नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी के पिछले एक दशक के शासन-काल के दौरान उत्तेजना, उन्माद, आक्रामकता, सोद्देश्य भेदभाव और हिंसा का वातावरण गहराता ही चला गया। समाज में बढ़ती हुई आक्रामकता को रोकने के बारे में पक्ष प्रतिपक्ष दोनों को गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। हां, सब से पहले हक के लिए किये जानेवाले संघर्ष का दमन करने में राजकीय बल के प्रयोग के कामयाब ‘नुस्खा’ से बचना चाहिए। यह कुत्सित प्रसंग है। संसद के बेहतर उपयोग के बारे में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को सोचना चाहिए, सरकार के तेवर उस की उपलब्धियों के तथ्यों के मेल में नहीं हैं।
प्रफुल्ल कोलख्यान
अभी भी भारत में लोकतंत्र और नागरिक अधिकार का सवाल बना हुआ है। किसानों में व्यापक अ-संतोष बना ही हुआ है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बनाये जाने की मांग पर सरकार की तरफ से किसी सकारात्मक सुनवाई के होने के लक्षण कहां दिख रहे हैं! नहीं दिख हैं। ‘240’ के कारण बदली हुई परिस्थिति में भी किसान आंदोलन के फिर से जोर पकड़ने के कारण जस-का-तस बने हुए हैं। सरकार अपने पुराने रुख और रवैया से टस-से-मस नहीं हो रही है। नीट और पेपरलीक के कारण युवाओं के भविष्य पर पड़नेवाले असर को कम करने का कोई संतोषजनक और भरोसेमंद उपाय नहीं किया जा सका है।
संसद में पेश किये जा चुके बजट के प्रावधानों से देश की समस्याओं का क्या हल निकलेगा अभी कुछ भी कहना मुश्किल है। कोई उम्मीद तो दिख नहीं रही, ना-उम्मीदी का असर खत्म नहीं हो रहा है। रोजगार, आमदनी आदि के बढ़ने और दाल-सब्जी की कीमतों, शिक्षा स्वास्थ्य आवा-गमन परिवहन, वरिष्ठ नागरिकों की रियायतों के बारे में कोई आवाज कहीं से सुनाई भी नहीं दे रही है। स्थिति यह है कि ‘बहुत पड़ रही महंगाई की मार, अबकी बार फिर मोदी सरकार’! इस का मतलब यह नहीं है कि मामला कुछ भी ठीक नहीं हाँ है। राजनीतिक मामला कुछ हद तक तो ठीक हुआ लगता है, लेकिन नागरिक मामला अभी भी जस-का-तस ही बना हुआ है। देश जैसे नकारात्मक माहौल से निकल नहीं पा रहा है; सकारात्मकता बहाली के लिए कहीं कोई हौसला सक्रिय होता नहीं दिख रहा है।
ठीक हो जाने का मतलब यह नहीं है कि गड़बड़ी कभी हुई ही नहीं थी। इसका मतलब बस इतना ही है कि उस गड़बड़ी से हमारे निर्णय नियंत्रित और जीवन प्रभावित नहीं हो सकते हैं। भारतीय लोकतंत्र और सामाजिक संतुलन में जो गड़बड़ी पिछले दिनों हुई थी, क्या वह ठीक हो गई है? क्या हम पिछले दिनों हुई गड़बड़ी के प्रभाव से बाहर हो गये हैं! यदि जवाब ‘हां’ है, तो इसका मतलब यह है कि पिछले दिनों की गड़बड़ी ठीक हो चुकी है। यदि इस का जवाब ‘ना’ है, तो इसका मतलब यह है कि वह गड़बड़ी ठीक नहीं हुई है। इस ‘हां’ और ‘ना’ पर हमारी क्रिया-प्रतिक्रिया बहुत हद तक निर्भर करेगी। सवाल है कि नागरिक क्रिया-प्रतिक्रिया किस हद तक जा सकती है? इसलिए इसका जवाब बहुत सावधानी देने की जरूरत है।
पिछले दिनों हुई गड़बड़ी के ठीक होने के बारे में ठीक से सोचना चाहिए। हताश होने की जरूरत नहीं है, गड़बड़ी बहुत हद तक ठीक हो गई है। लेकिन निश्चित ही किसी हद तक इस का प्रभाव भारतीय लोगों के जीवन पर अभी भी काम कर रहा है। इसलिए निश्चिंत होने का यह समय नहीं है। इस का इसका मतलब यह है कि जीवन के गंभीर और महत्त्वपूर्ण सवाल का जवाब ‘हां’ और ‘ना’ में नहीं दिया जा सकता है। बहुत ही सावधानी से इस ‘हां’ और ‘ना’ की दुपाशी (binary के लिए गढ़ा है) से बचना चाहिए। अतिरिक्त सावधानी इसलिए कि यह दुपाशी ध्रुवीकरण का सब से सूक्ष्म औजार है।
