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जनता और लोकतंत्र शर्मसार…कठुवा, उन्नाव, हाथरस….दिल्ली…और…कलकत्ता

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विवेक रंजन सिंह

पश्चिम बंगाल में हुई दरिंदगी की घटना ने फिर से भारत की जनता और यहां के लोकतंत्र को शर्मसार किया हैं। दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद समूचे देश में विरोध प्रदर्शन,कैंडल मार्च और आंदोलनों के जरिए दोषियों को फांसी दिए जाने की जो मांग उठी थी, वो एक बार फिर भारत से उठनी शुरू हो गई है। निर्भया के बाद से लेकर अब तक ऐसी तमाम घटनाए सामने आ गई हैं जिनको देखकर या सुनकर किसी का भी कलेजा फट जाएगा मगर कितने दिन तक? कठुवा, उन्नाव, हाथरस जैसे न जाने कितने मामले हैं जो कुछ दिनों तक सुनाई देते हैं और फिर शांत हो जाते हैं। उनकी जगह कोई और घटना ले लेती है।

राजनीति की जद में जैसे ही ये मुद्दे आते हैं, लोग समस्या के खत्म होने की मांग करने के बजाय न्याय देने, जुलूस निकालने, मुआवजे देने और तरह तरह से एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करने में जुट जाते हैं। कलकत्ता में हुई घटना में यही हो रहा हैं। भाजपा अलग आंदोलनों में जुटी है और ममता बनर्जी द्वारा किए जा रहे विरोध को साजिश बताने में लगी है। सत्ताधारी पार्टी के नेता ममता सरकार की आलोचना में लगे हैं। सभी फांसी की मांग करने में लगे हैं। मगर वो फांसी की मांग कर किससे रहे हैं, ये सोचने की बात है।

महिलाओं की सुरक्षा के मामले में पश्चिम बंगाल खासकर कलकत्ता अन्य राज्यों और शहरों की अपेक्षा आगे है। बंगाल की धरती पर हमेशा बुद्धिजीवियों का प्रभाव रहा है फिर ऐसी कुत्सित मानसिकता के जन्म लेने का कारण क्या है वो भी एक ऐसे स्थान पर जो बंगाल के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित संस्थानों में एक माना जाता है।

ऐसा नहीं है कि ममता सरकार में यही एक बड़ा मामला हुआ है। इससे पहले भी उनकी सरकार में कई बड़े ऐसे कांड हो चुके हैं जो ममता सरकार के शासन प्रणाली पर सवाल खड़ा करते हैं। सवाल तो अब भी खड़े हो रहे हैं और इन सवालों का जवाब हम न तो सरकार से पा सकते हैं और न ही प्रशासनिक व्यवस्था से। इन सवालों का जवाब ढूंढने के लिए हमें समाज के भीतर झांकना होगा कि आधुनिक होती दुनिया में ऐसे कृत्यों को अंजाम देने वालों के विचार इतने कुत्सित और वीभत्स क्यों होते जा रहे हैं।

जब भी इस तरह की घटनाएं किसी बड़े शहर में होती हैं तो वो मीडिया के केंद्र में होती हैं मगर आंकड़े कुछ और ही बयां करते हैं। एनसीआरबी की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में एक दिन में औसतन 87 रेप की घटना होती है, जिनमे अगर हम राजधानी दिल्ली की बात करें तो वहां की पुलिस के मुताबिक एक दिन में पांच से छह रेप की घटना शामिल है। एनसीआरबी अपनी रिपोर्ट में ये भी कहती है कि पिछले सालों के मुकाबले भारत में रेप की घटनाओं में साढ़े तेरह प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इनमे राजस्थान,मध्य प्रदेश,उत्तर प्रदेश और दिल्ली में सबसे ज्यादा मामले सामने आए हैं। ये आंकड़े हमारे सामान्य ज्ञान को बढ़ाने भर में सहायक है मगर हमे ये सोचना होगा कि आखिर इन आंकड़ों के बढ़ने के पीछे मूल वजह क्या है?

