अमित कुमार
जिस कालखंड में मुंशी प्रेमचंद लिख रहे थे, उस समय दलित विमर्श की क्या स्थिति थी? यह एक बड़ा सवाल है जो आए दिन दलित साहित्य के आगाज को लेकर विमर्श के केंद्र में रहता है। हालांकि यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि तब दलित वैचारिकी का आज के जैसे कोई एक स्वरूप निर्धारित नहीं था और न ही दलित विमर्श जैसी कोई अवधारणा ठोस रूप में मौजूद थी। लेकिन छुआछूत और अमानवीय अत्याचार उस समय के समाज की एक वीभत्स सच्चाई थी। यह किसी एक टोले, मुहल्ले, गांव या परिक्षेत्र का मामला नहीं था, बल्कि पूरे भारत में कमोबेश यही स्थिति थी। यह इसके बावजूद कि छुआछूत, जातीय अत्याचार और गैर-बराबरी के खिलाफ नेता, सामाजिक सुधारों के आंदोलनों से जुड़े दलित और शूद्र एक्टिविस्ट लगातार कार्य कर रहे थे। उनके कार्य धरातली थे। साहित्यिक क्षेत्र में भी इस दिशा में काम हो रहा था। लेकिन यह सर्वविदित है कि उस समय के अछूतों (आज के दलितों) में शिक्षितों की संख्या बहुत कम थी, इसलिए उनके द्वारा सुगठित लेखन की बात बेमानी है। जो भी थोड़े बहुत शिक्षित थे, वे सचेत थे। इसका प्रमाण वर्ष 1930 के फरवरी माह में कानपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘दलितोदय’ है। यह एक मासिक पत्रिका थी। इसके संपादन और प्रकाशन का पूरा दायित्व दलितों (तब अछूत कहे जाते थे) के हाथों में था। इस पत्रिका के प्रकाशन का उद्देश्य सवर्णों द्वारा वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जो भी षड्यंत्र हैं, उन्हें सामने लाना था। यथा– अछूतोद्धार आंदोलन, अछूतों का मंदिर प्रवेश, उनके साथ भोजन आदि के पीछे की महीन चाल से समाज को सचेत करना था। पत्रिका का प्रवेशांक फरवरी, 1930 में प्रकाशित हुआ था। इस अंक में एक लेख का शीर्षक था– ‘क्या अछूतोद्धार आंदोलन राजनीतिक चाल है?’
इस बात की तसदीक सुजीत कुमार सिंह अपनी संकलित और संपादित पुस्तक ‘अछूत’ की भूमिका में इस प्रकार करते हैं– “अछूतोद्धार आंदोलन के पीछे कैसी बलवती शक्तियां काम कर रही थीं और उसके मनोभाव दलितों के प्रति क्या थे, इसे अख्तर हुसैन रायपुरी ने सही ढ़ग से पकड़ा है। …यह न भूलना चाहिए कि उच्च जातियों के सभी हिंदू धनिक अथवा मध्यवित्त वाले हैं। उनके धार्मिक और आर्थिक स्वार्थ परस्पर मिले-जुले हैं। उनका कल्याण इसी में है कि अछूतों में जरा भी जागृति न हो और उनके संगठन में कभी श्रेणी चेतना पैदा न हो। वे अपने को किसान या श्रमिक नहीं, बल्कि हिंदू और वह भी अछूत हिंदू समझें। समाज में आर्थिक स्वरूप में परिर्वतन होने का मतलब है, हिंदू समाज में क्रांति।”
उन दिनों हिंदी में दलितों की कुछ और पत्रिकाएं भी प्रकाशित हो रही थीं, जिनमें अछूतानंद ‘हरिहर’ की पत्रिका ‘आदि हिंदू’ (1925-1932) प्रमुख है।
