अग्नि आलोक
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एस्ट्रोलॉजिकल फिलॉसफी का नर- नारी साम्य सूत्र : 1-5-2-4

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        ~पवन कुमार, ज्योतिषाचार्य 

१=मेष राशि, राशीश मंगल है। मंगल पुरुष ग्रह एवं रक्तवर्ण है। 

 ५= सिंह राशि, राशीश सूर्य है। सूर्य पुरुष ग्रह एवं नारंगी स्वर्ण वर्ण है। सूर्य राजा है। मंगल इसका सेनापति है मेष, सूर्य की उच्चराशि है इसलिये यह सूर्य का सिंहासन है। सूर्य अपने सिंहासन पर बैठ कर शोभायमान होता है।

२ = वृष राशि, राशीश शुक्र है। शुक्र स्त्री ग्रह एवं श्वेत वर्ण है।

४ = कर्क राशि, राशीश चन्द्रमा है। चन्द्रमा स्त्रीग्रह एवं पाटल वर्ण है। चन्द्रमा रानी (राज्ञी) है। शुक्र इसका परामर्शदाता मंत्री है। वृष, चन्द्रमा की उच्च राशि है। इसलिये यह चन्द्रमा की आसन्दिका (उच्चपीठ) है। चन्द्रमा इस पर आसीन रहकर सुशोभित होता है।

इस संख्यात्मक सूत्र को शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया जाता है.
मंगल + सूर्य = शुक्र + चन्द्रमा.
मंगल= स्त्री का रज।
शुक्र = पुरुष का वीर्य।
मंगल स्त्री के शरीर में होता है, रक्तवर्ण रज मासिक स्वाय के रूप में शुक्र पुरुष के शरीर में रहता है, श्वेत वर्ण शुक्राणु वीर्य के रूप में स्त्री, वीर्य को खींचती है। पुरुष, रज को खींचता है। पुरुष के शरीर में विद्यमान वीर्य, स्त्री ग्रह शुक्र का प्रतिनिधि है। स्त्री के शरीर में वर्तमान रज, पुरुष ग्रह मंगल का द्योतक है। इसका अर्थ यह हुआ कि पुरुष में स्त्री तत्व तथा स्त्री में पुरुष तत्व सतत उपस्थित रहता है। स्त्री तत्व स्त्री में जाना चाहता है, पुरुष तत्व पुरुष से मिलना चाहता है।
यही कारण है कि पुरुष और स्त्री एक दूसरे को आकर्षित करते हैं। दोनों के बीच यह खिंचाव अनायास एवं स्वाभाविक है। पुरुष, स्त्री को विकृत करता है तो स्त्री, पुरुष को इस विकृति के मर्यादीकरण का नाम विवाह है।

विवाह में, पुरुष स्त्री :
१ + ५ पुरुष एवं
२ + ४ = स्त्री।
१+५= ६ तथा २ + ४ = ६
यह संख्या ६ इन्द्रिय वाचक है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तो प्रसिद्ध हैं, छठीं ज्ञानेन्द्रिय है उपस्थ। यह तो कर्मेन्द्रिय है ? हाँ, कमेन्द्रिय होते हुए भी यह ज्ञानेन्द्रिय है कैसे ? इससे अनिर्वचनीय सुख का ज्ञान होता है।
इस सुख की अनुभूति का व्यक्तीकरण सम्भव नहीं है। स्त्री और पुरुष की पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में समानता है किन्तु छठीं सुखेन्द्रिय उपस्थ में नितान्त असमानता यही इन्द्रिय पुरुष और स्त्री के भेद को कारक है।
६ अपूर्ण संख्या है। अतः पुरुष वा स्त्री दोनों अलग-अलग अपूर्ण हैं।
६ = पुरुष और ६- स्त्री.
जब ये दोनों एकीकरण के सूत्र में बंधते हैं तो पूर्ण होते हैं। एकीकरण को दाम्पत्ययन वा विवाह कहते हैं।
इसमें पुरुष + स्त्री = ६+६= १२ = पूर्ण संख्या भाव १२ है।
इस १२ में विश्व समाहित है। इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पूर्णत्व के लिये विवाह होता है। यह स्त्री-पुरुष के बीच होता है, न कि स्त्री स्त्री वा पुरुष पुरुष में।

