अंजनी कुमार
पिछले पांच दिनों से मानसून से होने वाली बारिश का भयावह रूप दिखने लगा है। पिछले पखवाड़े से ही हिमाचल और उत्तराखंड में बादल के फटने की छिटपुट घटनाएं सामने आने लगी थीं। पहाड़ों का टूटकर गिरना, गदेरों में अचानक बारिश से होने वाला बहाव का हिंसक तरीके से बढ़ते हुए आना और अपने साथ मकानों को बहा ले जाने का भयावह दृश्य सोशल मीडिया पर दिख रहा था। लेकिन, इस बीच बादल फटने, नदियों में आए अचानक उफान और पहाड़ों के टूटकर गिरने की घटना में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई दिख रही है।
शिमला, कुल्लू और मंडी में पिछले 24 घंटे में बादल फटने से बाढ़ और तबाही का मंजर देखने को मिला है जिसमें कम से कम 5 लोगों की मौत और 50 से अधिक लोगों के लापता होने की खबर आ रही है। उत्तराखंड में केदारनाथ जाने वाले रास्ते में सोनप्रयाग में एक पूरे पहाड़ के टूटकर नीचे आ जाने की खबर वायरल हो रही है। वहां हजारों लोगों के फंसे होने और 16 लोगों के मारे जाने की खबर आ रही है। उत्तराखंड में देहरादून, उत्तरकाशी से लेकर टिहरी और केदारनाथ तक बारिश ने पिछले 60 साल का रिकार्ड तोड़ दिया है। कई जगहों पर सड़क के बह जाने, पहाड़ों के टूट जाने से रास्ता बंद होने आदि की खबरें हैं।
इस बीच केरल के वायनाड में पहाड़ टूटने और भूस्खलन से हुई मौतों की संख्या 300 से ऊपर जा चुकी है। 31 जुलाई, 2024 को दिल्ली और गुरूग्राम में हुई भारी बारिश से कम से कम 9 लोगों के मारे जाने की खबर है। पिछले 10 दिनों में मुंबई और पूणे ने बारिश का मंजर देखा, जिसमें कई जानें गईं और तबाही के डरावने दृश्य सामने आये। इस समय मध्य-प्रदेश में नदियां उफान पर हैं। मौसम विभाग गुजरात सहित जम्मू-कश्मीर के लिए सतर्क रहने का निर्देश जारी किया है।
जबकि पिछले दो महीने में जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बारिश नहीं हुई है और वहां राज्य को ‘सूखा क्षेत्र’ घोषित करने की मांग हो रही है और बारिश के लिए मन्नतें मांगी जा रही हैं। लद्दाख की स्थिति और भी भयावह है। वहां का तापमान 36 डिग्री तक जा रहा था, जिससे हवा का घनत्व इतना कम हो गया कि कई हवाई जहाज की उड़ानों को रद्द करना पड़ा। वहीं उत्तर-प्रदेश का पूर्वांचल और उत्तर बिहार में सामान्य से कम बारिश की खबरें हैं। जबकि औसत की दर पर अभी तक मानसून की बारिश में इस साल 3 प्रतिशत अधिक की बढ़ोत्तरी देखी जा रही है।
भारत में पर्यावरण का इस समय जो परिदृश्य है, वह सामान्य नहीं हैं। भारत में बारिश, गर्मी और सर्दी को प्रभावित करने वाले कारकों में मुख्य कारक खगोलीय भूस्थिति है जिससे मौसमी बदलाव आता है। दूसरे नम्बर पर समुद्री हवाएं भूमिका निभाती हैं। तीसरी, भूपारिस्थितिकी है जिस पर ये हवाएं और मौसम काम कर रही होती हैं। इन सभी के ऊपर इंसान की भूमिका है जो शहरों के निर्माण से लेकर खेत में उत्पादन और पहाड़-जंगलों के साथ एक ऐसा संबंध कायम करता है, जिसका सीधा प्रभाव वह प्रकृति पर डालता है और बदले में उससे हासिल प्रभावों से वह खुद प्रभावित होता रहता है।
प्रकृति में एक जैसी घटनाएं जरूरी नहीं हैं कि वे एक ही कारण से घट रही हों। जैसे केरल में मानसून की बारिश में वायनाड में हुआ भूस्खलन का वही कारण नहीं है जो हिमांचल और उत्तराखंड में दिख रहा है। इसी तरह कश्मीर में बारिश का न होना और बारिश होने के परिणाम निश्चित ही अलग कारणों से घटित होगा। लेकिन, इसमें बारिश का अचानक तेजी से होना, जिसे बादल के फटने की एक सामान्य घटना माना जाता है।
