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नरेंद्र मोदी के कर्तव्यकाल का क्या मतलब था ?

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अवतार सिंह जसवाल

संघ प्रचारक रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतांत्रिक भारत को एक हिंदूराष्ट्र में बदलने के अपने इरादों को हालांकि खुलकर नहीं कहते, लेकिन उनकी भाव-भंगिमा, बातें और कार्रवाइयां उनके इरादों को ज़ाहिर करती रहती हैं। 15 अगस्त, 2023 को लाल किले की प्राचीर से भाषण करते हुए उन्होंने कहा था कि आज़ादी के ‘अमृतकाल’ का मतलब कर्तव्यकाल है और अपना ‘कर्तव्य’ पूरा करने के लिए वह अगली बार (2024 में) भी भाषण देने यहां आएंगे। क्या मतलब था इसका?

शायद उन्होंने तय कर लिया था कि अगली बार भी, हर हाल में, वही प्रधानमंत्री बनेंगे। क्या उसके पीछे संघ के अधूरे हिंदू राष्ट्र एजेंडे को पूरा करने की सोच के साथ कोई योजना भी थी? अपने उसी भाषण में उन्होंने परोक्षरूप में यह भी कह दिया था कि उनके ‘कर्तव्यकाल’ में लोकतांत्रिक अधिकारों और उनकी गारंटी देने वाली संवैधानिक और वैधानिक संस्थाओं की अब कोई जरूरत नहीं; वह अतीत की वस्तु बन गई हैं। क्या यह देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था के समाप्तिकाल की घोषणा करने जैसी बात नहीं थी?

2024 के लोकसभा के चुनावों में भाजपा को उनके नेतृत्व में हालांकि पूर्ण बहुमत नहीं मिला, लेकिन एनडीए की ‘दो बैसाखियों’ के सहारे उसकी सरकार बनी और नरेंद्र मोदी तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बन गए। सत्ता में वापस लौटते ही उन्होंने अपना कर्तव्य (हिंदूराष्ट्र?) पूरा करने की दिशा में दो महत्वपूर्ण क़दम उठाए हैं। पहला है, ब्रिटिशकाल की भारतीय दंड संहिता (IPC 1860) को उपनिवेशी मानसिकता वाली, पुरानी और बेकार बताकर उसकी जगह भारतीय न्याय संहिता नाम से तीन नए आपराधिक कानूनों को 01, जुलाई से देश में लागू करना। इसका बिल उन्होंने पिछली लोकसभा के अंतिम सत्र (दिसंबर, 2023) में, विपक्ष के क़रीब डेढ़ सौ सांसदों को निलंबित करवा, अपने क्रूर बहुमत से पास करवाया था। दूसरा कदम है, सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस के सदस्य बनने पर पिछले साठ साल से लगे प्रतिबंध को हटा देना।

सवाल है, मोदी सरकार द्वारा उठाए गए इन दो कदमों का मक़सद क्या है और जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के संदर्भ में उनका मतलब क्या है? इस पर चर्चा से पहले एक नज़र नई भारतीय न्याय संहिता लागू होने के अगले दिन यानि 02 जुलाई को अख़बारों में छपी इस ख़बर पर डालें:

“नए कानून की पहली मार

भारतीय न्याय संहिता की धारा 285 के तहत एक गरीब रेहड़ी वाले के खिलाफ़ केस, देश की पहली F.I.R दर्ज़ की गई। वह नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने रेहड़ी लगाता था। जुर्म-पब्लिक प्लेस को बाधित करना।”

तीन नए आपराधिक कानून इस प्रकार हैं: 1. भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2. भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और 3. भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA). इन कानूनों को अगर गहराई से देखा/ परखा जाए, तो पता चलता है कि इस समय इन्हें लाने का मक़सद देश में आकाश छू रही महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, बढ़ती आर्थिक असमानता, मज़दूरों, किसानों, नौजवानों के मुद्दों से पैदा हो रहे जन आक्रोश/असंतोष से निपटने के लिए राज्य/पुलिस को अधिक दमनात्मक अधिकारों से लैस करना है। साथ ही इनका उद्देश्य सरकार की नीतियों के शांतिपूर्ण विरोध हेतु जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को कमज़ोर कर लोगों के मन में राज्य/पुलिस का डर बैठाना भी है।

अगर केंद्र और राज्य सरकारें इन तीन नए कानूनों को सख्ती से लागू करती हैं, तो जनता अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का, उन पर पुलिस के पहरे के कारण, कभी सार्थक प्रयोग नहीं कर पाएगी। मिसाल के लिए, नई भारतीय न्याय संहिता में पुराने राजद्रोह (sedition) कानून (धारा 124-A) को नई धारा 152से बदला गया है, उसमें अलगाववादी गतिविधियों यानि सशस्त्र विद्रोह, विध्वंसक कार्रवाई (जिससे भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को ख़तरा पैदा हो) के साथ अलगाववाद से भावनात्मक जुड़ाव या समर्थन को भी अपराध का दर्ज़ा दिया गया है। नए कानून में यह एक नई और खतरनाक बात जोड़ी गई है, जो अंग्रेजों के राजद्रोह कानून में नहीं थी।

