजीपति पीड़ित गरीब वर्ग का हितैषी या मसीहा बनकर सामने आता है। जमींदारों की सामंतशाही में किसान-खेत मजदूर पर जो उनका निरंतर क्रूर शोषण, उत्पीड़न और अत्याचार जारी रहता है, उससे छुटकारा दिलाने का काम पूंजीपति-उद्योगपति वर्ग करता रहता है।
इसलिए डॉ. आंबेडकर ने अछूतों से गांव छोड़ शहर चलने का आह्वान किया था। व्यवहार के स्तर पर गांव के खेतों में पशुतुल्य एवं असहनीय सामंती गुलामी की अपेक्षा शहरों के कारखानों की पूंजीवादी गुलामी सहनीय लगना स्वाभाविक ही है।
पूंजीवाद के इस प्राथमिक चरण में पूंजीवादी-उद्योगपति प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और मानवतावादी रूप में होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे पूंजीवाद का विकास होता है, वैसे-वैसे पूंजीवाद की जानलेवा घातक प्रतिस्पर्द्धा, और मुनाफाखोरी बढ़ती जाती है तथा श्रमिकों का शोषण तीव्र व असहनीय हो जाता है। मित्र लगने वाला कारखाना मालिक शत्रु प्रतीत होने लगता है। इससे मजदूर-विरोधी पूंजीवादी ध्रुवीकरण का आगाज होता है। यही वर्गीय संघर्ष आगे चलकर कम्युनिस्ट-मार्क्सवादी अवधारणा का रूप अख्तियार करता है और सामाजिक विकास के दूसरे चरण में पहुंचता है।
आइए, इसे ओबीसी के विरुद्ध मराठों के जातीय संघर्ष के संदर्भ में देखते हैं। मराठा शुरू में एक प्रगतिशील, सत्यशोधक-फुलेवादी मुखौटा पहनकर ही आगे आए। वर्ष 1930 में मराठों ने यह प्रगतिशील मुखौटा पहना था, जिसका उल्लेख मैंने ‘मराठा समाज का ओबीसीकरण और जाति समाप्ति की नीति’ (मराठी) और ‘ओबीसी-मराठा-बहुजन : मोर्चे प्रतिमोर्चे और प्रगतिशील महाराष्ट्र की प्रगति’ (मराठी) पुस्तक में की है।
खैर, इतिहास पर नजर डालें तो यह निर्विवादित सत्य है कि 1925 से लेकर 1930 के तत्कालीन राजनीतिक युद्ध में मराठा ब्राह्मणों से जीत नहीं सकते थे। चूंकि बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में कई ब्राह्मणों ने स्वतंत्रता आंदोलन में घुसपैठ की, इसलिए तिलक देश के एक शक्तिशाली नेता बन गये थे। देश के नेता बने तिलक के सामने राज्य के एक जातीय समूह के छोटे-मोटे मराठा नेताओं की दाल कैसे गलती।
नतीजतन “असेंबली में आकर कुनबटों (कुनबी समाज को दी जाने वाली एक गाली) को क्या हल चलाना है?” यह प्रश्न पूछते हुए बाल गंगाधर तिलक ने खलबली मचा दी और मराठा नेताओं में घबराहट फैल गई। वे अपनी मराठा जाति का राजनीतिक अस्तित्व बनाने के लिए कुनबी, माली, तेली आदि जातियों का समर्थन चाहते थे। चूंकि उस समय के ओबीसी सत्यशोधक आंदोलन के प्रभाव में थे, इसलिए वे मराठों के साथ आसानी से जाने वाले नहीं थे। इसलिए तत्कालीन मराठा नेताओं ने तात्यासाहब महात्मा जोतीराव फुले के सत्यशोधक आंदोलन में प्रवेश किया और प्रगतिशील मुखौटा पहनकर ओबीसी जातियों से मित्रता करनी शुरू कर दी।
मराठों के इस प्रगतिशील मुखौटे को ओबीसी ने तो 1930 में ही खारिज दिया, लेकिन 1993 में दलित फंस गए।