तमाम घटनाएं ऐसी भी है कि जिनपर मीडिया की नजर नहीं जाती या कहें कि मुख्य धारा की मीडिया उन पर नजर डालना हो नहीं चाहती। वो मीडिया के लिए उनकी टी आर पी के लिए महत्वपूर्ण नहीं होते। मीडिया का राजनीतीकरण होना समाज के लिए कई मायनों में खतरनाक है। दिल्ली और कलकत्ता में हुई घटना पर मीडिया राजनीतिक राग गाने में असल मुद्दे से जनता को भटकाने में ही लगी है। कलकता में हुई घटना में ज्यादातर मीडिया यही कर रहे है। वो वही करती हुई नजर आ रही है जो तमाम दल एक दूसरे के लिए कर रहे हैं।

मणिपुर की हिंसा पर उसकी चुप्पी या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी आखिर किस मानसिकता की ओर इशारा करती है? क्या देश के प्रधानमंत्री तभी बोलना पसंद करते हैं जब वो घटना उनकी विपक्षी सरकार के भीतर घटे? अब जब ममता खुद आंदोलन पर उतर आई हैं तो भी भाजपा उनपर लगातार हमलावर होती जा रही है और कह रही कि जिनको जवाब देना चाहिए वो खुद प्रोटेस्ट करने में लगे हैं।

जबकि यही बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी लेकर कही जाती रही है कि उनके ही डबल इंजन के सरकार वाले राज्य मणिपुर में जब दो महिलाओं को नंगा घुमाया गया तब वो कुछ नहीं बोले, न ही वहां गए और न ही किसी प्रकार का विरोध दर्ज कराया। ये राजनीतिक खेल में आखिर पिस तो जनता ही रही है? फिर एक बड़े जनांदोलन की गूंज क्यों नहीं सुनाई दे रही है? बड़े जनांदोलन से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि एक सामूहिक आंदोलन के उठने का सही समय कब आएगा जब ऐसे मुद्दों पर सभी दल और संगठन एक साथ सड़कों पर उतरेंगे।

यह भी गलत कहना नहीं होगा कि हिंसा और बलात्कार की भी राजनीति अब धर्म, जाति और समुदाय का चोला ओढ़ चुकी है। ट्रेनी डॉक्टर के साथ हुई घटना पर देश भर के डॉक्टर की रैलियां निकल रही है, आत्मा की शांति के लिए गुहार लगाई जा रही है, मगर इसका असर कब तक होगा, ये देश ने अच्छे से देख और समझ लिया है। काम का बहिष्कार करने और कैंडल मार्च से कोई दूरगामी प्रभाव होगा, मुझे तो नहीं उम्मीद। क्योंकि भारत की राजनीति में ऐसे मामलों को दबाने या फिर ध्यान हटाकर किसी नए मुद्दे पर जनता को उलझा देने का पाठ देश के नेताओं ने सीख लिया है। उन्हें ऐसे आंदोलनो को तोड़ने की तरकीब अच्छे से पता है। वो बेहतर जानते हैं कि देश में धर्म, जाति और समुदाय, संगठन के नाम पर सभी आंदोलन आपस में बंटे हुए है, जिनमे उनका हो फायदा है।

महिलाओं के सेल्फ डिफेंस और उनके सशक्तिकरण की बात के इतर कुछ और उपाय ढूंढना होगा जिससे समाज के भीतर महिलाओं को एक स्वस्थ और मजबूत वातावरण मिल सके। बलात्कार और उसके बाद हिंसा करने की सोच आख़िर कैसे समाज के भीतर पनप रही है? कौन से तत्व हैं जो समाज को इस कदर विकृत बना रहे हैं। एक हद तक देखा जाए तो देश में बढ़ रही पोर्नोग्राफी और अश्लीलता का प्रचार प्रसार भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। लगातार ऐसी फिल्में बन रही हैं जिनमे हिंसा करने के अलग अलग तरीकों को दिखाया जा रहा है। समाज उसके दुष्प्रभावों पर केंद्रित न होकर उस हिंसा से प्रेरित हो रहा है।

भारत में अनकट पोर्न वीडियो को बिना किसी सेंसर लोगों के सामने परोस दिया जा रहा है। मोबाइल युग में पल बढ़ रही पीढ़ी सेक्स को सिर्फ एक आनंद और शारीरिक संतुष्टि तक ही समझ रही है, बल्कि उससे ज्यादा जरूरत है कि वो इसके फायदे और नुकसान को सही तरीके से समझे और जाने। अब यह जरूरी हो चुका है कि सेक्स के विषय में भारत की पीढ़ी को बिलकुल वैसे ही जागरूक करने की जरूरत है जैसा उन्हें अपनी संस्कृतियों और परम्पराओं के प्रति जागरूक होने पर जोर दिया जा रहा है।

एक अच्छे और बेहतर सेक्स एजुकेशन से समाज के भीतर यौन शिक्षा को लागू करने की जरूरत है क्योंकि हमे यह मानना पड़ेगा कि इस तरह घटनाओं में भले ही एक दूसरे पर राजनीतिक लांछन लगाए जा रहे हो मगर समाज के विक्षिप्त होने में कहीं न कहीं गंदी मानसिकता भी दोषी है।

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