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बच्चियों से दुष्कर्म की तेज रफ्तार ! कब तक चुप रहेंगे आप ?

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     प्रस्तुति : आरती शर्मा 

  “जब गारद-गरीद बारिश की तरह आये तब कोई नहीं पुकारता, थम जाओ – रुक जाओ!

जब ज़ुर्म  के ढेर लग जायें तो ज़ुर्म नज़रों से छुप जाते हैं !!”

          -बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

 हाल ही में देश के विभिन्न हिस्सों में बलात्कार के दिल दहला देने वाले मामले सामने आये हैं। विगत 29 जून को हरियाणा के फ़तेहाबाद ज़िले के एक गाँव में दो युवकों ने एक तीन साल की बच्ची को अगुआ करके उसके साथ दुष्कर्म किया। बच्ची ने घटना के नौ दिन बाद रोहतक पीजीआई में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया। दोनों अपराधी पीड़ित बच्ची के परिवार को पहले से ही जानते थे।

       28 मार्च को दिल्ली के बवाना में एक पाँच साल की बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गयी। यहाँ भी अपराधी का बच्ची के परिजनों की चाय की दुकान पर पहले से यहाँ आना-जाना था। दिल्ली के बवाना इलाके में ही एक 16 साल की युवती के साथ उसी के स्कूल में पढ़ने वाले चार छात्रों ने सामूहिक दुष्कर्म किया।

       28 जून को दिल्ली के नरेला में एक 10 वर्षीय बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गयी। यहाँ भी दोनों अपराधी बच्ची के घर के पड़ोस में ही रहते थे। ये तो कुछ ही घटनाएँ हैं जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया है। 

     ऐसे अपराधों की संख्या इतनी ज़्यादा है कि बहुसंख्यक आबादी ने इनके होने को अपनी नियति मान लिया है। 

कोई भी दिन नहीं जाता जब देश के किसी न किसी कोने में कोई न कोई बच्ची हवस का शिकार न होती हो। कहीं शिक्षक छात्राओं के उत्पीड़न में शामिल दिखते हैं, कहीं बालिका गृहों में बच्चियों पर यौन हिंसा होती है, कहीं झूठी शान के लिए लड़कियों को मार दिया जाता है, कहीं सत्ता में बैठे लोग स्त्रियों को नोचते हैं, कहीं जातीय या धार्मिक दंगों में औरतों पर ज़ुल्म होता है तो कहीं पर पुलिस और फौज तक की वर्दी में छिपे भेड़िये यौन हिंसा में लिप्त पाये जाते हैं! 

      ऐसा कोई क्षण नहीं बीतता जब बलात्कार या छेड़छाड़ की कोई घटना न होती हो! कोई भी पार्टी सत्ता में आ जाये किन्तु स्त्री विरोधी अपराध कम होने की बजाय लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। कोई भी उम्र, धर्म, जाति और क्षेत्र स्त्रियों के लिए सुरक्षित नहीं है। भगवा के पीछे छिपे भेड़ियों का पाखण्ड तो सबके सामने है ही! 

      ये स्त्री विरोधी अपराधियों का भी धर्म और जाति देखकर विरोध और समर्थन करते हैं तथा किसी भी घटना को दंगे भड़काने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं! 

      जब ज़ुल्म बढ़ जाता है तो लोग उसे अपनी नियति मान बैठते हैं और सहन करना एक आदत बन जाती है! आज ठीक ऐसा ही हो रहा है। भयंकर किस्म के स्त्री विरोधी अपराधों को अंजाम दे दिया जाता है और लोग अन्धे-बहरे-गूंगे बने देखते रहते हैं जैसे कि कुछ हुआ ही न हो! 