हालांकि उस समय साहित्य में सवर्णों द्वारा भी एक तरह से दलितों का प्रतिनिधित्व किया जा रहा था। यह कितना किया जा रहा था, कैसा किया जा रहा था, उसमें विमर्श कितना था, पक्ष कितना था, यह सब एक अलग संदर्भ है। मूल बात यह है कि अछूतों की समस्याओं पर साहित्य रचा जा रहा था। प्रेमचंद किसानों, कामगारों, शूद्रों और दलितों के विषय पर लगातार लिख रहे थे। प्रेमचंद के अलावा दलितों के जीवन, उनकी समस्याओं, उनके ऊपर होने वाले अत्याचार, उनके संघर्ष, उनके प्रतिरोध आदि पर भी बहुत से लेखक लिख रहे थे। कुछ तो लिख ही नहीं रहे थे, बल्कि कहा जा सकता है कि बहुत बेजोड़ तरीके से लिख रहे थे, जिनमें दलित प्रश्न मुखरित हो रहा था। हाँ, उनका साहित्यिक अवदान शायद कम रहा हो, लेकिन 1920 से 1947 तक कम-से-कम एक सौ से ज्यादा सवर्ण लेखक और संपादक थे, जो दलित प्रश्न को अपने तरीके से उठा रहे थे। इनमें से बहुत से लेखक किसी घटना और तात्कालिक सामाजिक अवलोकन के वशीभूत भी लिख रहे थे। इसलिए उनमें से कुछ की कहानियां प्रेमचंद के सापेक्ष अधिक तल्खी वाले और प्रगतिशील थीं।
उदाहरण के लिए प्रेमचंद 1927 में अपनी कहानी ‘मंदिर’ में दुखिया को मंदिर में प्रवेश नहीं करा पाए थे, जबकि ‘प्रतिरोध’ नामक अपनी कहानी में प्रतापनारायण श्रीवास्तव भंगी जाति की धनिया को 1925 में ही मंदिर में प्रवेश करा देते हैं। कहानी के अनुसार मंदिर में प्रवेश करने के कारण धनिया को बुरी तरह पीटा गया और बाद के दिनों में मंदिर के पुजारी के लठैत उसके घर पर उसको मारने की नीयत से चढ़ते हैं तो उसका पति उनसे लोहा लेता है और इस घटनाक्रम में धनिया व उसका एकलौता बेटा मारे जाते हैं। कुछ माह बाद उस जीर्ण-शीर्ण शीतला मंदिर में भव्य आयोजन हो रहा था, तभी धनिया का पति दीना मंदिर को गिरा देता है, जिसमें पंडित का लड़का दब जाता है, जिसे दीना बचा लेता है। दीना कहता है– “महाराज हम चाहित तो हरि भैया को मार डारित जैसे आपने हमरे लाल और वहीकी महतारी मरवा डारियै रहै। मुदा हमार जिउ गवाही नाहीं दिहिसि। हम मंदिर तो गिरा ही दीन, लेकिन हमका न मालुम रहै कि हरि भैया यहीं हैं, नहीं तो हम न गिराइत।”
इसी तरह 1926 में ‘महारथी’ नामक पत्रिका के जुलाई एवं अगस्त (दो अंको में) प्रकाशित हुई कहानी ‘चमार की बिटिया’ को भी लिया जा सकता है। कहानी चंद्रशेखर शास्त्री ने लिखी थी। कहानी लंबी है और दस परिच्छेद में है। वैसे तो इस कहानी में घटनाएं और संवाद हैं, जो दलित विमर्श के संदर्भ में उस समय के हिसाब से क्रांतिकारी और प्रोग्रेसिव हैं, लेकिन इस कहानी में जो दलित विमर्श है, वह अपने ऊपर होने वाले अत्याचार के विरुद्ध सामूहिकता के साथ उठ खड़े होने और अपने अधिकारों के लिए योजनाबद्ध एवं कूटनीतिक तरीके से निर्णायक लड़ाई लड़ना है। इसमें खुली चुनौती दी गई कि मांगें नहीं मानने पर वे धर्म परिवर्तन कर लेंगे। हालांकि वे हिंदू धर्म में अपने अमानवीय अत्याचार के बाद भी बने रहने की जिद लिए रहते हैं। इसके पहले किसी कहानी में इस तरह के सामूहिक प्रयास से अधिकार प्राप्ति की बात नहीं आई थी। कहानी में यह इस तरह उद्घाटित है– “सभा में तय हुआ कि उच्च कहलाने वाले के अपने ऊपर असंख्य अत्याचार देख कर यह चमार सभा निश्चित करती है कि उनसे निम्नलिखित अधिकार मांगे जावें, यदि वह हमको मांगे हुए अधिकार दे दें तब तो अच्छा है अन्यथा एक माह के पश्चात हम सब के सब मुसलमान बन जाएंगे।
