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न्यायपालिका के विश्वसनीयता पर मुख्य न्यायाधिपति ने लगाया सवालिया निशान

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सनत जैन

भारत की सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने भारतीय न्याय व्यवस्था की कलई स्वयं खोलकर रख दी है। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के 75 वर्ष पूर्ण होने तथा स्पेशल लोक अदालत आयोजन के समारोह को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने मुख्य वक्ता के रूप में कहा, कि लोग न्याय प्रक्रिया से तंग आ जाते हैं। वह किसी तरह से सेटलमेंट करके न्याय प्रक्रिया से छुटकारा चाहते हैं। भारतीय न्यायपालिका की कार्यप्रणाली दंडित करने जैसी है।

उन्होंने स्वीकार किया, कि यह सभी जजों के लिए चिंता का विषय है। मुख्य न्यायमूर्ति ने कहा- हम बेहतर परिणाम देने की कोशिश करेंगे। यह बात वह इसके पहले भी कई बार कह चुके हैं, लेकिन न्याय प्रक्रिया को लेकर आमजनता के बीच यह धारणा बनती चली जा रही है कि न्यायालय में केवल सक्षम लोगों को ही न्याय मिल सकता है। मध्यम वर्ग और गरीब वर्ग के लोगों के लिए न्याय के नाम पर अन्याय ही किया जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका की साख में तेजी के साथ गिरावट आई है। एक जमाना था जब न्यायाधीशों को लोग भगवान के रूप में देखते थे। न्यायालय से जो न्याय मिलता था, उसमें भले विलंब होता था लेकिन न्याय तो मिलता था। पिछले कुछ वर्षों में न्याय मिलना बंद हो गया है।

न्यायालय जनता के लिए नहीं अब सरकारों के लिए काम कर रही हैं। यह स्पष्ट रूप से अब दिखने लगा है। बाबा साहब अंबेडकर ने जो संविधान बनाया था उसमें न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान दिया था। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तर्ज पर शक्तियों का बंटवारा न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच में किया था। तीनों के ऊपर एक-दूसरे का अंकुश था। न्यायपालिका को संविधान में सबसे ज्यादा अधिकार मिले हैं। वह विधायिका और कार्यपालिका के किसी भी कार्य की समीक्षा कर सकती है। किसी भी संवैधानिक संस्था द्वारा किए जा रहे कार्यों की समीक्षा कर सकती है। नागरिकों के मौलिक अधिकारों की और संविधान की रक्षा करने का दायित्व संविधान ने न्यायपालिका को दिया है।

न्यायपालिका में जो प्रकरण विवाद के रूप में लंबित हैं, 70 फ़ीसदी मामलों में शासन-प्रशासन और सरकार प्रतिवादी है। सरकार कानून बनाती है, लेकिन उन कानूनो का मनमाने ढंग से उपयोग करती है। सत्ता और प्रशासन में बैठे हुए लोग नियम और कानून की गलत व्याख्या करते हुए आम नागरिकों पर कार्यवाही कर देते हैं। जब न्याय के लिए वह न्यायालय में जाता है तो न्यायालयों में सुनवाई कई वर्षों तक नहीं हो पाती है। प्रशासन और शासन अपना जवाब ही प्रस्तुत नहीं करता है। तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख का यह खेल पिछले कुछ वर्षों में ज्यादा हो गया है। आरोप लगते हैं कि ट्रायल कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के न्यायाधीश सरकार के प्रति सहानुभूति रखते हुए मामलों की सुनवाई करते हुए नजर आते हैं। अब तो सरकार के खिलाफ निर्णय देने की स्थिति में न्यायपालिका के जज दूर-दूर तक हिम्मत नहीं कर पाते हैं। ऐसी न्यायपालिका को लेकर यदि आम आदमी इस न्याय प्रक्रिया से भागकर सत्ता में बैठे लोगों और गुंडे बदमाशों के पास जाकर न्याय पाने की कोशिश कर रहा है। यदि वहां से भी न्याय नहीं मिल पाता है तो ऐसी स्थिति में अब खुद न्याय पाने के लिए अपराध की दुनिया में प्रवेश करने लगा है।