जुलाई के पहले हफ्ते में मानसून और पश्चिमी विक्षोभ की गर्म हवाओं के सम्मिलन से बादलों के असामन वितरण की संभावना प्रकट की गई थी और असमान बारिश का अनुमान किया गया था। इसका मुख्य क्षेत्र गुजरात, महाराष्ट्र से लेकर पंजाब, हरियाणा, कश्मीर, हिमांचल, उत्तराखंड और दिल्ली-एनसीआर बताया गया। यह वही समय था जब अलनीनो के खत्म होने की घोषणा कर दी गई थी और अलनीना के शुरू होने की खबरें सामने आ रही थीं। इस दोनों के बीच के संक्रमण का समय तय करना मुश्किल लग रहा था। क्योंकि इस समय तक अमेरीकी महाद्वीप पर हीट डॉम, जो कई सौ किमी का था, का असर वहां की बढ़ती गर्मियों में देखा जा रहा था।
यही स्थिति यूरोपीय देशों की भी थी। इस 21 और 22 जुलाई को अब तक के इतिहास में औसत विश्व तापमान अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुंच गया था। इसका असर मध्य एशिया पर भी देखा गया। ऐसे में भूमध्य सागर से चलने वाली गर्म हवा, जिसे भारत के संदर्भ में पश्चिमी विक्षोभ नाम दिया गया है, का असर भारत की ओर आने वाली मानसूनी हवाओं के साथ मिलकर क्या परिणाम देगा, इसका अनुमान एक जटिल काम था। निश्चित ही, ऐसा संयोगवश ही होता है। लेकिन, हाल ही में पुणे से लेकर मुंबई तक हुई भयावह बारिश को इन संयोगों के मद्देनजर देखना उपयुक्त होगा। लेकिन भारत में विभिन्न जगहों पर बादलों के फटने को समझना जरूरी है।
बादल का फटना क्या है? बादल कोई गुब्बारा नहीं होता जिसमें पानी भरा होता है और उसके अचानक फट जाने से पानी एकदम से गिर जाता है। बादल फटना एक मौसम विज्ञान का शब्द है, जिसका अर्थ है 20 से 25 किमी के दायरे में एक घंटे में 10 सेंटीमीटर या 100 एमए से अधिक हुई बारिश। बारिश से नीचे आई कुल जलमात्रा उपरोक्त दायरे में 1 वर्ग किमी के दायरे में 10 करोड़ लीटर पानी हो जाता है। ऐसे में, 20 से 25 किमी के एक छोटे से दायरे में यह 200 से 250 करोड़ लीटर जल हो जाता है। इस बारिश का असर कितना होता है, आप इसे दिल्ली के संदर्भ में देख सकते हैं। इस 31 जुलाई की शाम को दिल्ली में हुई बारिश कुछ ही जगहों पर 10 सेंटीमीटर के आसपास थी। अन्य जगहों पर कम थी। इसके बावजूद दिल्ली की सड़कें ही बारिश में नहीं डूबीं, नई बनी संसद की इमारत भी चूने लगी। इसमें शहर की पूरी व्यवस्था चरमराने लगी।
इस समय उत्तराखंड, हिमांचल और केरल में बारिश का स्तर दिल्ली के मुकाबले कई गुना अधिक है। पहाड़ों में होने वाली बारिश आमतौर पर लंबे समय तक बनी रहती है। केरल में मानसून का असर अधिक होने से बारिश की अधिकता और बारम्बारता अधिक रहती है। यह स्थिति पूरे पश्चिमी घाट और ऊपर की ओर महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के ऊपरी हिस्सों तक आती है। हिमालय की पहाड़ों में बादलों के टकराने से उनके संघनित होने और वहां बने रहने से बारिश की बारम्बारता बढ़ने की संभावना प्रबल हो उठती है। कश्मीर और लद्दाख हिमालय की ही दो ऋंखलाओं के बीच होने की वजह से वहां भारी बारिश और सूखा दोनों की संभावना रहती है। इस पर पश्चिमी विक्षोभ का सबसे अधिक असर रहता है।
