दिव्यांशी मिश्रा, भोपाल
स्त्री-पुरुष क्यों दूसरे स्त्री-पुरुषों के प्रति आकर्षित हैं? इसका कारण है–अपान प्राण।
जो एक से संतुष्ट नहीं हो सकता, वह कभी संतुष्ट नहीं होता। उसका जीवन एक मृग- तृष्णा है। भारतीय योग में ब्रह्मचर्य आश्रम का यही उद्देश्य रहा है कि 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करे।
इसका अर्थ यह नहीं कि पुरष नारी की ओर देखे भी नहीं। ऐसा नहीं था –प्राचीन काल में गुरु अपने शिष्य को अभ्यास कराता था जिसमें अपान प्राण और कूर्म प्राण को साधा जा सके और आगे का गृहस्थ जीवन सफल रहे–यही इसका गूढ़ रहस्य था।
प्राचीन काल में चार आश्रमों का बड़ा ही महत्व था। इसके पीछे गंभीर आशय था। जीवन को संतुलित कर स्वस्थ रहकर अपने कर्म को पूर्ण करना उद्देश्य रहता था। लेकिन आज के मनुष्य का जीवन ताश के पत्तों की तरह बिखरा-बिखरा रहता है। वह समेटना चाहता है लेकिन जीवन है कि समेटने में नहीं आता। यही अशांति का कारण है।
जीवन में प्राण का महत्व है।समान प्राण और कृकल प्राण का महत्व अपान प्राण की ही तरह समान प्राण भी काफी महत्वपूर्ण है।
समान प्राण नाभि के मध्य में रहता है। उसका कार्य पेट के पाचन-तंत्र को दुरुस्त करना है। गरमाहट और पित्त, चंचलता और उत्साह शरीर में तेज आदि समान प्राण की ही देन है।
त्वचा में कोमलता, चमक ,भूख लगना कृकल प्राण का कार्य है। सर्दी का कम लगना समान प्राण और कृकल प्राण के संयोजन की विशेषता है। भूख लगना ,स्फूर्ति, उत्साह ,शरीर में तेज, सर्दी कम लगना–समान प्राण और कृकल प्राण के स्पन्दन पर निर्भर करता है।
जिन पुरषों में समान प्राण का स्पन्दन कम होता है,उन्हें सर्दी अधिक लगती है। स्नान करना सर्दी में बड़ा कष्टकारी रहता है उनके लिए। गर्म कपडे पहनने पर भी उन्हें सर्दी महसूस होती रहती है।
जरा-सा भोजन करते ही पेट भरा-भरा सा लगने लगता है। मनुष्य के पास सब कुछ होते हुए भी वह खिन्न बना रहता है। असंतुष्ट रहता है। शरीर का कोई-न-कोई अंग बीमार ही बना रहता है। पेट का भारीपन, थकान, आँखों की कमज़ोरी आदि रोग अक्सर घेरे रहते हैं।
आयुर्वेद ने सारे रोगों की जड़ पेट को माना है। यदि पेट ठीक है तो शरीर में रोगों की सम्भावना कम रहती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि समान प्राण ही हमारे स्वास्थ्य का मुख्य कारण है।
तंत्र-योग में प्राण-साधना एक कठिन क्रिया है। अगर प्राण नहीं सधता तो तंत्र की सारी क्रिया व्यर्थ है।तंत्र में ‘ प्राणकर्षिणी विद्या’ की साधना काफी दुरूह है लेकिन साधक उसे साधता है। बिना प्राण साधे ध्यान, समाधि, सूक्ष्म लोक का विचरण, देहातीत का अनुभव प्राप्त होना संभव नहीं है।
जिस प्रकार पुरुष के बिना प्रकृति अपनी लीला नहीं कर सकती, उसी प्रकार पांच महा- प्राण बिना पांच लघुप्राण संतुलित नहीं हो सकते। महाप्राण और लघुप्राण शिव और शक्ति के प्रतीक हैं। जिस तरह बिना शिव-शक्ति के चराचर जगत शून्य है, ब्रह्माण्ड स्पन्दनहीन है, उसी प्रकार दसों प्राणों का स्पन्दन ही जीवन है।
प्राणों का रहस्यमय सञ्चालन प्राणतोषणी क्रिया’ तंत्र का काफी गूढ़ विषय है। यह क्रिया अगर सध जाय तो साधक प्राण पर नियंत्रण कर शरीर के तापमान को प्रकृति के अनुसार घटा-बढ़ा सकता है। प्राण को सहस्रार में स्थापित कर सैकड़ों वर्षो तक समाधि को उपलब्ध हो सकता है।
कुण्डलिनी योग में षट्चक्र- भेदन बिना प्राणों के सन्धान के सम्भव नहीं। तंत्र ने प्राण को असीम ऊर्जा माना है।
उदान प्राण का निवास कण्ठ प्रदेश है। इसे साधने में “श्री” और “समृद्धि” दोनों का उदय होता है। कण्ठ प्रदेश को लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। इसी कारण स्वर्ण आभूषण गले में धारण किया जाता है।
