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चीन से होने वाले प्रत्यक्ष निवेश को आसान बनाने का प्रस्ताव क्यों

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चन्द्रभूषण

भारत-चीन आर्थिक संबंध किसी निश्चित रास्ते पर चलने का नाम ही नहीं ले रहे. 2020 में गलवान घाटी के टकराव के बाद भारत में चीन की आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए न केवल वहां से होने वाले आयात को परिसीमित करने के प्रयास किए गए थे बल्कि चीन के पूंजी निवेश को हतोत्साहित करने के लिए 2021 में जारी एक शासनादेश के मुताबिक भारत की जमीनी सीमाओं से लगे सभी देशों से आने वाले निवेश के लिए सरकार के स्तर पर मंजूरी लेना जरूरी बना दिया गया था. सरकार का यह मूड देखकर चीनी ब्रांड की कुछ मोबाइल फोन कंपनियों में हड़तालें हुई थीं और दो-एक जगह उनके ठिकानों पर तोड़फोड़ भी हुई थी.

लेकिन अभी, केंद्रीय बजट से ठीक पहले आए इकोनॉमिक सर्वे में चीन से होने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आसान बनाने का प्रस्ताव रखा गया है. ध्यान रहे, भारत से चीन के कूटनीतिक रिश्ते अभी फ्रिज में ही पड़े हुए हैं. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दोनों देशों के प्रतिनिधि ढाल और तलवार की ही तरह एक-दूसरे से मिल पाते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री पद संभालने पर दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों के शुभकामना संदेश आए, लेकिन चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने बीस मुलाकातों के गर्मजोशी भरे अतीत के बावजूद भारतीय प्रधानमंत्री के लिए कोई संदेश नहीं भेजा. यह स्थिति 2019 तक दिखे उनके व्यवहार से बहुत अलग कही जाएगी.

चीन की ओर से नरेंद्र मोदी के लिए चुनाव जीतने के हफ्ते भर बाद एक आधिकारिक बधाई संदेश जरूर आया, लेकिन उसपर चीनी प्रधानमंत्री ली छ्यांग का नाम लिखा था. ऐसे माहौल में चीन से एफडीआई बढ़ाने के लिए सारे जतन करने का यह सर्वे वाला सुझाव कुछ अटपटा-सा लगता है. प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन ने जो सफाई इस प्रस्ताव के बारे में दी है, उसके मुताबिक दुनिया के आर्थिक-वाणिज्यिक वातावरण को देखते हुए भारत के सामने कुल दो ही विकल्प बचते हैं.

या तो चीन से बना-बनाया सामान मंगाकर अपने यहां सिर्फ उसकी पैकेजिंग और ब्रैंडिंग करके पश्चिमी बाजारों में बेचा जाए, या फिर चीनी पूंजी और तकनीक का आयात किया जाए, यानी उन्हें अपने यहां सीधे या किसी भारतीय भागीदार से सहयोग बनाकर फैक्ट्री लगाने दी जाए और अपने लोगों के लिए रोजगार की व्यवस्था करते हुए बेहतर मुनाफे के साथ चीजों को अमेरिका और यूरोप के बाजारों में उतारा जाए. हर हाल में चीन पर ऐसी निर्भरता क्यों ? इस सवाल का जवाब देते हुए नागेश्वरन ने ग्रीन एनर्जी, टर्बाइनों, न्यूक्लियर टेक्नॉलजी और बैट्री वाली गाड़ियों जैसे कुछ खास क्षेत्रों में चीन की तकनीकी दक्षता और कुछ खास खनिजों, संश्लिष्ट पदार्थों और रसायनों में उसके एकाधिकार का जिक्र किया.

बड़ी तस्वीर

ज्यादा तह में जाएं तो असल बात कुछ मामलों में यूक्रेन युद्ध से पहले ही, लेकिन खास तौर पर यह लड़ाई शुरू होने के बाद यूरोपीय संघ, अमेरिका और कनाडा के रवैये से जुड़ी लगती है, जो अपने यहां चीन से होने वाले आयात को कम से कम रखना चाहते हैं. उनके यहां चीन से आने वाली चीजों में कुछ तो सिर्फ अपने सस्तेपन की वजह से खरीदी जाती हैं. पश्चिमी बाजारों का कमजोर हिस्सा उनपर निर्भर है और उनपर ज्यादा रोक लगाने से मुद्रास्फीति बढ़ जाने का खतरा है. जबकि कुछ चीजें अपनी तकनीकी श्रेष्ठता की वजह से जाती हैं, जिन्हें वे हर हाल में रोकना चाहते हैं.

कारण यह कि उच्च तकनीकी पर आधारित चीजों के बाजार पर चीनी कब्जे से भविष्य में पश्चिमी सामानों का वही हाल हो सकता है, जैसा एक समय भारत में मैनचेस्टर के कपड़े आने से ढाका के मलमल का हुआ था, जिसे बनाने वाले अद्भुत कारीगरों की हड्डियों से बंगाल की धरती सफेद हो जाने का चित्र अट्ठारहवीं सदी के आर्थिक पत्रकारों ने खींचा था.