कुण्डली में लग्न पुरुष है तो सप्तम स्त्री।
लग्न = पुरुष, = १, सप्तम
जब पुरुष-स्त्री दाम्पत्य सूत्र में बँधते हैं तो उनका संख्यात्मक रूप = १ + ७।
अर्थात् १ + ७ =८ वा ७+१=८= मृत्यु / अशुभ।
एवं १ – ७ = (१२ + १) – ७- १३ – ७=६ शत्रु, रोग।
अथवा, ७- १=६ शत्रु / रोग।

वैवाहिक संबंध से जिस संख्या की प्राप्ति होती है, वह है ६ वा ८ दोनों शुभ नहीं हैं।
इसलिये भगवान् अपने भक्तों को विवाह नहीं करने देते, विवाह में व्यवधान डालते हैं, विधुरत्व वा वैधव्य प्रदान करते हैं जिससे वे पुरुष वा स्त्री परमपद प्राप्त कर सकें। ज्ञानी भक्त विवाह ही नहीं करते वा उनका विवाह होता ही नहीं वा वे दाम्पत्य जीवन से पराङ्मुख होकर ईश्वरोन्मुख हो जाते हैं।
नारद, शुक, सनकादि, भीष्म तथा सूर, तुलसी, मीरा प्रभृति ऐसे ही हैं। इन ज्ञानी भक्तों की पंक्ति में बैठे हुए श्री महाराज जी को मैं प्रणाम करता हूँ।
युद्ध के प्रश्न में लग्न को स्थायी राजा तथा सप्तम को यामी (आने वाला वा आक्रमणकारी) राजा माना गया है। इस प्रकार पुरुष स्थायी हुआ तथा स्त्री यायी।

जैसे दुर्गस्थ राजा पर बाह्य राजा धावा बोलकर दुर्ग पर अधिकार करता है वा सन्धि करता है वा हार कर आत्म समर्पण करता वा भाग/ लौट जाता है, वैसे ही स्त्री यायी राजा बनकर स्थायी राजा पुरुष के घर आती (विवाह करके) है, पुरुष पर अधिकार कर गृहस्वामिनी का पद पाती है वा बराबरी के स्तर पर घर में रहकर गृहस्थी का संचालन करती वा पुरुष से हार कर समर्पण कर गृहस्थी में सहयोग देती है। इस विक्रिया से स्पष्ट है कि विवाहोपरान्त जब स्त्री अपने पति के घर आती है तो दोनों के बीच वर्चस्व प्राप्ति का युद्ध होता है। स्त्री चाहती है कि उसका पति उसकी मुट्ठी में रहे, पुरुष चाहता है कि उसकी स्त्री उसके नियन्त्रण में रहे।
स्त्री और पुरुष के बीच हो रहे इस अधिकार युद्ध का कोई अन्त नहीं है। क्योंकि, दोनों ६-६ अंक लेकर बराबर हैं। दोनों पडैश्वर्य युक्त हैं। नृतन के ६ ऐश्वर्य ये हैं-रसेन्द्रिय रसना, श्रवणेन्द्रिय कान, दृश्येन्द्रिय आँख, घ्राणेन्द्रिय नासिका, स्पर्शेन्द्रिय त्वचा जो कि सम्पूर्ण शरीर में विद्यमान है तथा सुखेन्द्रिय शिश्न / भग। ये स्थूल ऐश्वर्य हैं। इन ६ ऐश्वयों का स्वामी मन है। अतः मन ईश्वर है, ‘मनोवैस’।
मन अपनी ध्यान शक्ति में इन छ: ऐश्वयों का प्रकाशन एवं उपयोग करता है। आनन्द के ये ७ साधन हुए- (६ ज्ञानेन्द्रिय+१ मन)। इस आनन्द को पाने के लिये स्त्री-पुरुष मिलकर अग्नि के ७ दक्षिणावर्त फेरे लगाते हैं। इस क्रिया का नाम विवाह है। यह वेद विहित है।