यहां यह बात भी समझनी जरूरी है कि हिमालय क्षेत्र के पहाड़ों की मिट्टी में क्षार की मात्रा अधिक होती है। और, इसके पहाड़ अधिक टूटे हुए हैं। यह टूट निरंतर चलती रहती है। ऐसे में मिट्टी और पहाड़ की आपसी पकड़ भारत के अन्य पहाड़ों की अपेक्षा काफी कमजोर है। हिमालय काफी ऊंचा होने से यहां बर्फ का गिरना और ऊंची पहाड़ियों पर साल भर बर्फ बना रहता है। इसकी वहज से हिमालय का क्षेत्र वनों और वनस्पतियों के मामले में काफी धनी है। लेकिन, विश्व तापमान में बढ़ोत्तरी ने इन ग्लेशियरों को पिघलाना शुरू किया जिससे पहाड़ों पानी का जमाव और रिसाव पहले की अपेक्षा पिछले 20 सालों में तेजी से बढ़ा है।
इस दौरान हिमालय क्षेत्र में कथित विकास की गतिविधियां और लगातार वन कटाई ने पहाड़ों को और कमजोर किया है। खासकर, सड़क और मकान निर्माण तेजी से बढ़ा है। सुरंगों का निर्माण और विद्युत परियोजनाओं के असर ने भी पहाड़ों को कमजोर किया है। पिछले 20 सालों में पर्यटन और धार्मिक यात्राओं के असर ने पहाड़ की पारिस्थितिकी पर बुरा असर डाला है। इसे हम कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में देख सकते हैं।
भू-पारिस्थितिकी और भू-क्षेत्र की विशिष्टता को ध्यान में न रखने की वजह से हिमालय में सामान्य तौर पर जल बहाव पहाड़ों में अपना रास्ता बनाते हुए न सिर्फ नये झीलों का निर्माण किया है, इसने पहाड़ों को कमजोर किया है। क्षारीय मिट्टी और पहाड़ के बीच सेतु का काम करने वाले वनस्पतियों के नष्ट होने और जलबहाव के आम रास्ते को बंद करने का परिणाम उस समय भयावह हो जाता है जब बादल फटने की घटना होती है। पहाड़ की ऊचांई पर अचानक बारिश की मात्रा अधिक होने और उसके तेजी से नीचे आने में पहाड़ तक दरक जाते हैं और उस पर बसे लोगों का जीवन खत्म होने की विभीषिका में फंस जाता है।
केरल के वायनाड में स्थिति थोड़ी भिन्न है। अखबारों में इस संदर्भ में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् माधव गाडगिल के नेतृत्व में बनी कमेटी द्वारा प्रस्तुत की गई 2011 की रिपोर्ट की कछ संस्तुतियां छपी हैं। यह रिपोर्ट मुख्यतः पश्चिमी घाट के जंगलों और इसके हिस्से में आने वाले क्षेत्रों के पर्यावरण को बचाने के संदर्भ में कई संस्तुतियां प्रस्तुत करती हैं।
इस क्षेत्र में अंग्रेजों के शासन काल में ही काफी छेड़छाड़ हुई थी। खासकर, मूल वनस्पतियों को खत्म कर चाय, काफी, रबड़ की खेती एक बड़े छेड़छाड़ को रेखांकित करती है। यहां की मिट्टी में क्षार कम है और पहाड़ में टूट वैसा नहीं जैसा उत्तराखंड जैसे राज्यों में है। केरल के क्षेत्र के पहाड़ों की टूट से बने गर्त के बीच से जलप्रवाह के रास्ते हैं। लंबे समय में खेती और बसावट के लिए इन गर्तों को भरने और अपप्रवाहों को भर देने और इसी तरह की बसावटों के विस्तारित होते जाने की वजह से बारिश की अधिक और बारम्बारता से जल जमाव के साथ-साथ इसके बाहर निकलने का रास्ता बनना एक प्राकृतिक प्रक्रिया ही है।
भू-क्षेत्रों का निर्माण मनुष्य अपनी जरूरत के लिए करता है लेकिन यह काम वह उसकी प्रकृति की अनुरूपता को ध्यान में रखकर न करे तब उसका प्रकृति के साथ टकराहट तय होता है। केरल के वायनाड की घटना इसी के अनुरूप लग रही है। वायनाड में पहाड़ में हुआ भूस्खलन वहां की बसावट के काफी ऊपर से हुई है। मिट्टी की पकड़ कम होने और इतने बड़े हिस्से के अचानक नीचे आ जाने के पीछे निश्चित ही जलसंचयन और प्रवाह की एक बड़ी ताकत ही संभव है। आने वाले समय में इस पर और शोध इन कारणों का जरूर पता करेंगे जिससे आने वाले समय में इंसान की जिंदगी प्रकृति के साथ सानिध्य में संगत तरीके से चल सके।