      तीन साल की बच्ची से लेकर 70 साल की बुज़ुर्ग महिला तक देश में सुरक्षित नहीं है। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक़ साल 2022 में 4,45,256 स्त्री विरोधी आपराधिक मामले दर्ज़ हुए। 

      2016 में इनकी संख्या 3,38,954 थी और 2012 में इनकी संख्या 2,44,270 थी। स्त्री विरोधी अपराध समाज पर बारिश की तरह बरस रहे हैं। इसके बावजूद समाज से इनके प्रतिरोध का स्वर बहुत विरल, क्षीण और गायब सा है। एक ओर स्त्री विरोधी अपराधों की बमबारी जारी है दूसरी ओर लगता है समाज के सामूहिक विवेक को जैसे लकवा मारा हुआ है। 

        हमारा समाज हद दर्जे का पाखण्डी है! एक तरफ यहाँ स्त्री को देवी का दर्जा दिया गया है, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ की माला जपी जाती है किन्तु दूसरी तरफ गर्भ से लेकर बुढ़ापे तक ज़िल्लत भी स्त्रियाँ ही झेलती हैं। पितृसत्ता की सड़ी मानसिकता समाज में क़ायम है जो औरत को पैर की जूती, भोग्या, पुरुष की दासी और बच्चा पैदा करने की मशीन समझती है।

       पूँजीवाद ने पितृसत्ता का अपने साथ तन्तुबद्धिकरण (sublation) करके कोढ़ में खाज का काम किया है। इस मुनाफ़ाखोर व्यवस्था ने हर चीज़ की तरह स्त्रियों को भी ख़रीदे-बेचे जा सकने वाली वस्तु में तब्दील कर दिया है। 

      विज्ञापनों व फ़िल्मी दुनिया की ज़्यादातर जगहों पर औरतों के जिस्म को भी एक वस्तु या कमोडिटी के रूप में ही पेश किया जाता है। समाज में जब बेरोज़गारी, नशे, मूल्यहीन शिक्षा, आसानी से उपलब्ध पॉर्न फ़िल्में व अश्लील सामग्री आदि का संयोग होता है तो भयंकर रुग्ण और कुण्ठित किस्म के मानस के निर्मित होने का आधार तैयार होता है। 

       आज हमारे समाज में यही हो रहा है। देश में इस समय भयंकर बेरोज़गारी का आलम है। मोबाइल फ़ोन के माध्यम से पोर्नोग्राफ़ी, अश्लील वीडियो व फिल्मों तक बच्चे-बच्चे की पहुँच है।

 सिनेमा-टीवी-सोशल मीडिया अश्लीलता और भोण्डी संस्कृति के सबसे बड़े पोषक बने हुए हैं। पूरे समाज के वातावरण पर सांस्कृतिक पतनशीलता का घटाटोप छाया हुआ है। नेताशाही से लेकर नौकरशाही तक में बैठे लोग इस सांस्कृतिक पतन में सराबोर हैं। 

       मुनाफ़े पर टिकी कोई समाज व्यवस्था जिस तरह की बीमार संस्कृति लोगों को दे सकती है वही हमें भी नसीब हो रही है। इसमें भी चाल-चेहरा-चरित्र-संस्कार-संस्कृति का रामनामी दुपट्टा ओढ़ने वाले साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों के राज में हमारा समाज हर मामले में गर्त में समा गया है। 

        इस दौरान स्त्री विरोधी अपराधों में भी भयंकर उछाल देखने को मिला है। मोदी का “बेटी बचाओ” का फ़र्ज़ी नारा तब हवा हो जाता है जब प्रज्जवल रेवन्ना, कुलदीप सिंह सेंगर, बृजभूषण सरीखे वहशियों का नाम अपराधियों की सूची में आता है! बलात्कारियों के समर्थन में तिरंगा लेकर जुलूस निकालना, दुष्कर्मियों को समय से पहले जेल से रिहा करके उनका फूल मालाओं के साथ स्वागत किया जाना ― ऐसे फ़ासीवादी दौर में ही सम्भव है। 

       फ़ासीवाद को उचित ही सड़ते हुए पूँजीवाद की संज्ञा दी गयी है। 

दोस्तो, हमारा सामना न केवल अतीत की बुराइयों से है बल्कि हमें आज की पूँजीवादी बुराइयों से भी दो-दो हाथ करने पड़ेंगे। देश के प्रगतिशील अतीत पर आज धूल-राख और विस्मृति की परत जमी हुई है। आज हमारा समाज अपनी काहिली, दोमुँहेपन और अकर्मण्यता के लिए दुनिया भर में बदनाम है।

