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जाति चक्रव्यूह में फंसा देश

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शायद आज़ादी के बाद यह पहला अवसर है जब संसद के भीतर और बाहर देश के जाति -यथार्थ को लेकर माहौल ज़बर्दस्त गर्माया हुआ है। हालांकि, 1989 -90 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के शासन काल में भी मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने के सवाल पर भी देश आंदोलित था। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में ‘कमंडल आंदोलन’ चला कर मंडल आंदोलन को ज़वाब देने की कोशिशें की गईं थीं। लेकिन, इस दफ़े  राहुल गांधी के नेतृत्व में सम्पूर्ण प्रतिपक्ष ‘जाति जनगणना’  के मुद्दे पर लगभग एकमत है। यह भी शायद पहला अवसर है जब सत्ता पक्ष के एक सांसद अनुराग ठाकुर ने बगैर नाम लिए जाति के सवाल पर प्रतिपक्ष के मान्य नेता राहुल गांधी पर ‘जाति पहचान’ को लेकर  हमला बोला

रामशरण जोशी

सदन के भीतर और बाहर नए सिरे से बहस होने लगी। हैरत तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अनुराग ठाकुर का परोक्ष रूप से अपने ट्वीट के ज़रिये समर्थन कर दिया। कांग्रेस चुप नहीं रहने वाली थी। उसने भी मोदी जी के विरुद्ध विशेषाधिकार हनन का मुद्दा उठा दिया है। बेशक, लोकसभा का पारा ऊंचा जाएगा, इसके साथ देश की राजनीति का भी। इसी दौरान कांवड़ियों ने भी वातावरण गरमा दिया है; दुकानदारों-ठेलेवालों से अपने नाम उजागर करने के लिए कहा गया है; चंद कांवड़ियों की उत्पाती हरकतें भी सामने आई हैं; साम्प्रदायिक सौहार्द तिड़क सकता है। 

संयोग से इसी बीच प्रेमचंद की जन्म जयंती भी देश में मनाई जा रही है। हिंदी पट्टी के शिक्षण संस्थानों और बौद्धिक क्षेत्रों में ‘प्रेमचंद की प्रासंगिकता‘ पर भी गोष्ठियों का आयोजन चल रहा है। आयोजन के मुख्य विषय रहते हैं: जातिवाद, साम्प्रदायिक एकता, कृषक संकट, मध्यवर्ग का चरित्र, वर्तमान राजनीति की दशा-दिशा, बुद्धिजीवियों के उत्तरदायित्व आदि। एक ऐसी ही गोष्ठी विदिशा में हुई थी। यह पत्रकार भी निमंत्रित था।गोष्ठी का विषय था : प्रेमचंद और हमारा समय। 

वास्तव में, सवाल उठता है कि 21वीं सदी के पूर्वार्द्ध में 19वीं और 20 वीं सदी (1880 -1936 )  के कथाकार को क्यों याद किया जाना चाहिए? दशकों के बाद क्या उनकी प्रासंगिकता रहनी चाहिए? उनकी साहित्यिक कर्मभूमि सामंती और औपनीवेशिक काल की है। तब हम उन्हें आज़ाद और विकासशील भारत में क्यों याद करें? प्रेमचंद के उपन्यास और कहानी के किरदार (होरी,धनिया, गोबर, पंडित मातादीन, झिंगुरी सिंह, पटेश्वरी लाल, राय साहब, ओमकारनाथ शुक्ल, घीसू आदि) बीती सदी के विलुप्त प्रतिनिधि हैं; निर्मला, ईदगाह, कफ़न, दो बैलों की कथा, नमक का दरोगा, ग़बन, शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, सदगति, पंचपरमेश्वर जैसी कृतियों के कथानक हाईटेक व बुलेट ट्रेन भारत के लिए पुराण सामग्री बन चुके हैं।

अब इंडिया की महत्वाकांक्षा है पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थ व्यवस्था बन जाने की।हमारे कॉर्पोरेट पूंजीपति अपनी संतानों की शादियां तीन चरणों में संपन्न करते हैं: 1. पूर्व विवाह जश्न;2. विवाह जश्न  और 3. उत्तर विवाह जश्न। इन त्रिस्तरीय जश्नों में हज़ारों करोड़ रु. व डॉलर बहाये  जाते हैं.आधुनिक काल में विश्व गुरु के स्वप्न से लैस विराट व भव्य सनातनी भारत उभरता दिखाई दे रहा है। ऐसे भ्रम का आकाश निर्मित हो रहा है! 