अधिकार यह मांगे जावें–
- हमको कुओं से पानी भरने दिया जावें।
- हमको घरों में उन सब स्थानों में जाने दिया जावे, जहां तक मुसलमान और ईसाई जाते हैं।
- प्याऊ पर हमको लोटे से पानी पिलाया जावे।
- हमको देव मंदिरों के दर्शन करने दिया जावे।
इस प्रस्ताव पर सब उपस्थित चमार प्रसन्न हो गए, चारों ओर से इसका अनुमोदन और समर्थन होने लगा, सम्मति लिए जाने पर रामू इस प्रस्ताव पर तटस्थ हो गया और प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया गया।”
इस सभा में उनकी मांगों के परिणाम पर कहानीकार ने उस समय के हिसाब से एक नवीन परिकल्पना दी है। दलित वैचारिकी में उस समय का यह चरम था। हालांकि जब दलित और शूद्र लेखन में उतरे तो यह सभी कुछ बदल जाने वाला था। कहानीकार ने इस कहानी में सभा का जो असर दिखाया है वह यह कि– “आज चमारों की अवधि में पांच दिन ही शेष हैं। नगर वासियों को यह पांच दिन पांच युगों के समान प्रतीत होते हैं। सब के सब इस बात की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हैं कि एक मास पूर्ण होने पर चमार क्या करते हैं। अचानक वहां के प्रतिष्ठित नागरिक सेठ तनसुख लाल, पंडित मुकुंदराम और ठाकुर बनवारी सिंह ने अगले दिन एक सार्वजनिक सभा की घोषणा कराई। सभा को सफल बनाने के लिए पूर्ण प्रयत्न किया गया। सभा के संचालकों को इस बात का पूर्ण ध्यान था कि कोई नागरिक आने से छूट न जावे। होते-होते वह दिन भी आ ही गया। … स्वामी जी के बैठने पर ठाकुर बनवारी सिंह ने निम्नलिखित प्रस्ताव उपस्थित किया–
ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की यह सभा निश्चय करती है कि अब से चमार भाइयों को
- अपने कुओं पर पानी भरने दिया जावे।
- उनको उन सब स्थानों में जाने और बैठने दिया जावे जहां तक मुसलमान और ईसाई जाते हैं।
- प्याऊ पर लोटों से पानी पिलाया जावे।
- देव मंदिरों के दर्शन करने दिया जावे।
प्रस्ताव पर बोलते हुए वक्ता महाशय ने दिखलाया कि किस प्रकार चमार भाई उपरोक्त अधिकार पाने के योग्य हैं।
प्रस्ताव का अनुमोदन और समर्थन दस-बारह सज्जनों ने किया। मालवे प्रांत के एक महाशय प्रस्ताव के विरुद्ध भी बोलने को खड़े हुए, किंतु सबने उनको ‘धिक्कार’, ‘चुप रहो’ आदि का शोर मचा कर बैठा दिया।
इसके बाद सेठ तनसुख लाल खड़े हुए।
सेठ जी – महाशयों! इन महाशय के व्याख्यान मंच पर आने से प्रतीत होता है कि कुछ लोग इस प्रस्ताव के विरुद्ध भी हैं; किंतु आप सब इस बात को जानते हैं कि ऐसे महाशय जाति के शत्रु हैं। अतएव लोगों के मुख बंद करने के लिए मैं निम्नलिखित अंश प्रस्ताव में और जोड़ना चाहता हूं–