अपराध नहीं कर पता है तो आत्महत्या तो कर ही लेता है। न्यायपालिका के 75 साल का इतिहास यदि मुख्य न्यायाधिपति देखेंगे और अपने पूर्वजों द्वारा किए गए निर्णय को देखेंगे तो पूर्व में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा जिस तरह स्वयं संज्ञान में लेकर आम जनता को राहत प्रदान की जाती थी। संवेदनशील मामलों में न्यायपालिका के इतिहास में जो कार्य किए गए हैं, उसी के कारण जजों को भगवान के रूप में जनता देखती थी। जनता के मन में विश्वास था सरकार प्रशासन पुलिस और सक्षम लोग यदि उसके साथ अन्याय करेंगे तो उसे न्यायालय से न्याय मिलेगा। यदि पिछले 5 साल के न्यायपालिका के कार्यकाल को मुख्य न्यायाधिपति देखें तो उन्हें खुद यह महसूस होगा कि वर्तमान की जो न्यायपालिका है वह सत्ता से डरी हुई है।

न्यायपालिका का एक दौर वह भी था जिसमें न्यायपालिका ने तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति को गवाही देने के लिए कोर्ट में बुला लिया। सुनवाई के पश्चात तत्कालीन प्रधानमंत्री का चुनाव भी अवैध घोषित कर दिया। न्यायालय में अब यदि वादी और प्रतिवादी में से कोई पक्षकार शासन और प्रशासन का है तो ऐसे मामलों में न्यायपालिका से कोई निर्णय नहीं आता है। सरकार और प्रशासन के सामने तो न्यायपालिका ने घुटने ही टेक दिए हैं। इस तरह के मामलों में तारीख पर तारीख ही मिलती है। वर्तमान न्यायपालिका शायद अखबार भी नहीं पढती है, इसलि जनता को किस तरह की परेशानियां हो रही हैं यह न्यायपालिका के संज्ञान में नहीं आ रहा है। न्यायपालिका सरकार के ऊपर इतनी अधिक आश्रित होकर रह गई है, कि सरकार जो भी निर्णय लागू करती है उसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से न्यायपालिका की सहायता लेकर मोहर लगवा लेती है। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका को लेकर जो आम धारणा बन रही है वह अच्छी नहीं है। हाल ही में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव के लिए बहुत सारी याचिकायें सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई थीं। कई याचिकाये तो 5 से 6 वर्ष पुरानी हो गई हैं। हाल ही में नीट का पेपर लीक हुआ। 70 से अधिक परीक्षाओं के परचे लीक हुए।

इस समस्या से करोड़ों युवक प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित थे। उनके परिवारजनों की संख्या को भी जोड़ दिया जाए तो लगभग 10 करोड़ लोगों के बीच में न्यायपालिका को लेकर जो अविश्वास बना है यदि इसका एहसास न्यायपालिका को हो जाए तो शायद न्यायपालिका अपने आप में सुधार कर ले। भारत की संस्कृति में राजा और न्यायाधीश को भगवान के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है। राजा के ऊपर अंकुश रखने का काम हमेशा से भारत में न्यायाधीश ही करता रहा है। इसलिए भारत के लोगों में न्यायाधीश का दर्जा भगवान की तरह होता था, लेकिन जिस तरह का आचरण न्यायपालिका के जज इस समय कर रहे हैं। उससे उनका लोक और परलोक बन रहा है या बिगड़ रहा है यह तो न्यायाधीशों को ही सोचना होगा।

सनातन परंपरा में या सभी धर्म में कर्म का फल जन्म-जन्मांतर में भोगना पड़ता है। न्यायाधीश के पद पर बैठे होने के बाद भी यदि वह अपने कर्तव्यों का ठीक तरीके से पालन नहीं कर रहे हैं ऐसी स्थिति में कर्म का फल समय आने पर स्वयं भोगना पड़ेगा। कर्म फल को बांटा नहीं जा सकता है। भगवान को भी अपने कर्म फल भोगने के लिए मनुष्य रूप में जन्म लेना पड़ता है, यह न्यायाधीशों को भी समझना होगा।

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