कण्ठ को ‘स्फुटा ग्रन्थ’ भी कहा गया है। स्फुटा को जागृत करने के लिए मोती की माला, रत्न और स्वर्ण आभूषण धारण करना शुभ होता है। उदान के पूर्ण होने पर मनुष्य कभी अभाव ग्रस्त नहीं होता। साधक प्राण की विशेष क्रिया द्वारा ‘स्फुटा ग्रंथि’ जागृत कर लेता है।
भौतिक व आध्यात्मिक सुख जब चाहे प्राप्त कर सकता है। लेकिन विरले साधक ही इसका उपयोग भौतिक सुखों के लिए करते हैं। उनका उद्देश्य वाक्-सिद्धि और मन्त्र-सिद्धि के लिए होता है।धनंजन प्राण का स्पन्दन पूरे शरीर में सूक्ष्म रूप से होता रहता है। वह सभी प्राणों का प्रमुख है क्योंकि उसका सूक्ष्म सञ्चालन सूक्ष्म केंद्रों के आलावा शरीर के बाह्य सूक्ष्म तरंगों को भी करता है आकर्षित। इसलिए कपाल प्रदेश में इसका मुख्य निवास माना गया है जहाँ सहस्रार चक्र है, शिव-शक्ति का सामरस्य-मिलन है।
इसी को तंत्र में शिवलोक कहा गया है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है–” प्राणों में मैं धनञ्जय प्राण हूँ।”
हमारा मस्तिष्क रहस्यमय है। विज्ञान भी अभी तक इसके रहस्यों को पूर्णरूप से उजागर नहीं कर पाया है। यह अद्भुत सुप्त शक्तियों का भण्डार है। संसार में ऐसे अनेक महान पुरुष हुए हैं जिन्होंने अपनी अद्भुत प्रतिभा से लोगों को हैरत में डाल दिया। जाने-अनजाने यह धनंजन प्राण का ही चमत्कार है। इसमें शिथिलता आने पर या स्पन्दन कम हो जाने पर मानसिक बीमारियां, चिन्ता, डिप्रेशन आदि का शिकार हो जाता है व्यक्ति।
मस्तिष्क का विकास धनंजय प्राण पर ही निर्भर है।हज़ारों वर्ष पहले ऋषि-महर्षियों ने प्राण पर बेहद गम्भीर विचार किया था। साथ ही यह शोध किया था कि यदि प्राण कुपित हो जाय या मंद पड़ जाय तो उसे सन्धान कैसे किया जाय। लेकिन योग हो या तंत्र हो–बिना गुरु के निर्देशन के नहीं करना चाहिए। नहीं तो लाभ के वजाय हानि उठानी पड सकती है।
इसीलिए योग को परम ज्ञान और तंत्र को गुह्य ज्ञान कहा गया है। प्राणों को साधने की क्रियाएँ दसों प्राणों का संयोजन- नियोजन करने, कुप्रवृत्तियों का निवारण करने और प्राणशक्ति पर अधिकार प्राप्त करने, साथ ही आत्मिक उन्नति के लिए प्राण-विद्या का रहस्य अवश्य जानना चाहिए–चाहे वह योगी हो या साधक हो या हो गृहस्थ। योगशास्त्र में प्राणों को साधने के लिए काफी क्रियाएँ हैं लेकिन उनमें से कुछ यहाँ दी जा रही हैं। बन्ध, मुद्रा, प्राणायाम और ध्यान–ये मुख्य हैं योगशास्त्र में।
प्राण को साधने के लिए मुख्य तीन बन्ध हैं- 1. मूलबंध, 2. जालंधर बन्ध, 3. उड्डीयान बन्ध।
*1. मूलबंध :*
प्राणायाम की सहायता से यह सिद्ध होता है। इससे अपान प्राण स्थिर हो जाता है। वीर्य-स्तंभन होता है। वीर्य उर्ध्वभाग की ओर अग्रसर होता है। अपान प्राण का स्पन्दन बढ़ जाता है और मूलाधार स्थित कुण्डलिनी पर भी प्रभाव पड़ता है।
उसमें ऊर्जा का प्रभाव बढ़ जाता है। अपान प्राण और कूर्म प्राण दोनों पर मूलबन्ध का सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। रक्त-संचार ठीक होता है।
*2. जालंधर बन्ध :*
श्वास-क्रिया पर अधिकार होता है। ज्ञान-तंतु बलवान होते हैं। इसकी क्रिया से 16 ऊर्जा क्षेत्रों पर प्रभाव पड़ता है। विशुद्ध चक्र को जागृत करने में इसकी बड़ी भूमिका होती है। हठयोग प्रदीपिका में इसका विस्तार से वर्णन आया है।
*3. उड्डीयान बन्ध :*
जीवनी शक्ति को बढाने के लिए परम सहायक सिद्ध होता है। नाभि स्थित समान और कृकल प्राणों में स्थिरता लाता है। सुषुम्ना नाड़ी को खोलने में सहायक है और स्वाधिष्ठान चक्र चैतन्य करता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने में ये तीनो काफी सहायक होते हैं।