पिछले दिनों की बड़ी गड़बड़ी को याद करें तो उन में से एक बहुत बड़ी गड़बड़ी थी कि सहज-सरल बुद्धि से समझ में आने लायक कारण के बिना सार्वजनिक जीवन के लगभग सभी महत्वपूर्ण क्षेत्र में सरकार का हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया था। सहज-सरल बुद्धि से बात समझ में नहीं आती थी तो भी कोई बात नहीं, बाद में ‘कुटिल बुद्धि’ भी इस तरह के हस्तक्षेप का कोई कारण, न तो नागरिकों को और न ही न्यायालय को ही, सही-सही तरीके से बता पाई। बहुत हद तक ‘कुटिल बुद्धि’ का ही कमाल था कि भारत में शासन की शक्ति का ऐसा दुरुपयोग हुआ, जैसा दुरुपयोग इमरजेंसी में भी नहीं हुआ था। निश्चित ही शासन की शक्ति का दुरुपयोग लोकतंत्र को खंडित करता है। अब यह मान लेना युक्ति-संगत नहीं हो सकता है कि खंडित लोकतंत्र की कमी खंडित जनादेश स्वतः दुरुस्त हो जायेगी।
लोकतंत्र के खंडित होने की स्थिति को समझने के लिए पिछले दिनों की घटनाओं को याद किया जा सकता है। उदाहरण के लिए एक नोट-बंदी यानी विमुद्रीकरण का ही मामला कोई देख सकता है। सरकार न क्या कारण बताया था? समझदार लोगों ने तब भी कहा था कि नोट-बंदी करने के लिए सरकार जो-जो समस्याएं बता रही है उन में से किसी समस्या का निदान नोट-बंदी से नहीं हो सकता है। लेकिन सरकार का अपना तर्क था, अपनी शक्ति थी।
नतीजा देश को जो भोगना पड़ा वह सब के सामने है। चुनावी बांड योजना-ईबीएस को ही लिया जा सकता है। चुनावी बांड योजना-ईबीएस को तो माननीय सुप्रीम कोर्ट न केवल निरस्त कर दिया बल्कि अ-संवैधानिक भी घोषित कर दिया। चुनावी बांड योजना-ईबीएस के नकारात्मक प्रभाव के बारे में सरकार को सावधान किया ही गया था, लोगों ने भी इस की वैधता पर सवाल उठाया था। माननीय सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने में स्वाभाविक तौर पर वक्त लगना था, सो लगा।
अ-संवैधानिक घोषित कर दिये गये चुनावी बांड योजना-ईबीएस का जो-जो नकारात्मक प्रभाव पड़ना था सो-सो पड़ा। ऐसा नहीं हो सकता है कि भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता और विधि-विशेषज्ञों को चुनावी बांड योजना-ईबीएस की अ-वैधता का कोई अनुमान रहा ही न हो। लेकिन जब तक चले, तब तक चले के मनोभाव ने काम किया होगा। क्या पता! माननीय सुप्रीम कोर्ट के अ-संवैधानिक घोषित किये जाने के बाद भी चुनावी बांड योजना-ईबीएस से संबंधित जानकारी सार्वजनिक करने में जिस लज्जास्पद ढंग से आना-कानी की जा रही थी वह अपने-आप में सारी कहानी खोल देती है। नाजायज तौर-तरीका से ‘कुछ के बदले कुछ यानी क्विड प्रो क्वो’ का मामला साफ-साफ दिखने लगा।
चुनावी बांड योजना-ईबीएस का भारत के लोकतंत्र पर कितना बुरा असर पड़ा यह तो स्वतंत्र अध्ययन का विषय हो सकता है। आम चुनाव पर जो असर पड़ा हो, वह तो सत्ताधारी दल की तरफ से चुनाव में झोंके गये धन के अनुमान से भी समझा जा सकता है। लेकिन इस मामला में कोई ‘दृष्टांतमूलक’ कानूनी कार्रवाई होती हुई अब तक तो दिख नहीं रही है। क्या पता, कुछ-न-कुछ हो भी रहा हो!
नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) का क्या हुआ! आनन-फानन में बिना पर्याप्त संसदीय चर्चा के पारित ‘तीन कृषि कानून’ जिन्हें रोकने के आंदोलन में सैकड़ों किसान की जान जाने के बाद, ‘तपस्या में कमी’ रह जाने के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वापस लेने की घोषणा की थी, उन कानूनों का क्या हुआ! क्या वे कानून सच में वापस हो गये! कानून वापसी की कोई संसदीय प्रक्रिया होती है या नहीं होती है, या इस मामला में क्या स्थिति है विशेषज्ञों और अपेक्षाकृत अधिक सचेत लोगों को पता होगा! सत्ता और शक्ति के दुरुपयोग का मामला एक रूप यह भी हो सकता है कि सदन और सदन के बाहर नेताओं और प्रवक्ताओं ने महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर भी ‘तर्कपूर्ण हाजिर जवाबी’ से अधिक ‘तर्कातीत स्थिर जवाबी’ से बेधड़क काम लेने में, लोकतांत्रिक मर्यादा की हदें तोड़ने में कभी कोई संकोच नहीं किया।
‘तर्कातीत स्थिर जवाब’ -‘बाबा नाम केवलम!’ सत्ता से असहमति के निषेध और सत्ता से अनिवार्य सहमति के मासूम स्वीकार की परिस्थिति के लिए सत्ता के शिखर से मीडिया, खासकर तरंगी और तुरंगी मीडिया, को ‘विनम्र शिकारी’ बनाने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल में जहर घोलने से कम क्या कहा जा सकता है, भला! कई जेनुइन पत्रकारों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नेताओं, राजनीतिक दलों आदि पर हुई कार्रवाइयों के पीछे की मानसिकता और कहानी क्या कभी सही-सही सामने आ पायेगी! इस परिस्थिति में आशंकित तो सभी थे, सुरक्षित वही थे जिन्होंने ने अपने कलम और कैमरा को ‘विनम्र ढाल’ बनाने में कामयाबी हासिल कर ली!
‘बॉयकॉट वॉकआउट बहिष्कार’ संसदीय प्रक्रिया की स्वाभाविक घटनाएं हैं। लेकिन ऐसी घटनाओं से एक सीमा के बाद संसदीय प्रक्रिया की यह स्वाभाविकता संसदीय प्रक्रिया व्यर्थता के भंवर में डाल देती है। संसद में सरकार और प्रतिपक्ष की रस्साकशी में कई बार सरकार संसद के व्यर्थता में पड़ जाने की चिंता से खुद को मुक्त करने में ही अधिक दिलचस्पी लेने लगती है। संसद को अ-काज का बना देना या बनने देना कई बार सरकार को अधिक सुविधाजनक लगने लगता है। निरंकुश मिजाज के लिए संसद का ‘अंकुश’ तो झंझट ही लगता है। संसद की जरूरत सरकार को कम और विपक्ष को अधिक होती है।
लोकतंत्र में ‘तंत्र’ का पक्ष सरकार तो ‘लोक’ का पक्ष प्रतिपक्ष होता है। इस अर्थ में प्रकारांतर से प्रतिपक्ष लोकतंत्र का जन-पक्ष होता है। सरकार और जनता के बीच संतुलन, संतोष और सम्मानजनक सामंजस्य के लिए संसद में स्पीकर की व्यवस्था होती है। पिछले दिनों जब बहुत भारी संख्या में सांसदों के निलंबन की घटनाएं सामने आने लगी, तो स्वभावतः साफ-साफ लगने लगा कि सत्ता पर संसद का तो कोई अंकुश ही नहीं है। स्पीकर का झुकाव सत्ता पक्ष की तरफ हो जाने से सरकार पर संसद का अंकुश रह भी कैसे सकता है?