और जो व्यक्ति इस प्रस्ताव के विरुद्ध आचरण करे उसका सामाजिक बहिष्कार किया जावे।
पंडित मुकुंद राम तथा अन्य कतिपय महाशयों ने इस संशोधन का अनुमोदन और समर्थन किया। इस संशोधन पर सभा में बड़ा हर्ष छा गया। चारों ओर तालियों का शब्द होने लगा। सब कोई हर्ष से उछले पड़ते थे। सभा को हर्ष के आवेश में नियम विरुद्ध चलती देखकर सभापति ने घंटी बजाई, जिस पर सभा में फिर शांति छा गई।
मत लिये जाने पर संशोधित प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ, इसके पश्चात् सभापति ने अंतिम वक्तृता देकर सभा विसर्जित की।”
‘चांद’ पत्रिका के जून, 1932 के अंक में डॉक्टर धनीराम प्रेम की एक कहानी छपी थी– ‘अछूत’। इस कहानी में एक युवा ब्राह्मण जो संगीत का साधक है, गंगा नाम की एक दलित लड़की की प्रतिभा और उसकी लगन देखकर उसे संगीत सिखाता है, उसे पढ़ाता है और कुछ समय बाद उसे अच्छी व्यवस्था देने के लिए उसे अपने घर पर ही रहने का प्रबंध कर देता है। जाहिर है इससे समाज भभक उठा। इस भभक की बानगी कहानी में इस तरह आती है– “ग्राम में पहुंचे तो उपद्रव मच गया। जिस बात की आशा थी, वही हुई। उस खलबली पर मुझे आश्चर्य न हुआ, आश्चर्य तो तब होता, जबकि वह खलबली न मचती। सब जगह यही चर्चा होने लगी। पंडित श्यामलाल के घर में एक चमार की लड़की रहती है, भला यह बिरादरी को कभी सह्य हो सकता था? पंचायतें होने लगीं और सबने मिल कर मुझे दंड भी दे दिया। पंच कौन थे? बड़े-बड़े नामधारी ब्राह्मण, जिनकी चोटी कुएं से जल खींच कर ला सकती थी, जिनके तिलक आकाश के इंद्रधनुष को भी मात करते थे, जिनके ओष्ठ राम-राम कहते-कहते मोटे पड़ गए थे। परंतु उनके भीतरी जीवन क्या थे? एक, दो-तीन गर्भ गिरा चुका था; दूसरा छिप-छिप कर शराब पीया करता था; तीसरे ने अपने पुत्र की वधू पर ही हाथ साफ़ किया था, चौथे का संबंध एक सुनारिन से था; पांचवें ने अपनी पुत्री के श्वसुरालय का सारा धन हज़म किया हुआ था और वह पुत्री विधवा होकर मारी-मारी फिरती थी। यह थे ‘पंच’ जो लंबे-लंबे हाथ चला कर मेरा न्याय करने बैठे थे। उनके पास रुपया था, उनके पास शक्ति थी, अतः वे बिरादरी को जिधर चाहते थे, नचाते थे। जो उनका शत्रु था, वह बिरादरी का शत्रु था; जो उनका मित्र था, वह बिरादरी में मान्य था। वे इसी बल पर अपने काले कुकर्मों पर पर्दा डाल सकते थे। बिरादरी की पंचायतों के हाथ में और तो शक्ति रही नहीं है। हां, हुक़्क़ा-पानी का बंद करना उन्होंने हाथ में रक्खा है, जो पंचों के इशारों पर दुरुपयोग में लाया जा सकता है। मेरे पास हुक्मनामा आ पहुंचा। यदि पंचायतों का ही राज्य होता तो मेरा अपराध फांसी के दंड से कम का नहीं था। परंतु मेरे सौभाग्य से उतना अधिकार उन्हें नहीं था। मुझे ‘बहिष्कार’ का दंड मिला था। मेरा हुक्का-पानी बंद था। कब तक? जब तक कि मैं गंगा को घर से निकाल कर सारी बिरादरी को मिठाई-पूरी न खिलाऊं और महादेव जी पर एक सौ एक रुपए और एक नारियल न चढ़ाऊं।”