आज चमचमाते मॉल, पब्लिक स्कूल, मेट्रो ट्रेनें, डीलक्स गगनचुम्बी अप्पार्टमेंट्स, फ्लाईओवर, आलीशान  सात सितारा होटल -पांच सितारा निजी हॉस्पिटल, मल्टीप्लेक्स, भव्य विश्वविद्यालय, फर्राटे भरती सुपर लग्ज़री कारों का काफ़िला, जगमगाते मंदिर-मस्ज़िद आदि के भव्य मायालोक में आधुनिक शहरी भारत और अर्ध शहरी भारत का बास पसरता जा रहा है। महानगरों, नगरों और उभरते कस्बों के सड़क- किनारे स्टारबक्स,बरिस्ता, कोस्टा कॉफ़ी, टिम मोर्टन मेकडॉनल्ड, पिज़्ज़ाहट, केंचुकी चिकन जैसे विदेशी व्यञ्जनों के ठिकाने मिल जायेंगे। अब देश के नेता आयातित कारों में घूमते दिखाई देंगे।

हवाई अड्डों पर रेल स्टेशन और बस अड्डों जैसी भीड़ दिखाई देगी। रेल पटरियों पर तेज़रफ़्तारी ट्रेनें सवार होती जा रही हैं। पैसेंजर गाड़ियों का ज़माना लद चुका है। तीसरी क़सम की बैल गाड़ी भी ऊंघती नज़र आ रही हैं। उनकी जगह छोटी कार और मोटर बाइक लेती जा रही हैं। ईरिक्शा ने तांगा, साइकिल रिक्शा, टट्टू गाड़ी जैसे मंथर गति के वाहनों को कबाड़ख़ाने की शोभा बना दिया है। अब गोदान के नायक होरी को खेतों में ट्रैक्टर, हार्वेस्टर दौड़ते दिखाई देंगे। सरकारी और निजी बैंक क़स्बा -क़स्बा पहुंचते जा रहे हैं। छतों पर कुकुरमुत्ते की भांति टीवी डिस्क चमकती दिखाई दे रही हैं। टीवी सेटों ने चौपालबाज़ी और शहरों की अड्डेबाज़ी को बेदख़ल कर दिया है।

अब दीवार से छिपकली- से चिपके लीड टीवी से सटे बच्चे, किशोर, प्रौढ़ और वृद्ध दिखाई देंगे। ऐसे भारत में पहुंचकर हमारा होरी भ्रमित नहीं हो जायेगा ! होरी का जन्मदाता  प्रेमचंद स्वयं को बेगाना समझेगा। लेखक को अपने ही कथानकों पर अविश्वास होने लगेगा। उसके द्वारा रचित किरदार ‘मिथ के पुतले’ नज़र आने लगेंगे। बीती सदी के कथा महानायक प्रेमचंद खुद पर विश्वास नहीं कर पाएंगे कि यह वही भारत है जिसने उनके कालजयी साहित्य को जन्म दिया था! क्या सब कुछ असत्य हो गया है? क्या सब कुछ बेसबब हो चुका है? क्या वे पाठ्यक्रम और गोष्ठियों की कमोडिटी में तब्दील हो चुके हैं? आज के भारत या हिन्दुस्तान का यथार्थ कुछ दूसरा ही है, जिसका रिश्ता उनके साहित्य से नहीं है। 31 जुलाई,1880 को जन्मे धनपत राय श्रीवास्तव उर्फ़ मुंशी प्रेमचंद स्वयं ही स्वयं के सवाल- बाणों से लहूलुहान हो जायेंगे।

इस चमकीले हिन्दुस्तान के बरक़्स आहिस्ता आहिस्ता सांसें लेता और धीमे धीमे करवटें बदलता एक और भी हिन्दुस्तान है। इस दूसरे हिन्दुस्तान में प्रेमचंद और उनके लगभग सभी किरदार बास करते हैं। कथानक जीवंत हो उठते हैं। प्रेमचंद हमेशा किसानी संकट से चिंतित रहे हैं। वे ग्रामीण भारत के सबसे सशक्त सृजनात्मक प्रवक्ता थे।1936 में प्रकाशित गोदान उपन्यास में उनकी पीड़ा का क्लाइमेक्स सामने आया है। अब 21वीं सदी के इस हिंदुस्तान में देखिये: 1. 1995 – 2014 की अवधि में 296438 किसानों ने  ख़ुदकुशी की;2. इसके बाद 2022 तक 100474 किसानों की खुदकुशियां सामने आईं;3. एक प्रकार से ख़ुदकुशी की घटनाओं में 10% की वृद्धि हुई( नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ) वैसे अनौपचारिक क्षेत्रों का मानना है कि वास्तविक आंकड़े कई गुना अधिक हैं।