आतंकवादी गतिविधि कानून (धारा 113) में सरकारी नीतियों के विरोध में जनता के प्रदर्शन, रैली, जुलूस, आंदोलन के लिए लोगों को इकट्ठे करना, आदि को आतंकवादी गतिविधि मानकर उसे अपराध बताया गया है। उसके लिए आंदोलन के नेताओं, संगठनकर्ताओं को सात साल से उम्र कैद तक की सज़ा हो सकती है। हड़ताल को भी आर्थिक सुरक्षा के लिए ख़तरा मानकर उसे आतंकवादी गतिविधि घोषित किया जा सकता है। मालिकों की मनमानी, गुंडागर्दी के विरुद्ध मज़दूरों के प्रदर्शन, आंदोलन को भी जनता के एक तबके में आतंक फैलाने की गतिविधि माना गया है।

किसानों द्वारा अपनी मांगों के लिए धरना, प्रदर्शन, आंदोलन, सड़क-रेल रोकना, मालिकों, सरकार पर दबाव डालने को भी आर्थिक रुकावट के तौर पर आतंकवादी गतिविधि माना जा सकता है। इसके अलावा भारतीय न्याय संहिता की धारा 226 के तहत आमरण अनशन, भूख हड़ताल जैसे शांतिपूर्ण विरोध आंदोलन को सरकारी अधिकारी के काम में रुकावट डालने के रूप में देखा जा सकता है और ऐसा करने वाले को साल भर की जेल हो सकती है।

नए भारतीय नागरिक सुरक्षा कानून में मॉब लिंचिंग के विरुद्ध धारा 103(2) और 117(4) जोड़ी गई हैं। इनके अनुसार चार या अधिक लोगों के गुट द्वारा किसी व्यक्ति से जाति, नस्ल, लिंग, भाषा, समुदाय, जन्मस्थान या आस्था के आधार पर की गई मारपीट या हत्या को एक अलग तरह का अपराध मानकर दोषियों को सज़ा देने की बात कही गई है। यह कानून मोदी सरकार द्वारा वास्तव में जनता की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश है। 

सब जानते हैं कि पिछले दस सालों में मुस्लिम समुदाय के कई लोगों की हिंदुत्ववादी गिरोहों ने, जिनका संबंध संघ-भाजपा से है, मॉब लिंचिंग द्वारा हत्या की है। उनमें कितनों को आजतक सज़ा हुई है? अटल सत्य है कि हत्यारे कभी ख़ुद को सज़ा नहीं देते। इसलिए, इस कानून का सही मायने में इस्तेमाल होगा, इसमें संदेह है। पीड़ितों के विरुद्ध ही उसके ज्यादा इस्तेमाल की संभावना है। इसका एक कारण और है। आपराधिक कानूनों के इस्तेमाल की जिम्मेदारी पुलिस/राज्यतंत्र पर होती है। सब जानते हैं कि पिछले दस सालों में उसे अल्पसंख्यक, ख़ासकर मुसलमान विरोधी मानसिकता में ढाला गया है। ऐसे में, क्या उससे निष्पक्षता की उम्मीद की जा सकती है?

इसी कानून की धारा 173 (3) के अंतर्गत 3 से 7 साल की सज़ा वाले अपराधों में पुलिस को प्राथमिकी (F.I.R) दर्ज़ नहीं करने में छूट दी गई है। उच्च अधिकारी के निर्देश के बाद भी थानाध्यक्ष 14 दिन तक शुरूआती जांच पड़ताल करवाने के बाद तय कर सकता है कि मामला प्रथम सूचना रिपोर्ट (F.I.R) का बनता है या नहीं।

इसके अलावा, इसी कानून की धारा 356 में पुलिस द्वारा भगोड़ा घोषित किए गए किसी व्यक्ति के विरुद्ध, उसकी गैरमौजूदगी में, मुकदमा चलाने का अधिकार अदालत को दिया गया है। पहले इसे न्याय के सिद्धांत के खिलाफ माना जाता था और पुराना कानून इसकी इजाज़त नहीं देता था। इस कानून की धारा 187 के अंतर्गत पुलिस किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करके तीस, साठ या नब्बे दिनों तक अपनी हिरासत में रख सकती है। 

पहले इसकी सीमा 15 दिन होती थी। मतलब, केवल संदेह के आधार पर पकड़े गए किसी निर्दोष व्यक्ति को भी पुलिस अब लंबे समय तक हिरासत में रखकर, उसे यातना देकर जबरन अपराध कबूल करने के लिए मजबूर कर सकती है। इस काल में उसे ज़मानत मिलना कठिन होगा। इसके साथ ही इस कानून में जज को भी, अदालत में दलील पूरी होने के बाद, फ़ैसला सुनाने की बाध्यता में ढील दी गई है। वह तीस दिनों तक फ़ैसला सुरक्षित रख सकता है। साफ़ है, इस बीच आरोपी को जेल में ही रहना पड़ सकता है।