दरअसल, मुखौटों के ऐसे बाज़ार में प्रगतिशील जातीय ध्रुवीकरण लगभग असंभव हो जाता है, क्योंकि प्रगतिशीलता का मुखौटा पहनकर शत्रु ही दलित-ओबीसी खेमे में घुस आता है। डॉ. आंबेडकर द्वारा बताया गया अंतरजातीय विवाह जाति के अंत के लिए था। लेकिन इसी अंतरजातीय विवाह का प्रगतिशील मुखौटा पहनकर कई ऊंची जाति की महिलाएं महत्वपूर्ण पदों पर बैठे दलित अधिकारियों और दलित नेताओं के घरों में प्रवेश कर गईं और वे दलित आंदोलन का नाश कर रही हैं। इसी प्रकार का नाश मराठों ने 1930 में सत्यशोधक आंदोलन का किया था।
कहना अतिश्योक्ति नहीं कि सत्यशोधक का मुखौटा पहनकर मराठों ने फुले के आंदोलन को ख़त्म कर दिया और दलाली के मेहनताने के रूप में महाराष्ट्र की राजनीतिक सत्ता प्राप्त की।
घुसपैठ करके सत्यशोधक आंदोलन एवं ओबीसी आंदोलन को ख़त्म करने की परंपरा मराठों ने आज तक जारी रखी है। 2014 में महाराष्ट्र और केंद्र में पेशवाई की स्थापना हुई और मराठों की इस घुसपैठ को सत्ताधारी ब्राह्मणों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
इसी दौरान एक बेहद दुखद घटना घटी। हुआ यह कि 2015 में अहमदनगर जिले के कोपर्डी गांव में एक मराठा लड़की के साथ बलात्कार किया गया और उसकी हत्या कर दी गई। इस घटना ने महाराष्ट्र को हिलाकर रख दिया। इस घटना की दलित, आदिवासी, ओबीसी, मुस्लिम आदि समाज के सभी वर्गों ने निंदा की। लेकिन सत्ताधारी ब्राह्मण-मराठाओं के मन में एक अलग ही साजिश पनप रही थी। सामान्यत: किसी भी गंभीर अपराध के बाद कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति एक ही बात की मांग करता है कि आरोपी को सजा मिले और पीड़ित को न्याय मिले तथा यह काम शासन-प्रशासन करता रहता है। इसलिए कोई न कोई मोर्चा निकालकर स्थानीय शासन-प्रशासन पर दबाव बनाकर यह काम किया जा सकता है।
चूंकि कोपर्डी की पीड़ित लड़की शासक जाति से होने के कारण मराठा जाति के विधायक-सांसद-मंत्री फोन करके शासन-प्रशासन पर दबाव बना सकते थे और पीड़ित लड़की को न्याय दिला सकते थे। मोर्चे, धरने, आदि की कतई कोई आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन सत्तारूढ़ मराठा और ब्राह्मण नेताओं ने इस घटना का नाजायज फायदा उठाने का फैसला किया। पीड़ित लड़की के घर के सामने अचानक मराठाओं की बहुत बड़ी भीड़ जमा होने लगी। लेकिन इस क्रम में पीड़ित लड़की के लिए न्याय की मांग पीछे रह गई और अचानक मराठा आरक्षण और अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनयम को रद्द करने की मांग सामने आ गई।
जबकि इन दोनों मांगों का बलात्कार की घटना से कोई संबंध ही नहीं था। लेकिन फिर भी इन मांगों का समर्थन करने के लिए सर्वप्रथम शरद पवार कोपर्डी गांव पहुंचे। यहां मैं सिर्फ जानकारी के लिए यह भी बता दूं कि मनोज जारांगे पाटिल को समर्थन देने के लिए भी सबसे पहले शरद पवार ही गए थे।