उसने पंचायत की बात नहीं मानी। समाज ने उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया। उसकी सगाई टूट गई। कहानी के अंत में कहानी का नायक गंगा से उसकी मर्जी लेकर शादी कर लेता है। वर्ष 1932 में, कहानी में ही सही, किसी ब्राह्मण का चमार जाति की स्त्री के साथ शादी एक असाधारण बात थी। हालांकि उस समय जात-पात को समाप्त करने का एक तरीका अंतर्जातीय विवाह का भी सुझाया गया था, इस पर काम भी हो रहा था, पर यह दूर की कौड़ी थी। जो समाज मनुष्य को छूने से बचता है, उस समाज में विवाह की स्वीकार्यता असंभव थी। डॉ. आंबेडकर जाति प्रथा को समाप्त करने का अचूक हथियार अंतर्जातीय विवाह को मानते थे। डॉ. भगवानदास भी अंतर्जातीय विवाह के पैरोकार थे, बावजूद इसके कि वे हिंदू धर्मशास्त्रों के शब्दों का आदर करते थे, ये उनके वक्तव्य हैं। आर्य समाज जो जाति के प्रश्न को हल करने का अपने तरीके से कार्य कर रहा था, में यह नियम बना दिया गया था कि आर्य समाजी अपनी संतानों का विवाह जाति तोड़ कर करें और यदि जाति में करते हैं तो इसके लिए कोई उपयुक्त कारण (बहाना) ढ़ूढ़ लें और विवाह इतने गुपचुप तरीके से करें कि कम से कम लोग जानें। ऐसे में यह कहानी असाधारण ही नहीं क्रांतिकारी भी है।
प्रेमचंद के समय में दलितों पर केंद्रित कई तरह की क्रांतिकारी और असाधारण कहानियां लिखी गईं। इन कहानियों में ऐसी तमाम कहानियां हैं, जो प्रेमचंद की कहानियों से कहीं आगे थीं। लेकिन ऐसे लेखकों का अवदान एक-दो कहानियों तक ही सीमित था। इन सबने मिल कर जो काम किया, प्रेमचंद अकेले उनके बराबर काम कर रहे थे, वे अपनी कहानी में ज्यादा यथार्थपरक थे। वे यथार्थपरक क्यों थे, इस सवाल पर विचार किया जा सकता है।
प्रथम दृष्टया तो यह कि प्रेमचंद अपनी कहानियों में अछूतों की वास्तविक स्थिति को दर्शाते हुए समाज का मूल्यांकन कर रहे थे। उनकी कहानियों में उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता इस रूप में प्रमाणित होती है कि वे किसी से प्रभावित नहीं थे, न ही किसी एजेंडे के तहत लिख रहे थे। वे साहित्य को समाज के आगे चलने वाली मशाल कहते थे और वे यही कर रहे थे। बावजूद इसके दलित विमर्श से संबंधित कहानियों का आना असाधारण बात थी। ये कहानियां आगे के दलित विमर्श में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका इस रूप में निभाने वाली साबित हुईं कि इनसे विमर्श की शुरुआत तो हुई, जिससे विमर्श आगे बढ़ा। हां, बेशक उस समय दलित विमर्श जैसी कोई अवधारणा नहीं थी, होती भी कैसे? वह तो शुरुआत थी, अवधारणा का निर्धारण तो बाद में होता है।
कुछ आयाम और