       ऐसे समाज पर धिक्कार है जो आधी आबादी को दोयम दर्जा देता है! किसी भी रूप में स्त्री विरोधी मानसिकता को बढ़ावा देने वालों की पढ़ाई-लिखाई-ज्ञान-कौशल पर भी धिक्कार है। जो कुण्ठित लोग स्त्री विरोधी अपराधों के लिए पहनावे-जींस-मोबाइल-आधुनिकता आदि के नाम पर स्त्रियों को ही दोषी ठहरा देते हैं उनके मुँह पर यह तथ्य तमाचा होगा कि बलात्कार के आरोपियों में 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा पड़ोसी, सहकर्मी, परिचित और नज़दीकी रिश्तेदार तक शामिल होते हैं।

       किसी ने ठीक ही समाज की हालत का मूल्याँकन समाज में स्त्रियों की स्थिति से करने के लिए लिए कहा था। हम समझ सकते हैं हमारा समाज किस कदर सड़ रहा है जो सबसे घटिया दर्जे के यौन अपराधियों के पैदा होने की ज़मीन मुहैया करा रहा है। 

       आज हमें पूरी सूझबूझ और मुस्तैदी के साथ अपनी लड़ाई को संगठित करना होगा। स्त्री विरोधी अपराधों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना स्त्रियों का ही नहीं बल्कि हर इंसाफ़पसन्द व्यक्ति का कर्तव्य है चाहे वह स्त्री हो या पुरुष।

       हम इसलिए स्त्री विरोधी मानसिकता के खिलाफ़ आवाज़ ना उठायें कि हमारे घरों में भी बहन-माँ और बेटी हैं या हम खुद स्त्री हैं बल्कि इसलिए आवाज़ उठायें कि इस अन्याय-अत्याचार के ख़िलाफ़ बोलना ही न्यायसंगत है। 

       स्त्री विरोधी मानसिकता के खिलाफ़ लड़ने की ज़िम्मेदारी युवाओं पर सबसे अधिक है। हम किसी भी स्त्री विरोधी घटना का यथासम्भव एकजुटता के साथ विरोध करें, दोषियों को न केवल कड़ी से कड़ी सजा दिलाने का प्रयास करें बल्कि उनका सामाजिक बहिष्कार भी करें।

       हमारा कोई भी मित्र, दोस्त, साथी, रिश्तेदार जो स्त्रियों को बराबर न समझता हो उसे समझाने का प्रयास करें; यदि बात नहीं बने तो बेझिझक उससे अपने रिश्तों को तोड़ लें। अश्लील सामग्री और पॉर्न वीडियो उपलब्ध कराने वाली दुकानों-अड्डों पर कार्रवाई के लिए प्रशासन पर दबाव बनायें और जन-पहलकदमी के साथ अपने तौर पर भी उन्हें बन्द करायें।

        झूठी शान के लिए हत्या करने वालों को दण्डित कराने के लिए प्रशासन पर दबाव बनायें तथा इनके समर्थन में आने वाले व्यक्तियों और तथाकथित पंचायतों का बहिष्कार करें। स्वस्थ संस्कृति और सही जीवन मूल्यों का भरसक प्रचार-प्रसार करें। नशे, बेरोज़गारी, अश्लीलता, अशिक्षा, ग़रीबी की पोषक सरकारों का जिस भी रूप में विरोध कर सकते हैं विरोध करें तथा मूल्ययुक्त शिक्षा और रोज़गार के मुद्दों पर आन्दोलन संगठित करें।

       आज हम सरकारों और न्याय व्यवस्था के भरोसे बैठे नहीं रह सकते हैं। ऐसा करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान होगा! स्त्री विरोधी मूल्य-मान्यताओं को पैदा करने वाली और बलात्कार की मानसिकता की पोषक पितृसत्तात्मक पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ़ हमें उठ खड़े होना होगा। यही हमारे ज़िन्दा होने की सबूत है। (चेतना विकास मिशन).

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