नए भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत अब इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को भी साक्ष्य (सबूत) माना जाएगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने साक्ष्य के रूप में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के साथ छेड़छाड़ की बात कही है। फिर भी नया कानून उसे मान्यता देता है। उसके साथ कोई छेड़छाड़ न हो, इसके लिए वह कोई प्रावधान भी नहीं देता। मतलब, उसके साथ छेड़छाड़ कर अदालत से मनचाहा फ़ैसला लिया जा सकता है। इसी संदर्भ में, यहां मोदी सरकार के एक और कानून का ज़िक्र करना प्रासंगिक होगा। 

करीब साल भर पहले मोदी सरकार ने आपराधिक दण्ड प्रक्रिया (पहचान) नाम से एक बिल संसद से पास कराया था, जो अब कानून बन चुका है। उसके अंतर्गत पुलिस और आपराधिक जांच एजेंसियों को यह अधिकार दिया गया है कि वह गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के (चाहे वह अदालत द्वारा दोषी साबित हुआ हो या नहीं) फिंगरप्रिंट, रेटिना स्कैन, हस्ताक्षर, लिखावट, आदि को न केवल ले सकते हैं बल्कि 75 साल तक उन्हें इस्तेमाल भी कर सकती हैं।

मोदी सरकार के दूसरे कदम (शासकीय कर्मियों के आरएसएस के सदस्य बनने पर 1966 से लगी पुरानी रोक को हटाना) का मक़सद आईने की तरह साफ है। इसके द्वारा संघ को, जो सांस्कृतिक मुखौटे के पीछे छिपा एक बड़ा अर्ध-सैनिक हिंदूवादी संगठन है और 99 साल पहले हुई जिसकी स्थापना का एकमात्र उद्देश्य भारत को मनुस्मृति के आधार पर एक हिंदूराष्ट्र बनाना है, उसे कानूनी तौर पर सरकारीतंत्र में घुसकर, उसपर कब्ज़ा कर अपने अंतिम लक्ष्य- हिंदू राष्ट्र की स्थापना- के लिए इस्तेमाल करने की खुली छूट देना है।

संघ ने अपने हिंदू राष्ट्र एजेंडे को कभी छुपाया नहीं। उसने देश के मुसलमानों के विरुद्ध देश के बहुसंख्य हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का लाभ उठाकर उन्हें बहकाया और सांप्रदायिक बनाया। फिर सांप्रदायिकता को राजनीतिक सत्ता के लिए सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर राजसत्ता पर अधिकार जमाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक रहे एम. एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड’ में अपने जो विचार व्यक्त किए हैं, उनके पीछे धार्मिक और नस्लीय घृणा प्रकट करते हुए फासीवाद और नाज़ीवाद का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।

इस पुस्तक में गोलवलकर प्रश्न करते हैं कि ‘अगर निर्विवाद रूप से हिंदुस्थान हिंदुओं की भूमि है और केवल हिंदुओं ही के फलने-फूलने के लिए है, तो उन सभी लोगों की नियति क्या होनी चाहिए जो इस धरती पर रह रहे हैं, परंतु हिंदू धर्म, नस्ल और संस्कृति से संबंध नहीं रखते’ (गोलवलकर की हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा : एक आलोचनात्मक समीक्षा, शम्सुल इस्लाम)

सवाल उठता है कि ‘हिंदुस्थान हिंदुओं की भूमि है और केवल हिंदुओं ही के फलने-फूलने के लिए है’ का विचार रखने वाले गोलवलकर ने इस भूमि को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा क्यों नहीं लिया था? उसकी जगह उसने अंग्रेजों का साथ देना क्यों उचित समझा था?

मोदी सरकार की मंशा क्या है? संघ और भाजपा की आंतरिक संरचना लोकतंत्र की मूल भावना के विरोध पर आधारित है। अपनी राजनीतिक विचारधारा को वह ‘हिंदुत्व’ नाम देते हैं, जिसे उन्होंने हिंदू महासभा के नेता वीडी सावरकर से ग्रहण किया है। उसने 1923 में ‘हिंदुत्व’ (बाद में‘हिंदू कौन’) के नाम से एक पुस्तिका में लिखी थी और हिंदुत्व की विचारधारा प्रतिपादित की थी। खुद को एक सांस्कृतिक संगठन बताने वाले आर.एस.एस ने अपने राजनीतिक उद्देश्य (भारत को एक हिंदूराष्ट्र बनाना) के लिए 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना कर उसे देश की राजनीति में उतारा था। वहीं जनसंघ आज भारतीय जनता पार्टी के नाम से सत्ता में है और संघ के हिंदूराष्ट्रवादी एजेंडे को आगे बढ़ा रही है।

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