स्वतंत्रता-आंदोलन के समय पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका क्या थी, यह किसी से अज्ञात नहीं है। अन्य भूमिकाओं के साथ समाज के उन्नयन की जिम्मेदारी भी पत्र-पत्रिकाएं उठा रही थीं। बेशक उस समय पढ़े-लिखों की संख्या समाज में कम थी, पर जितनी थी, उनके लिए ये पत्र-पत्रिकाएं महज सूचनाओं के माध्यम भर नहीं थीं, अपितु चेतना के प्रसार, जन-मानस का निर्माण, विचारधारा का प्रसार भी करती थीं। ये पढ़े-लिखे लोग उन बेपढ़े-लिखे लोगों तक यह पहुंचाते थे कि देश-दुनिया में क्या कुछ घटित हो रहा है। वर्ष 1901 से 1940 तक की पत्रिकाओं का अवलोकन करने पर यह ज्ञात होता है कि कोई भी ऐसी पत्रिका नहीं थी, जिसने दलितों से संबंधित साहित्य का प्रकाशन न किया हो। ‘चांद’ ने तो मई, 1927 में अपना अछूत अंक ही निकाला था। प्रेमचंद की महत्वपूर्ण कहानी ‘मंदिर’ इसी अंक में प्रकाशित हुई थी। लेकिन इन साहित्यिक पत्रिकाओं में से किसी ने भी आज के दलित और तब के अछूतों को लेकर कोई स्पष्ट अवधारणा या सिद्धांत नहीं दिया कि अछूतों के मानवीय अधिकार कैसे सुरक्षित किए जाएं, उनके जीवन में बेहतरी लाने के क्या उपाय हो सकते हैं, उनको मुख्यधारा में लाए जाने का जतन क्या हो ताकि समाज में एक वैचारिकी बन सके या समाज प्रेरित हो सके। हालांकि यह साहित्य का कार्य नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक है। लेकिन यही साहित्यिक पत्रिकाएं दूसरी तरह की वैचारिकी के लिए सामाजिक और राजनीतिक कार्य कर रही थीं। ऐसे में उन पर ऊंगली उठना स्वाभाविक है।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में सामाजिक आंदोलन भी अपनी गति से चल रहा था। इसके कई आयाम देखने को मिलते हैं। धर्म-परिवर्तन भी उनमें से एक महत्वपूर्ण आयाम था। छुआछूत का दंश झेल रहे बहुत से अछूत धर्म बदलकर ईसाई और मुसलमान बन रहे थे। उनके ईसाई या मुसलमान बनते ही वही ब्राह्मण जो कहता था कि तुने मेरी परछाई को क्यों छुआ, उसे सम्मान देने लगता था। धर्म-परिवर्तन के मर्म को समझने के लिए उस समय के एक कवि तुलसीदास जी ‘नवल’ की कविता बहुत मौजूं है–
“तब तो केवल भंगी ही था, अब है सब साहब-सा ठाट।
पहले छाया से थी घृणा, अब देते हैं कुर्सी खाट।
तब था राम कृष्ण का चेला, अब ईसाई कहलाता।
थी पहले गऊ माता मेरी, अब नित मांस गऊ का खाता।
कहते थे सब हिंदू, मुझसे दूर दूर रह दूर अरे।
अब सब हाथ मिलाते उससे, मिस्टर साहब बने खरे।
सिर पर थी चोटी हिंदू, इसीलिए घृणा थी खूब।
बना आज ईसाई जाकर, अभिमानी हिंदुन से ऊब।
जब वह तुम्हें मानता अपना मालिक व सरदार महान।
अब ठुकराता लगा टोप वह, कोट बूट टाई को तान।
कैसी बुद्धि हुई हिंदुन की जात-पांत का ताना तान।
शक्ति क्षीण करते हैं इससे, नष्ट हो रहे दीजे ध्यान।”