ख़ुदकुशी की वज़ह है गांवों की महाजनी समाज व अर्थ व्यवस्था। इस व्यवस्था में सूदखोरी, सवर्णों द्वारा आरोपित रीति -रिवाज़, भूमि पर दबंगों का कब्ज़ा, कोर्ट-कचहरी, बैंकों की धोखाधड़ी, पटवारी और स्थानीय कर्मचारियों की चालाकियां, ज़ोरावर तबकों के साथ सांठ-गाँठ जैसे कारण किसानों को आत्महत्या के लिए मज़बूर करते आये हैं। 1976 में इंदिरा गांधी -सरकार ने ऋणमुक्ति क़ानून और बंधक श्रमिक प्रथा उन्नमूलन क़ानून बनाये थे। लेकिन, पिछले 50 -55 सालों में इन दोनों क़ानूनों पर ईमानदारी के साथ अमल नहीं किया गया।

इस पत्रकार के निजी अनुभव हैं कि देश के भीतरी क्षेत्रों में आज भी बंधक श्रमिक प्रथा के विभिन्न रूप ज़िंदा दिखाई देंगे। किसानों का पलायन अब भी जारी है; छत्तीसगढ़, बिहार, ओडिशा, झारखण्ड जैसे प्रदेशों से सीमान्त किसानों का अन्य प्रदेशों में जीवन यापन के लिए पलायन जारी है; शहरों में भवन निर्माण के लिए परोक्ष बंधक श्रमिक (प्रचलित पहचान -अनुबंधित श्रमिक) अपने गांवों से गमन करते हैं और पीढ़ी -दर-पीढ़ी क़र्ज़ में दबे रहते हैं। कइयों के जीवन का पटाक्षेप ‘आत्महत्या’ में होता है। कोविड -काल में देश ने प्रवासी खेतिहर श्रमिकों का त्रासद अंत देखा ही था। इसकी तस्दीक़ लॉकडाउन की घटनाओं से की जा सकती है; गंगा -यमुना  शव वाहिनी का रूप ले चुकी थीं। 

इसी दौर के किसान आंदोलन की यादें अभी ताज़ा हैं। किसान विरोधी तीन काले कानूनों के विरुद्ध चला किसान आंदोलन को कैसे भुलाया जा सकता है? एक वर्ष तक किसानों ने राजधानी दिल्ली को चारों तरफ से घेरे रखा। आखिरकार सरकार को किसान शक्ति के सामने घुटने टेकने पड़े और तीनों कानूनों को वापस लेना पड़ा। लेकिन, इस आंदोलन में 700 से अधिक किसानों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। संवेदनहीनता के साथ मोदी सत्ता खामोश रही।

प्रेमचंद के साहित्य में जाति -प्रथा का संत्रास भी शिद्द्त के साथ  सामने आया है; सदगति, कफ़न जैसी कहानियों में दलितों के प्रति ऊंची जातियों की सनातनी घृणा; दलितों का अमानवीयकरण और नारकीय जीवन जीने की नियति; सवर्ण सत्ता को यथावत रखने के लिए धार्मिक हथकंडों का प्रयोग जैसी घटनाओं पर आधारित है कथानक। लेकिन, देखना यह कि क्या स्वतंत्र भारत के ग्रामीण संसार में ऐसी घटनाओं का खात्मा हो चुका है? क्या ‘जाति -पिरामिड‘ ध्वस्त हो गया है?

ऐसा निष्कर्ष सत्य के साथ अन्याय करना होगा। इस दूसरे हिन्दुस्तान में दलितों के विरुद्ध ऊंची जातियों के अत्याचार कम होने की जगह, बढ़े हैं। अनुसूचित जाति – मानवता के विरुद्ध जातिगत हिंसा में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है; 2021-23 की अवधि में 50, 900 हिंसक घटनाएं घाटी हैं।( टाइम्स ऑफ़ इंडिया, 6 दिसंबर 23)। अनुसूचित जनजाति के लोगों को भी ऊंची जातियों के हिंसक प्रकोप का शिकार होना पड़ा है; दिसंबर 23 में हिंसा के शिकार  10064 आदिवासी हुए, जबकि 2022 में 8802 थे?।

दलित और आदिवासियों के विरुद्ध हिंसक अपराधों में हत्याएं, बलात्कार और कई अन्य प्रकार की बर्बर घटनाएं शामिल हैं। आज भी ऐसे ग्रामीण इलाके हैं जहाँ दलितों साफ़-सुथरे वस्त्र पहन कर मुख्य मार्ग से निकल नहीं सकते हैं, कुओं से पानी नहीं ले सकते और मंदिर में प्रवेश वर्जित है. बीती सदी के सातवें- आठवें दशकों में इस लेखक का सामना ऐसी दारुण घटनाओं से हुआ है।( देखें ‘आदमी, बैल और सपने’, ‘ आदिवासी शिक्षा और समाज’ और ‘ यादों का लाल गलियारा, दंतेवाड़ा’) । पिछली सदी की यह त्रासद गाथा इस सदी में भी सुनाई देती है; मध्य प्रदेश में आदिवासी युवक के मुंह में ब्राह्मण पेशाब करता है; दलितों को नंगा करके घसीटा जाता है; दलित व आदिवासी युवती के साथ बलात्कार मर्द सत्ता का जाति -गर्व बन जाता है; दलित आदिवासी लड़कियां पेड़ से लटकी हुई मिलती हैं।