सप्तम भाव सन्ध्या है। संध्या स्त्री है। सूर्य की पत्नी है। कहा गया है-
कालस्य तिस्रो भार्याञ्च, संध्या रात्रि दिनानि च।
याभिर्विना विधात्रा च संख्यां कर्तुं न शक्यति।।
~ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड,प्रथमाध्याय)
सं सम्यक् ध्यायत्यस्यामिति संध्या। सं+ ध्यै चिन्तने + आतश्चोपसर्गे। इत्यङ्। यद्वा संदभातीति संध्या।
सं+ था + अध्न्यादपश्च (उणादि ४। ११३)।
दिन और रात्रि के बीच का दो घटी का समय संध्या कहलाता है। प्रकाश और अन्धकार के अभाव का नाम संध्या है। इसमें सूर्य अस्ताचल को जा रहा होता है।
इसे ‘पितृप्रसू’ (अमरकोष) कहा गया है। पिता को पुत्ररूप में पैदा करने वाली वा जाया / पत्नी। सूर्य पिता है, संध्या उसकी पत्नी है। लग्न का कारक सूर्य पुरुष है। यह लग्न से द्वादश, एकादश, दश, नव, अष्ट भावों को पार करता हुआ जब सप्त में पहुंचता है तो वह तेजोहीन हो जाता है।
यह लोक में भा घटित होता है। यह पुरुष, स्त्री के सप्तम अंग उपस्थ को प्राप्त करते ही बलहीन हो जाता है। यह स्त्री, पुरुष के वीर्य का अपहरण करके उसे अबल कर देती है। इसलिये इसे अबला कहा गया है।
असीमित बलवाली होने से भी यह अबला है। पुरुष सम्भोग के अनन्तर शुक्र के क्षरित हो जाने से शववत् हो जाता है। इसके विपरीत स्त्री उस शुक्र से सिंच कर स्फूर्ति को प्राप्त होती है। इस संभोग-व्यापार में पुरुष हानि उठाता है, स्त्री लाभ प्राप्त करती है।
क्या बलवान् हानि उठा सकता है ? कदापि नहीं। अतः स्त्री बली है। स्त्री, पुरुष के सामने अपने बल का प्रदर्शन नहीं करती। इसी से पुरुष ठगा जाता है।
शंकराचार्य ने कहा है :
विज्ञानमहाविज्ञतमोऽस्ति को वा?
नार्या पिशाच्या न च वज्ञितो यः ।
~प्रश्नोत्तरी
संध्या शब्द का अर्थ ही स्त्री है। सम् + था, सम्यक् दधाति। जो पुरुष के वीर्य को वा उसके भार को धारण करती, वहन करती है-संध्या है। सम् + ध्यै, सम्यक् ध्यायति। कामासक्त पुरुष जिस के अंग प्रत्यंग का ध्यान करता है और ध्यान में सुख पाता है, वह संध्या है। पुरुष इसमें अपने अस्तित्व को लीन कर देता है वा वह अस्तंगत होता है। अतः संध्या = अस्त सप्तम संध्या है सूर्य वहीं अस्त होता है।
सप्तम भाव स्त्री है। स्त्री संध्या है। संध्या में उष्णता के नाश की सामर्थ्य होती है। वह सूर्य को अनुष्ण कर देती है। प्रत्येक स्त्री, पुरुष को यही गति करती है। पुरुष स्त्री का सहवास पाते ही ठण्डा हो जाता है, अपना तेज खो देता है, उष्णता से विपन्न हो जाता है। इसीलिये स्त्री को शक्ति कहा जाता है। इसकी उत्पादन शक्ति तथा पालन क्षमता का वर्णन वेद करता है।
यथा :
आत्मन्वत्युर्वरा नारीयमागन् तस्यां नो वपत बीजमस्याम्।
सा वः प्रजां जनयद् वक्षणाभ्यो बिभ्रती दुग्धमृषभस्य रेतः॥