जाहिर है कि सरकार ‘निरंकुशता के आनंद’ में मग्न हो जाती है, बल्कि डूब जाती है! सो डूब गई। ऐसे में, संसद लोकतंत्र का अलंकरण मात्र बनकर रह जाती है। संसद ठीक से काम नहीं करे तो साधारण नागरिक के जीवन में लोकतंत्र का प्रभाव निष्क्रिय और निस्तेज होने लगता है। पिछले दिनों यही गड़बड़ी हुई थी कि सत्ता के आचरण से लोकतंत्र का प्रभाव निष्क्रिय और निस्तेज होने लगा था और खतरनाक हद तक कम हो गया था।
क्या यह खतरा पूरी तरह से टल गया है? नहीं, पूरी तरह टल नहीं गया है, थोड़ा ठहर जरूर गया है। कहा जाता है कि कभी-कभी स्थिति के बिगड़ने में पल भर का समय भी बहुत होता है। स्थिति के संवरने में बहुत वक्त लग जाता है। लमहों की खता का खामियाजा सदियों को भोगना पड़ जाता है। पिछले दिनों जो-जो गड़बड़ी हुई उस का अभी तक न तो कोई कारगर समाधान ही हुआ है और न गड़बड़ी के कारणों को ही पूरी तरह से व्यवस्था से बाहर किया जा सका है। भरोसे की बात तनी-सी है कि जनता सचेत है।
यह ठीक है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार तो बन गई। लेकिन भारतीय जनता पार्टी को अकेले दम बहुमत नहीं है। विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की सदस्य संख्या तो पर्याप्त है ही, तेवर भी तीखा है। संसद में राजनीतिक टीका-टिप्पणी होना आम बात है। सामान्य टीका-टिप्पणी को भी गाली-गलौज नहीं करार दिया जना चाहिए। टीका-टिप्पणी और आलोचना का महत्व है, मर्यादा का भी। असल में भाषा का आक्रामक इस्तेमाल अपने-आप में गाली-गलौज है। वातावरण में युद्ध और आक्रमण की स्थिति लगातार बनी रहने से लोग बातचीत में आक्रामक हो जाते हैं।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी के पिछले एक दशक के शासन-काल के दौरान उत्तेजना, उन्माद, आक्रामकता, सोद्देश्य भेदभाव और हिंसा का वातावरण गहराता ही चला गया। समाज में बढ़ती हुई आक्रामकता को रोकने के बारे में पक्ष प्रतिपक्ष दोनों को गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। हां, सब से पहले हक के लिए किये जानेवाले संघर्ष का दमन करने में राजकीय बल के प्रयोग के कामयाब ‘नुस्खा’ से बचना चाहिए। यह कुत्सित प्रसंग है। संसद के बेहतर उपयोग के बारे में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को सोचना चाहिए, सरकार के तेवर उस की उपलब्धियों के तथ्यों के मेल में नहीं हैं।
प्रधानमंत्री अपनी आवाज को विपक्ष के द्वारा दबाने की बात कह रहे थे! प्रधानमंत्री का ही जब ऐसा आरोप है! इसे नेता ‘प्रतिपक्ष की ताकत’ की झलक मानना चाहिए या सरकार की किसी ‘अन्य तैयारी’ के संकेत? देश के कई क्षेत्र से जुड़े जमात और जत्थे आंदोलन में उतरने की तैयारी कर रहे हैं और सत्ता पहले से कहीं अधिक ताकतवर कानून हाथ में लेकर खड़ा है! देखा जाये आगे होता है क्या, बल्कि क्या-क्या!(