यहां एक और उदाहरण देना उपयुक्त होगा। भारत के मध्यकाल में, जब वास्तुनिर्माण की तकनीक और उन्नत हुई तब मुगलकाल में शाहजहां ने देश की राजधानी को दिल्ली लाने का निर्णय लिया। उस समय तक उसने ताजमहल का निर्माण आगरा में यमुना के तट पर करा लिया था। उसने वही तकनीक दिल्ली में यमुना के किनारे लाल किले के निर्माण में अपनाई। उसने ऊंचे चबूतरों के निर्माण के साथ-साथ पानी के निकास और आपूर्ति की एक पूरी व्यवस्था बनाई। शाहजहानाबाद का निर्माण भी उसने इन्हीं तकनीकों के आधार पर किया।
इतिहास के पन्नों में फिलहाल ऐसा कोई जिक्र नहीं आता जिसमें यमुना के बाढ़ का पानी किले में घुस गया हो और चारों ओर जल ही जल दिख रहा हो, जैसा आजकल दिखने लगा है। अपवाद संभव है। 1990 तक यमुना का तट वैसा नहीं रहा जैसा इसके पहले था। और, इसके बाद इसका तट ही लुप्त होने लगा। अब सिर्फ आईटीओ ही नहीं डूबता अब लाल किला भी डूबने लगा है। शहर और कस्बों का निर्माण, खेती और कारखानों का निर्माण यदि परिस्थिति और भूक्षेत्र की खूबियों को नकार जाएं तब ये ही अपने होने का प्रकटीकरण किसी और तरीके से करने लगते हैं। इसे सिर्फ प्रकृति की लीला कहना ही उपयुक्त नहीं है बल्कि यह दरअसल मनुष्य की लीला है जिसे प्रकृति प्रदर्शित करती है।
पिछले कुछ वर्षां में प्रकृति और इंसान के बीच का जो सामान्य सा रिश्ता होता था, वह टूटता हुआ दिख रहा है। भयावह गर्मी, इसी तरह की बारिश और बर्फहीन जाड़ा या बर्फ बना देने वाली ठंड मौसम के वे मुकाम हैं, जिसमें से इंसान गुजर रहा है। कितने ही लोग इन्हीं कारणों से मारे जा रहे हैं। कितनी ही वनस्पतियां और जीव मौसम के इस बदलाव में मारे जा रहे हैं। दुनिया के शासक वर्ग और उनके नुमाइंदे कॉप जैसी संस्था में बैठकर हर वर्ष मौसम की जुगाली करते हैं। एक दूसरे पर आरोप लगाते हैं। और, भारत जैसे देश के कई नुमाइंदे, जिसमें अडानी भी शामिल हैं, हरित उर्जा की डींग हांकते हुए दिखते हैं। जबकि सच्चाई क्या है? कोयले के बाजार और खपत के लिए आस्ट्रेलिया से लेकर मध्य भारत के हंसदेव जंगल की कटाई में अडानी का नाम ही सर्वोच्च शिखर पर दिखता है।
एक तरफ बजट में पर्यावरण अनुकूल खेती की बात की जा रही है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरण को तबाह करने वाली नीतियां धड़ल्ले से चलती जा रही हैं। एक तरफ मां के नाम पर एक पेड़ लगाने की बात हो रही है, दूसरी ओर उत्तराखंड में कुल जंगलों के क्षेत्रफल की कमी का आंकड़ा भी सामने आता है। यह नीति और परिणाम के बीच की महज सामान्य सी विडम्बना नहीं है। यह भयावह किस्म की चल रही धंधेबाजी है।
यह वह विकास की तेज रफ्तार वाली हाइवे है, जिस पर पैदल, साइकिल, दोपहिया, बैलगाड़ी जैसे वाहनों का चलना निषिद्ध है। जबकि इसके किनारों पर बसने वाली बहुसंख्य आबादी इन्हीं वाहनों का प्रयोग करती है। इस हाइवे के सारे कुपरिणामों का खामियाजा यही आबादी झेलती है। पर्यावरण के संदर्भ में भी ठीक यही बात है। जबकि मीडिया इसे प्रकृति का प्रकोप बताते हुए दिखाती है और रोमांचक ढंग से इस तरह पेश करती है। जिससे इस तबाही से होने वाली पीड़ा और बर्बादी ढंक जाए और सिर्फ दृश्य बना रह जाए।
ऐसे में जरूरी है कि तबाही और बर्बादी की ठीक तस्वीरों को सामने लाया जाए। उन कारणों को ठोस बनाया जाए जिससे ये तबाहियां हो रही हैं। जो इसके लिए उत्तरदायी हैं, उनके बारे में कम से कम प्रपत्र तो ज़रूर ही जारी किया जाये। और, सबसे अधिक पर्यावरण को बचाने के लिए एक दूसरे का हाथ पकड़कर प्रकृति की रक्षा में खड़ा हुआ जाये। इस संदर्भ में लोगों को जागरूक बनाया जाए।