~ अथर्ववेद (१४।२।१४)
आत्मवन्ती उर्वरा नारी- इयम्-आ-अगन् तस्याम् नरः वपत बीजम् अस्याम् । सा व प्रजाम् जनयत् वक्षणाभ्यः विभ्रती दुग्धम् ऋषभस्य रेतःII
अन्वय :
इयम् आत्मवन्ती उर्वरा नारी आ-अगन्। तस्याम् अस्याम् नरः बीजम् वपत। रेतः बिभ्रती व प्रजाम् सा ऋषभस्य जनयत् वक्षणाभ्यः दुग्धम् (जनयत्।
इयम् = यह इदम् शब्द स्त्रीलिंग प्रथमा विभक्ति एक वचन।
आत्मवन्ती = अत् + मनिण् + मनुप् + डीप् + जस्। जो स्वस्थचित्त, शान्त, दूरदर्शी, बुद्धिमान्, मनस्वी, आत्मिकशक्ति सम्पन्ना है।
उर्वरा = उरू शस्यादिकमृच्छति। ऋ + अच्+टाप् । विस्तृत, उपजाऊ भूमि, जिसमें बीज बोने से वह उगे बढ़े और पुष्टता को प्राप्त करे। उत्पादकता के गुणों से युक्त उत्पन्न करने की क्षमता रखने वाली । ऋतुधर्म को प्राप्त स्वस्थ नारी।
‘उर गतौ सौत्रधातुरयम्’ (शब्द कल्पद्रुमे) + वरा। जिसकी गति अच्छी हो। श्रेष्ठगति वाली सक्रिय, आलस्य रहित, तन्द्राहीन।
नारी = नर + ङीष्। स्त्री। न + अरि (री) ऐसी स्त्री जो पुरुष की शत्रु न हो, नारी कही जाती है। पुरुष से लड़ने झगड़ने वाली स्त्री नारी नहीं होती। पुरुष की मित्र वा प्रेमिका को नारी कहते हैं।
आ अगन् = पूरी साजसज्जा / तैयारी के साथ आयी है। यहाँ अगन् आगच्छत् आङ पूर्वक गम् का अर्थ आना है। अतः विवाहोपरान्त पति के घर में वह नारी गृहस्थ धर्म का आचरण करने के लिये आयी है – यह अर्थ अभिप्रेत है।
तस्याम् = तद् सप्तमी एक वचन उस आत्मशक्ति सम्पन्ना नारी (की योनि) में।
अस्याम् = इदम् सप्तमी एक वचन इस उर्वरा / अबन्ध्या नारी (के गर्भाशय) में।
नरः = नृ शब्द सम्बोधन एक वचन। किन्तु यहाँ नृ= नी + ऋन् होने से नर का अर्थ वह पुरुष है जो स्त्री का मार्गदर्शन / नेतृत्व करता है जो स्त्री के आगे आगे न चले, उसका पथ-प्रदर्शक न बने, वह पुरुष होते हुए भी नर कहलाने का अधिकारी नहीं है। हे पुरुष।
बीजम् = उत्पादन क्षमता से युक्त / स्वस्थ एवं प्रचुर शुक्राणुओं वाला वीर्य वा रेत।
वपत = वप् बोना लोट् मध्यम पुरुष बहुवचन परस्मैपद। बोते हैं, गिराते हैं, बिखरते हैं, छीटतें हैं, डालते हैं।
सा= तद् स्त्रीलिंग प्रथमा एक वचन वह नारी।
ऋषभस्य = ऋषभ (ऋष, तुदादि परस्मै ऋषति जाना, पहुँचना, मार डालना, चोट पहुँचाना तथा ऋष् भ्वादि परस्मै अर्षति बहना, फिसलना + अभक्) पष्ठी एक वचन जो गतिशील क्रियाशील मारक क्षमता से युक्त वा शक्तिशाली है, उसका नाम ऋषभ है। जो फिसलता है, वह भी ऋषभ है। ऐसा पुरुष, जिसका शेप/शिश्न क्रियाशील है जो शक्तिशाली होते हुए स्त्री के उपस्थ पर चोट करता है तथा उसके भीतर फिसलता हुआ सरलता पूर्वक प्रवेश करता है, गार्हस्थ के लिये श्रेष्ठ है। इससे स्त्री संतुष्ट रहती है श्रेष्ठ सर्वश्रेष्ठ सामर्थ्यवान् कामी विद्वान् को ऋषभ कहते हैं।

