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कहानी : रक्षक

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-विवेक मेहता

चांदनी रात थी। आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। मंद-मंद हवा भी बह रही थी। वातावरण में उमस थी। सब लान में कुर्सी पर बैठे थे। उन्होंने रुमाल से पसीना पौंछा और बोले- “आजादी का मतलब यह तो नहीं कि आराम करें ! या मनमानी करें ! जो भी गलत हो रहा है देखते रहे? उसका विरोध ना करें ? उसे ठीक करने का प्रयास न करें ? बेटा, सत्ता पर लगाम जरूरी होती है। अंग्रेजों से लड़े तो राजनीतिक स्वाधीनता पाई। मगर सामाजिक और आर्थिक स्वाधीनता? स्वाधीनता तो वैसे भी मन की स्थिति है। उसका दायरा जीवन व्यापी है। इस कारण कई खतरे है।”

         उन्होंने फिर से पसीना पौंछा। 80-85 वर्ष के होने को आए। बाय-पास सर्जरी भी हो चुकी थी ।  जिंदगी से पूरी तरह सामान्यजस्य बिठाए हुए थे। एक सत्याग्रह में भाग लेने यहां आए। पुराने घरेलू संबंधों के कारण रुक गए। ’42 के आंदोलन में भी सक्रिय रहे थे। रात को बात हो रही थी। तब उसने उनसे पूछ लिया था- “इस उम्र में ! स्वाधीन भारत में आंदोलन के चक्कर में क्यों?”

      वे उसी प्रश्न का उत्तर दे रहे थे। उनके उत्तर को सुनकर उसकी पत्नी ने प्रश्न किया- “खतरे! कैसे खतरे?”

         प्रश्न सुनकर वे मुस्कुरा उठे। बोले- “मैं हजार किलोमीटर का सफर करके यहां आया और तुम लोगों को मालूम भी नहीं कि तुम्हारे यहां कोई आंदोलन चल रहा है!उसका देशव्यापी प्रभाव क्या होगा!गलती तुम लोगों की भी नहीं है। हम भोगवादी संस्कृति में फस गए हैं। अपने में सिमट गए हैं। कर्तव्यों को भूल गए। डरपोक बन गए हैं। चाहते हैं कि हमारी लड़ाई कोई दूसरा लड़े। बस पैसा कमाना है। घर में यह चाहिए। वह चाहिए। यही होता है ना! तुम भी तो इसे परेशान करती होगी ना बहू!”

          सुनकर सब मुस्कुरा उठे। एक बदली चांद के सामने आ गई थी। प्रकाश कम हो गया था। कुछ रुककर वे बोले-“तुम्हारे घर में टीवी है। लगातार चालू रहता है। कई चैनल है। पाश्चात्य संस्कृति पिछले दरवाजे से आकर छा रही है। मगर घर में कोई अच्छी पुस्तक नहीं दिखाई पड़ी, जो वैचारिक उत्तेजना पैदा करें। हम अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। हमारे भाषाएं मरती जा रही है। क्या यह खतरा नहीं है? 

गांधीजी के देश में अहिंसा अप्रासंगिक हो गई। कुर्सी पाने के लिए नेता ओछे पन पर उतर आए। लोगों में अनावश्यक जोश और गुस्सा है।तोड़फोड़। मारपीट। क्या स्वाधीनता का यही मतलब है? 

करोड़ों का घोटाला करने वाले नायक की तरह उभर आते हैं। दंगा करवा कर लोग नेता बन जाते हैं। क्या यह खतरा नहीं है? 

अयोध्या, गुजरात में कितनी हिंसा हुई। कितने आदमी मरे। उसके बाद  उपजी दहशत और घृणा क्या यह स्वाधीनता के लिए खतरा नहीं है?”

           वे उत्तेजित हो गए थे। उत्तेजना को उन्होंने भी महसूस किया। स्वास्थ्य के लिए यह ठीक नहीं है। वे चुप हो गए। 

          बदली ने चांद को पूरी तरह से ढंक लिया था। अन्धकार सा छा गया था। उन्होंने खुद को संभाला। बोले- “यदि हमनें समय पर राजनीतिक दलों पर अंकुश लगाया होता; जब वे जाति को, धर्म को, वोटों में बदलने के लिए घृणा फैला रहे थे तो क्या ऐसा होता?”

          उनका स्वर धीमा था। मानो खुद से बात कर रहे हो। वातावरण बोझिल बन गया था। पत्नी उठी पानी लेकर आई। पानी पीकर उन्होंने पसीना पोंछा। सहज हो गए। बोले- “बेटा स्वाधीन हो जाना ही सब कुछ नहीं है। बड़ी बात है हमेशा स्वाधीन बने रहना। इसके लिए हमेशा सजग,जागरूक बने रहना पड़ेगा। गलती होगी तो कान भी पकड़ना पड़ेंगे। गलत बात का विरोध भी करना पड़ेगा। डंडे भी खाना पड़ेंगे। लोकतंत्र में बहुमत के फैसले विवेक से ही हो, सहीं  हो जरूरी नहीं। भ्रष्टाचार भी कई बार सही फैसलों को बदल देता है। इसलिए संघर्ष जरूरी है।”

        बोलते बोलते उनके चेहरे पर चमक आ गई। बदली छट गई थी। चांदनी अंधकार पर अधिकार जमा रही थी। तारे मुस्कुरा रहे थे। आसमान साफ  हो रहा था।

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