हाशिये की मानवता के विरुद्ध उत्तर भारत में ही सब कुछ घटता है, ऐसा सोचना भी गलत होगा। दक्षिण भारत के राज्यों में भी जातिगत हिंसा मौजूद है; कर्णाटक,तमिलनाडु,तेलंगाना, आंधप्रदेश जैसे राज्यों में दलित और आदिवासी के साथ हिंसात्मक व्यवहार की घटनाएं जब-तब सामने आती रहती हैं। पश्चिमी भारत के प्रदेश गुजरात और महाराष्ट्र भी  अपवाद नहीं हैं। ऊंची जातियों द्वारा किये गये अपराधों में भूमिहार, राजपूत, मराठा, कुनबी, रेड्डी, बन्नियार, तेवर, कम्माज, जाट, गुर्जर, अहीर, थेवर आदि शामिल हैं। ब्राह्मण वर्ग चतुराई से काम लेता है। धार्मिक संस्कारों के शस्त्र चलाता है। आज भी दलितों की बस्तियां ‘गांव बाहर’ होती हैं। इस लेखक के गांव बसवा के प्रवेश -मुहाने पर आंबेडकर बस्ती है। यही हाल दक्षिण के राज्यों का है।

यह  अवलोकन पर निजी अनुभव- आधारित है। केरल प्रदेश भी अपवाद नहीं है; दिसंबर 23 में दलितों के विरुद्ध हिंसक वारदातें 1056 थीं, जबकि आंधप्रदेश में 2315, तमिलनाडु -1761, कर्णाटक और  तेलंगाना  -1977 थीं। तमिलनाडु के बहु चर्चित व विवादित लेखक पेरुमल मुरुगन के उपन्यासों में दलितों के साथ दारुण भेदभाव की अंतहीन गाथाएं स्वाधीन भारत के जातिगत -यथार्थ को उजागर करती हैं। इन घटनाओं और गाथाओं में प्रेमचंद और उनके किरदार (दुखिया, धनिया, होरीराम, मालती, डॉ. चड्ढा आदि) फिर से जीवित दिखाई देंगे,नई शक्लों में। इसी तरह तमिलनाडु के पेरुमल मुरुगन के उपन्यास – राइजिंग हीट्स ( भूमि समस्या ), सीज़न्स ऑफ़ दी  पाल्म, कूलेियाँ ( दलित बच्चे की कहानी );  वन पार्ट  वुमन ( जातिवाद ); माधोरुबागन ( अर्धनारीश्वर ) आदि  में भी 19 और 20 वीं सदियों में ऊंघता हुआ हिन्दुस्तान दिखाई देगा। प्रदेश के कतिपय क्षेत्रों ने लेखक के खिलाफ काफी कुप्रचार किया।

मद्रास हाई कोर्ट तक मामला पहुंचा। लेखक ने सवर्ण हिन्दू समाज के पाखंड को उजागर किया था। गुस्सा तो फूटना ही था। हाई कोर्ट ने लेखक की अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में फैसला दिया। लेकिन, जोरावर जातियों के बढ़ते विरोध से तंग आ कर लेखक ने स्वयं ही घोषणा कर डाली “ पेरुमल मर गया है। उसे अकेला छोड़ दो। वह एक शिक्षक रह कर जीना चाहता है।” इसे कहते हैं मध्ययुगीन सामाजिक -सांस्कृतिक- आर्थिक संरचना का चक्रव्यूह। 

प्रेमचंद समाज में सांप्रदायिक सौहार्द के पक्षधर थे। लेकिन, पिछले एक अरसे से इसे भी विखंडित किया जाने लगा है; 2016 -20 के दौरान 3,400 साम्प्रदायिक दंगे हुये। इससे पहले भी पिछली सरकारों के दौरान  भिवंडी, मुरादाबाद, मुंबई, मेरठ, जबलपुर, ,दिल्ली , गुजरात जैसे प्रदेशों में साम्प्रदायिक हिंसा का कहर टूट चुका है। जब ऐसा क्रूर ‘दूसरा हिन्दुस्तान’ ज़िंदा है और धड़ल्ले से सांसें ले रहा हो, तब प्रेमचंद की बढ़ती हुई प्रासंगिकता को कैसे अस्वीकार किया जा सकता है? यह है गुरु प्रश्न चक्रव्यूह का।दृष्टि संपन्न सटीक उत्तर ही इस चक्रव्यूह को तोड़ सकता है।

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