रेतः = री (दिवादि आत्मने रीयते टकना बूंद बूंद गिरना, रिसना, बहना) + असुन तुट् च + सु (प्रथमा एक वचन)। जो पदार्थ सम्भोग के समय पुरुष के लिंग से टपकता, रिसता, बहता वा बूंद बूंद टपकता है, वह रेतः कहलाता है।
बिभ्रती = भृ (भ्वा. जुहो. उभ. भरति-ते, बिभर्ति ते) + ङीप् । धारण-पोषण करती हुई। जो पुरुष के तेज को अपने गर्भ में रखती है, उसे सम्हाली है, पुष्ट करती है, वह स्त्री।
वः = युष्मान् (द्वि बहु व ) युग्भ्यम् (चतुर्थी ब.व) युष्माकम् (षष्ठी ब.व) तुम लोगों (नरों) को/के लिये/के।
प्रजाम् = प्र + जन्+ड+ टाप् +अम्[ द्वि.ए. व] सन्तान को।
जनयत् = जन् प्रेरणार्थक जनयति जन्म देना, पैदा करना, उत्पन्न करना, परस्मै विधिलिङ् जनयेत् [= जनयत्)। पैदा करे, जन्म दे।
वक्षणाभ्यः = वक्षणस् शब्द पञ्चमी विभक्ति बहुवचन छाती से उरोजस्थ रस-रक्त- दुग्ध वाही नाड़ियों से वह (भ्वादि उभय वहति-ते ले जाना, धारण करना, वहन करना, ढोना, आगे चलाना, ढकेलना, बहाकर ले जाना) + ल्युट् + असुन्वक्षणस् वक्षणः नदीनाम्-निघण्टु १ । १३
इनके द्वारा जल ढोया जाता है, वह नदी है। इसी प्रकार, इस शरीर (स्त्री के) में छाती क्षेत्र में रक्त को दूध में परिवर्तित करने वाली अनेक वाहिनियाँ होती हैं। ये दूध बना कर उसे कुचाम भाग के छिद्रों से बाहर निकालती हैं। शिशु अपनी माता के चुचूक को मुँह में लेकर दूध चूसता / पीता है। वक्षण का बहुवचन प्रयोग होने के पीछे यही अभिप्राय है।
दुग्धम्= दूध को दुह (अदादि उभय दोग्धि दुग्धे किसी वस्तु में से कोई दूसरी वस्तु निकालना, दोहना, निचोड़ना) + क्त + अम् (द्वितीया एक वचन)।
मन्त्रार्थ :
यह आत्मशक्ति सम्पन्ना उत्पादन शक्ति युक्ता नारी आयी हुई है। उस नारी जो कि अबन्ध्या हैं, की इस योनि में है पुरुष । तुम बीज बोओ, निषेक करो, गर्भवती बनाओ।
वह नारी श्रेष्ठ पुरुष का वीर्य धारण करती हुई, तुम्हारे लिये पुत्र उत्पन्न करे। अर्थात् तुम्हारा मैथुन कर्म व्यर्थ न जाय। इसलिये वेदोक्त प्रविधि का प्रयोग संभोग के समय करो। वह स्त्री (शिशु जनने के बाद उसे पिलाने के लिये) अपने वक्ष / कुच प्रदेश में स्थित दुग्ध ग्रन्थियों से पर्याप्त दूध उत्पन्न करे। यह सरलार्थ है।
मंत्र में नरः नृशब्द का सम्बोधन एक वचन है, जबकि इस की क्रिया वपत मध्यम पुरुष बहुवचन है। एक वचन कर्ता के साथ बहुवचन क्रिया का क्या औचित्य है ?
इसका समाधान यह है कि नर (पुरुष) अपनी स्त्री (नारी) की योनि में बार-बार बीज बोए। एक बार बीज गिराने से गर्भ न ठहरे तो इससे हताश न होकर पुनः पुनः बीज बोए सम्भोग करे।
ऐसा तब तक करता रहे जब तक कि लक्ष्य सिद्ध न हो जाय। क्योंकि ब्रह्मा जी ने स्त्री की रचना ही सन्तान प्राप्ति, संतति वृद्धि के लिये की है, व्यर्थ सम्भोग के लिये, शिश्न सुख के लिये नहीं कहा गया है :