धर्म-परिवर्तन के खतरे से द्विज हिंदू बहुत अच्छे से वाक़िफ़ थे। उन्हें इस बात का बखूबी भान था कि वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि कामगार समाज का एक बड़ा वर्ग हिंदू धर्म-व्यवस्था में रहे। और वर्ण-व्यवस्था इसलिए ज़रूरी थी क्योंकि इससे द्विजों को वर्चस्ववादी सत्ता और आर्थिक लाभ मिलता था। गांधी, मदनमोहन मालवीय, जमनालाल बजाज सरीखे कितने ही अग्रणी नेता थे, जो अछूतों के साथ समभाव और बराबरी के लिए कहते थे, किसी भी तरह की छुआछूत के वे प्रबल विरोधी थे, लेकिन वर्ण-व्यवस्था को बनाये रखने के पक्ष में थे। गांधी 1935 में ‘हरिजन सेवक’ में लिखते हैं– “ब्राह्मण हो या शूद्र, जिसने स्वधर्म तज दिया वह पतित हो गया। पतित दशा में वह किसी भी वर्ण का नहीं। वह पुनः स्वधर्म का पालन, अपने धंधे का पालन करके अपनी भूल सुधार सकता है।”
गांधी 1922 में जाति-व्यवस्था के पक्षधर थे, लेकिन 1925 में जाति-व्यवस्था के प्रति उनका दृष्टिकोण बदल गया था। परंतु, वर्ण-व्यवस्था में उनकी आस्था सदैव बनी रही। गांधी गुजराती में लिखे एक लेख, जो ‘वर्ण-व्यवस्था’ पुस्तक में पुनर्मुद्रित है, में कहते हैं– “मैं विश्वास करता हूं कि वर्णों का विभाजन जन्म पर आधारित है। वर्ण-व्यवस्था में कोई ऐसी बात नहीं है, जो शूद्रों को विद्या अध्ययन अथवा आक्रमण या प्रत्याक्रमण वाली सैनिक युद्ध कला सीखने से वंचित करती हो। इसके विपरीत भी, क्षत्रिय की सेवा अथवा नौकरी करने का विकल्प भी खुला है। वर्ण-व्यवस्था द्वारा उस पर भी कोई रोक नहीं है। वर्ण-व्यवस्था इस बात पर भी रोक लगाती है कि शूद्र इस अध्ययन को ही अपनी आजीविका नहीं बनाएगा। इसी प्रकार ब्राह्मण युद्धकला या वाणिज्य सीख सकता है, परंतु उसे अपनी आजीविका नहीं बनाएगा। वैश्य भी विद्या प्राप्त कर सकता है अथवा युद्ध कला सीख सकता है, उसे आजीविका नहीं बना सकता।”
सुजीत कुमार सिंह अपनी संपादित पुस्तक ‘अछूत’ की भूमिका में लिखते हैं– “कांग्रेस ने अपने जन्म से ही अछूत समस्या से दूर रहने की भरसक कोशिश की। अपने कार्यक्रमों में अछूतों को कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं दिया। करीब 45 वर्ष बाद कांग्रेस ने दिल्ली में ‘अखिल भारतवर्षीय राष्ट्रीय महासभा समिति’ बनाई, जिसमें मदनमोहन मालवीय और जमनालाल बजाज को सम्मिलित किया गया। परंतु छह माह बीत जाने के बाद दोनों ने कोई ठोस कार्य नहीं किया। हां, एक अपील प्रकाशित करके अछूतों की दशा सुधारने के संबंध में अपने विचार जरूर प्रकट किये। मदनमोहन मालवीय व्याख्यान देने में माहिर थे। वे अपने व्याख्यानों में दकियानूसी विचारों को प्रकट करके हिंदू-समाज की विशृंखलताजनक रूढ़ियों का पोषण करते रहते थे। एक ही सांस में जाति-भेद का समर्थन और अंतर्जातीय विवाहों का विरोध कर वे अस्पृश्यता के प्रयत्न में प्रेम और समझौते से काम लेने की बात करते थे। वे अछूतों के प्रति उदासीन रहते थे। उनके विचारों में खोखलापन स्पष्ट झलकता था।”
साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं भी वर्ण-व्यवस्था के पोषण का दायित्व निभा रही थीं, जबकि पूरी दुनिया में बदलाव की तेज बयार बह रही थी। बराबरी के अधिकार को लेकर कानून बनाए जा रहे थे। ऐसी स्थिति में साहित्यिक पत्रिकाओं का इस दिशा में पहल न करना, इस विषय पर लोकमत का निर्माण न करना, उनके ऊपर प्रश्नचिह्न लगाता है।
साहित्यिक पत्रिका ‘माधुरी’ (जुलाई, 1935) के संपादक ने अपने संपादकीय में लिखा– “वर्णाश्रम-धर्म प्रणाली से हम राष्ट्रवाद की रक्षा कर सकते हैं। यदि हिंदू अपना विकास देखना चाहते हैं तो इसकी रक्षा करें अन्यथा भविष्य यह होगा कि हिंदू समाज लुंज-पुंज हो जाएगा।”
‘ब्राह्मण सर्वस्व’ के संपादक भी वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखने के पक्षधर थे और इसके ऊपर खुलकर लिखते थे। दिसंबर, 1931 का अंक इसका गवाह है। उसका एक अंश यह है– “वर्ण-व्यवस्था के कारण ही हिंदू जाति आज तक जीवित है। भारत वर्ष की रक्षा वर्ण-व्यवस्था ने ही की है। वर्ण-व्यवस्था के कारण आज सैकड़ों-हजारों वर्षों से हिंदू जाति अनेक आघातों के होने पर भी जीवित चली आ रही है।” ‘चांद’ और ‘सरस्वती’ जैसी पत्रिकाएं भी इससे अछूती नहीं थीं। सुजीत कुमार सिंह भी अपनी संपादित किताब के ‘अछूत’ में लिखते हैं कि “हिंदी नवजागरणकालीन पत्रिका दलितों को यह बताती रहती थी कि तुम हिंदू हो और लाख पीड़ा होने के बाद भी उसका पालन करना तुम्हारा धर्म है।”
‘चांद’ लिखता है– “सदियों से उच्च वर्ण के हिंदुओं द्वारा तिरस्कृत और अपमानित होकर भी उन्होंने हिंदू धर्म के प्रति प्रेम नहीं छोड़ा है। आज भी वे अपने को हिंदू और ब्राह्मण को पूज्य कहने में अपना गौरव समझते हैं।”
ऐसे कुछ उदाहरणों से पत्रिकाओं की प्रवृति को समझा जा सकता है। पत्रिकाएं इसके अलावा अपनी बेहतरीन भूमिका तो अदा कर रही थीं, लेकिन यह सनद रहे कि यह बात उस समय के दलित संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में हो रही हैं। तो ये पत्र-पत्रिकाएं उस समय के अछूतानंद, डॉ. आंबेडकर, फुले, पेरियार आदि के आंदोलनों व कार्यों को तवज्जो क्यों नहीं दे रही थीं? किसी लेखक से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह अमुक विषय पर लिखे या बोले ही, लेकिन किसी पत्र और पत्रिका की तो यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह समाज के स्पंदन को महसूस करे और कमजोरों, वंचितों, मजलूमों और असहायों की भाषा बने।
प्रेमचंद ‘हंस’ पत्रिका की शुरुआत 1930 में करते हैं। फिर 22 अगस्त, 1932 को वे ‘साप्ताहिक जागरण’ की शुरुआत करते हैं। ‘हंस’ पत्रिका और ‘साप्ताहिक जागरण’ में अछूतों की सामाजिक स्थिति व उससे विमर्शों को लेकर प्रेमचंद का रुख अस्पष्ट था। हालांकि वे साहित्यिक पत्रकारिता में भी अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हैं। यही कारण था कि अपने संपादकीय में वे अछूतों के लिए रोजगार, आर्थिक समृद्धि जैसी बातों को लेकर आते हैं और यहां तक कि ‘हंस’ के मुखपृष्ठ पर डॉ. आंबेडकर का चित्र भी छापते हैं।