खैर, शरद पवार के कोपर्डी जाने के बाद मराठा विधायकों, सांसदों और मंत्रियों की कोपर्डी की सड़क पर लाइन ही लग गई। तब मुख्यमंत्री रहे देवेंद्र फड़णवीस तो अक्षरशः दौड़कर गए और मांगों का समर्थन भी किया।
दलित युवती पर अत्याचार के खैरलांजी प्रकरण को दलित नेताओं ने कितनी गंभीरता से लिया, यह शोध का विषय है। लेकिन मराठा लड़की के साथ हुए अत्याचार के कारण दुखी हुए दलित नेता कोपर्डी जाने के लिए बेचैन थे। उनमें मुख्य रूप से नामदार रामदास अठावले और एक अन्य दिग्गज दलित नेता अग्रणी थे।
तब कोपर्डी गांव के मराठों ने एक सार्वजनिक फतवा जारी किया और दलित नेताओं को कोपर्डी गांव में प्रवेश देने से मना कर दिया और कहा कि दलितों की छाया तो क्या, उनकी सहानुभूति भी हम मराठों को मंजूर नहीं।
मनुस्मृति के इस ‘आधुनिक श्लोक’ का विरोध किसी भी मराठा विद्वान अथवा नेता ने नहीं किया। साफ दिख रहा था कि खुद को विद्वान, बुद्धिजीवी, विचारक बताने वाले और दलित-ओबीसी के मंच पर भाषण ठोंकने वाले ये मराठा विद्वान जाति के लिए ‘मिट्टी’ खा रहे थे।
दलित-ओबीसी द्वेष की यह मराठाई दावाग्नि कोपर्डी गांव से पूरे महाराष्ट्र में कैसे पहुंचेगी और मणिपुर के पहले फुले, शाहू, आंबेडकर का महाराष्ट्र जातीय हिंसा की आग में कैसे जलेगा, इसके लिए भयंकर षड्यंत्र पेशवाओं की राजधानी नागपुर में रचा गया। हर जिले, हर तहसील में मराठाओं के लाखों के मोर्चे निकालकर दलितों और ओबीसी के बीच दहशत पैदा करने का निर्णय लिया गया। इसके लिए हर जिले की शासन-प्रशासन की फौज और संघ-भाजपा की फौज काम पर लग गई। यह नकारात्मक जातीय ध्रुवीकरण प्रतिक्रांति का मैदान सिद्ध हुआ। जबकि जब तक ओबीसी आरक्षण और एससी-एसटी एक्ट लागू रहेगा तब तक भारत में मनुस्मृति लागू नहीं हो सकती, यह बात मनुवादियों को अच्छी तरह पता है।
फुले, शाहू और आंबेडकर ने अथक प्रयास से महाराष्ट्र का जो प्रगतिशील ढांचा खड़ा किया था, उसे पूरी तरह ध्वस्त करने का काम पेशवाओं ने इन मराठा मोर्चों से करवा लिया। कहीं भी अत्याचार हुआ तो अत्याचार करनेवाला किस जाति का है और पीड़ित किस जाति का है, यह देखकर ही जातिवार निषेध पत्रक व समर्थन पत्रक निकलने लगे। दूसरी ओर अत्याचारी व्यक्ति का समर्थन करने वाले जाति-पत्रक, जो इसके पहले कभी नहीं निकलते थे, वे इन मराठा मोर्चों के कारण प्रकाशित होने लगे। फुले, शाहू और आंबेडकर के प्रगतिशील महाराष्ट्र में एक-दूसरे की जाति पूछना अनैतिक माना जाता था। मराठा मोर्चे के बाद महाराष्ट्र में खुलेआम जाति पूछना और बताना शान की बात हो गई। मोटर-कारों और मोटरबाइकों पर “शेखी नहीं बघारना”, “हम भी आए हैं लाखो में” जैसे जातीय उन्माद के स्टिकर मोटर गाड़ियों पर व मोटर साइकिलों पर झलकने लगे। सोशल मीडिया पर उनकी प्रतिक्रिया सामने आने लगी। मराठों के “एक मराठा, लाख मराठा” के जबाब में दलित-ओबीसी की तरफ से “एक मराठा, लाख खराटा” और “आया मराठा, करा उत्पात” जैसे प्रतिउत्तर मिलने लगे।