सन्तानार्थ महाभागा एतः सृष्टः स्वयम्भुवा।
~मनुस्मृति.
लोक में सन्तानवती नारी को एक शुभ शकुन माना गया है। मंत्र में दूसरी महत्वपूर्ण बात स्त्री का आत्मवन्ती और उर्वरा होना है। स्त्री के आत्मवन्ती होने से सन्तानें आत्मवत होंगी, अनात्म पदार्थों में आसक्त न होंगी, उनमें विवेक होगा। नारी प्रथम गुरु है।
नारी में गुरुत्व (मार्गनिर्देशन की क्षमता, विद्वत्ता, शीलाचार) तो होना ही चाहिये। स्त्री का उर्वरा होना कम महत्वपूर्ण नहीं है। ऊपर भूमि में बीज वपन व्यर्थ होता है। उपजाऊ भूमि में ही किसान बीज बोता है। उर्वरास्त्री उपजाऊ भूमि सदृश होती है, जिसमें बोया गया बीज व्यर्थ नहीं जाता।
मंत्र में तीसरा तथ्य है, पुरुष का ऋषभ होना। पुरुष ऋषभ / श्रेष्ठ नहीं है तो सन्तान कैसे श्रेष्ठ होगी ? ऋषभ पुरुष स्त्री को प्रिय होता है। अमरकोष में ऋषभ के ये अर्थ है :
१. तन्त्री और मनुष्यों के कण्ठ से उत्पन्न हुए सप्तस्वरों में से एक स्वर ऋषभ भी है।
२. एक औषधि का नाम है, ऋषभ निघण्टु के अनुसार :
ऋषभो दुर्धरो द्राक्षा मातृको वल्लुरो नृपः।
ककुद्यान् भूपति: कामी गोपतिः शीतलश्च सः॥
३. साँड़ वा बैल को ऋषभ कहते हैं। बैल के ९ नामों में से एक नाम।
“उक्षा भद्रो बलीवर्द ऋषभो वृषभो वृषः अनड्वान् सौरभेयो गौः॥
४. किसी शब्द के उत्तरपद में ऋषभ शब्द लगता है तो इसका अर्थ श्रेष्ठ होता है।
स्युरुत्तरपदे व्याघ्रपुंगवर्षभ कुञ्जरः।
सिंहशार्दूल नागाद्या: पुंसि श्रेष्ठार्थगोचराः॥
इन सब उद्धरणों को ध्यान में रखते हुए अपभ के अर्थ वा विशेषताएँ ये हैं :
१. गन्धर्वशास्त्र का ज्ञाता पुरुष ऋषभ है।
२. स्त्री के लिये जो औषधि रूप है, वह ऋषभ है। अर्थात् स्त्री जिस पुरुष का नियमित सेवन करती हुई हृष्ट पुष्ट रहे, वह उसके लिये ऋषभ होता है।
३. भूपति = भू (स्त्री) का पति ऋषभ कामी (स्त्री के साथ मैथुन करने की प्रबल इच्छा वाला) पुरुष ऋषभ है। गो (ज्ञान) पतिः = ज्ञानी पुरुष ऋषभ है। स्त्री के प्रति शीतल स्वभाव वाला पुरुष ऋषभ है।
४. जो भद्रः (कल्याणमय), बलीवर्दः (बलशाली), वृपः (धर्मात्मा) है, वह ऋषभ है।
५. जो व्याच सर्प एवं कुञ्जर (हाथी) के समान मैथुन करने के लिये लालायित रहता है, वह पुरुष स्त्री के लिये श्रेष्ठ है, ऋषभ है। स्त्री मैथुन क्रिया होती है। उसकी समस्त भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता हुआ पुरुष यदि उसे प्रकृष्ट सम्भोग सुख न दे सके तो वह उसके लिये ऋषभ नहीं है। लोक में देखा जाता है कि सांड़ छोड़ा जाता है।
यह गाय को गर्भिणी बनाता है। साँड़ के गुण वाला पुरुष ही ऋषभ है। जो स्त्री को गर्भवती बना दे।

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