पश्चिमी मुल्क इस मामले में तितरफा रणनीति पर अमल कर रहे हैं. एक तो चीन की तकनीकी प्रगति की रफ्तार कम करना, जिसके लिए श्रेष्ठतम श्रेणी की माइक्रोचिप बनाने की सारी संभावनाएं उन्होंने अपनी तरफ से इस मुल्क के लिए बिल्कुल ठप कर दी हैं. ध्यान रहे, माइक्रोचिप की जगह अभी हर तरह की हाई-एंड तकनीकी गतिविधि के लिए वही है जो शरीर में दिमाग की होती है. दूसरे, श्रेष्ठ तकनीकी दक्षता वाली चीनी वस्तुओं के आयात को जांच-पड़ताल और ऊंचा आयात शुल्क लगाकर न्यूनतम स्तर पर ला देना. और तीसरे, जो चीजें चीन से हर हाल में मंगानी जरूरी हों, उन्हें किसी और देश को बीच में डालकर मंगाना, जिसे उन्होंने ‘चाइना प्लस वन’ पॉलिसी का नाम दिया है.

इस तीसरी रणनीति का हिस्सा बनकर ही मेक्सिको पिछले दो-तीन वर्षों में अमेरिका का सबसे बड़ा निर्यातक देश बन गया है और एशिया में दक्षिण कोरिया और विएतनाम ने भी इसका जबर्दस्त फायदा उठाया है. भारत की कोशिश एक तो किसी तरह ‘चाइना प्लस वन’ का फायदा उठा रहे मुल्कों की पांत में शामिल होने की है, दूसरी तरफ भारतीय वित्त मंत्रालय को अपने यहां कई क्षेत्रों के उद्यमियों का दबाव भी झेलना पड़ रहा है, जिनका कारोबार चीन से आने वाले इंटरमीडियरी गुड्स (अंतिम उत्पाद, फिनिश्ड प्रॉडक्ट बनाने में काम आने वाले केमिकल्स, कल-पुर्जे, मशीनरी और जब-तब बने-बनाए अनब्रैंडेड सामान) पर ही निर्भर करता है.

प्लस वन की मालगाड़ी

कुछ मामलों में ऐसा भी देखा जा रहा है कि किसी ने पूरी योजना बनाकर किसी चीज की फैक्ट्री डाली, लेकिन जैसे ही उसका सामान बाजार में आया, चीन से आए उसी श्रेणी के सामान ने कीमतों के अखाड़े में उसे चित कर दिया. सोलर सेल बनाने वाली भारतीय कंपनियों के साथ ऐसा कई बार हो चुका है और उनमें जो बच पाईं वे असेंबलिंग तक सिमटकर रह गई हैं. इकोनॉमिक सर्वे का सुझाव अमल में आने पर वे चीनी कंपनियों से कोलैबोरेशन में जा सकती हैं. इलेक्ट्रिकल वीइकल के क्षेत्र में यह कोशिश की जा चुकी है लेकिन यह स्थायी निर्भरता का रास्ता होगा.

एक अतिरिक्त चिंता बिल्कुल आंख के सामने दिख रहे भविष्य से भी जुड़ी हुई है. अमेरिका में अगर डॉनल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बन गए तो उनका नजरिया कारोबार के मामले में बहुत ज्यादा कंजर्वेटिव माना जाता रहा है. पिछले कार्यकाल में उन्होंने भारत को अपनी गैर-जरूरी चीजें बेचने के लिए दबाव बनाया था और भारत द्वारा निर्यातित कुछ सामानों पर टैक्स भी बहुत ज्यादा बढ़ा दिया था. कई काम वे सिर्फ माहौल बनाने के लिए, अमेरिकी जनता का ध्यान खींचने के लिए भी करते हैं, जिससे अमेरिकी बाजार पर निर्भर देशों को बहुत नुकसान होता है.

विश्व अर्थव्यवस्था को कोरोना और यूक्रेन युद्ध से लगा दोहरा झटका भारत ने रूस और पश्चिमी मुल्कों के दोनों ही खेमों से अपने बेहतर रिश्तों के बल पर झेल लिया है. रूस से सस्ता कच्चा तेल उठाना और अपनी विशाल रिफाइनरियों में उसका शोधन करके पेट्रो उत्पादों का एक बड़ा निर्यातक देश बन जाना हमारे लिए यूरोप और अमेरिका की अघोषित ‘रशा प्लस वन’ पॉलिसी का फायदा उठाकर ही संभव हुआ है.

आगे और ज्यादा ध्रुवीकृत होने की आशंका से भरे विश्व बाजार में टिके रहने की तैयारी सर्वे के इस प्रस्ताव में दिख रही है. सीमाओं का अभी जो हाल है, उसमें चीन के साथ पूंजी और बाजार के रिश्तों को अपग्रेड करना आसान नहीं होगा और मोदी सरकार इस दिशा में फूंक-फूंक कर ही कदम रखना चाहेगी. लेकिन सारे तनाव-टकराव के बावजूद दोनों देशों के व्यापारिक रिश्ते पिछले चार वर्षों में जिस तरह लगातार मजबूत होते गए हैं, उसे देखते हुए यह काम शायद उतना कठिन न साबित हो.

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