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पहले सेक्युलर सिविल कोड का मसौदा तो सामने रखे बीजेपी

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आका र पटेल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से दिए अपने भाषण में कहा कि उनकी सरकार भारत के निजी कानून यानी पर्सनल लॉ को बदलने की दिशा में काम करेगी। उन्होंने कहा, “एक कम्यूनल सिविल कोड के 75 साल के बाद यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम एक सेक्युलर सिविल कोड की तरफ आगे बढ़ें, इससे धार्मिक आधार पर भेदभाव खत्म होगा और सामान्य नागरिकों के बीच की दूरी खत्म होगी।”

भारत में पर्सनल लॉ के जरिए विवाह, तलाक और विरासत के मुद्दे तय होते हैं। इस मुद्दे पर बीजेपी का रुख देश के गणतंत्र बनने से ही अलग किस्म का करहा है। डॉ भीमराव आंबेडकर ने हिंदू पर्सनल लॉ में कुछ मामूली बदलाव का प्रस्ताव रखा था, खास तौर पर महिलाओं के लिए विरासत को लेकर। उन्होंने पारंपरिक विरासत कानून के दो प्रमुख पहलुओं को उठाते हुए उनमें से एक को संशोधित कर महिलाओं के लिए विरासत को अधिक न्यायसंगत बनाने का प्रस्ताव किया था। लेकिन आरएसएस के राजनीतिक गठन को यह मंजूर नहीं था।

संघ के राजनीतिक संगठन जनसंघ ने 1951 में हिंदू कोड बिल का यह कहकर विरोध किया था कि सामाजिक सुधार थोपे नहीं जाने चाहिए बल्कि समाज से ही आने चाहिए। इसके बाद 1957 में इसने कहा कि इन बदलावों को स्वीकार नहीं किया जाएगा अगर इनकी जड़े पुरातन संस्कृति से नहीं जुड़ी होंगी। साथ ही कहा (इसके) ‘परिणामस्वरूप ‘उग्र व्यक्तिवाद’ उत्पन्न होगा।’

जनसंघ ने अपने 1958 के घोषणा पत्र में लिखा कि “संयुक्त परिवार और अविभाज्य विवाह हिंदू समाज का आधार रहे हैं। इस आधार को बदलने वाले कानून अंततः समाज के विघटन का कारण बनेंगे। इसलिए जनसंघ हिंदू विवाह और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियमों को निरस्त करेगा।”

समय के साथ समाज में छोटे परिवार होने लगे और तलाक को भी समाज ने स्वीकार कर लिया, तो पार्टी ने इस मुद्दे पर बिना कोई कारण बताए अपने रुक को बदल लिया।

जनसंघ ने 1967 के घोषणा पत्र में यूनिफॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) का आह्वान किया, और उसके बाद से पार्टी के सभी घोषणा पत्रों में इसका जिक्र होता रहा है कि जब भी वह सत्ता में आएगी तो वह इसे लागू करेगी।  बीजेपी को 2014 और 2019 में पूर्ण बहुमत मिला और उसने इन दोनों ही चुनावों में वोटरों से यूनिफॉर्म सिविल कोड का वादा किया था, लेकिन न तो इसने इसका मसौदा पेश किया और न ही इसका कोई कानून बनाया।

और अब, जबकि पार्टी बहुमत खो चुकी है और सिर्फ 240 सीटों पर सिमट गई है, तो उसने फिर से इसका वादा किया  है, लेकिन कौन इस वादे को पूरा करेगा? मोदी या उनके मंत्रियों द्वारा इस बाबत बनाया गया मसौदा कहा हैं? निश्चिति ही ऐसा कोई मसौदा है ही नहीं। बीते सालों के दौरान देश ने बीजेपी सरकारें तो देख लीं, लेकिन समान नागरिक संहिता का मसौदा भाषणों से आगे कहीं नजर नहीं आया।

इसके न होने का कारण यह है कि यह आसानी से खत्म हो जाने वाली समस्या नहीं है। बीजेपी और इसके समर्थकों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड या सेक्युलर सिविल कोड सिर्फ बहु-विवाह को रोकने का विकल्प मात्र है। लेकिन  इसके लिए बीजेपी को मुसलमानों के अलावा अन्य तबकों को भी निशाना बनाना पड़ेगा। हिंदू अविभाजित परिवार से जुड़े पहलू ही एकमात्र ऐसे पहलू नहीं हैं जिन्हें हल करना होगा।

बहुत लोगों को अनुच्छेद 370 की जानकारी है जिसे बजेपी लंबे समय से खत्म करने का वादा करती रही थी और 2019 में उसे खत्म भी कर दिया, लेकिन कम लोगों को इसके अगले अनुच्छेद की जानकारी है जो कि अनुच्छेद 371 है। यह अनुच्छेद कहता है, “नगाओं की धार्मिक या सामाजिक प्रथाओं (तथा) नगा प्रथागत कानून और प्रक्रिया के संबंध में संसद का कोई अधिनियम… नगालैंड राज्य पर तब तक लागू नहीं होगा जब तक कि नगालैंड की विधान सभा एक प्रस्ताव द्वारा ऐसा निर्णय न ले।”

तो फिर सेक्युलर सिविल कोड का क्या होगा जोकि नगा प्रथाओं के खिलाफ है? इसका जवाब हमारे पास तो नहीं है। और बीजेपी के पास भी नहीं।

नगालैंड बार एसोसिएशन ने 2018 में मुख्यमंत्री नेफियो रिओ को एक ज्ञापन देकर कहा था कि पर्सनल लॉ से जुड़े केंद्र सरकार के कई कानून “नगा सामाजिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं के विरुद्ध और प्रतिकूल हैं। संविधान के अनुच्छेद 371 ए के प्रावधानों के अलावा, पर्सनल लॉ के मामलों में विधायी शक्ति राज्य विधानमंडल के पास निहित है।”

जिन कानूनों का जिक्र किया गया था उनमें भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925; विशेष विवाह अधिनियम, 1954; भारतीय तलाक अधिनियम, 1869; जन्म, मृत्यु और विवाह पंजीकरण अधिनियम, 1886; संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890; और पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 आदि शामिल हैं। बार एसोसिएशन ने कहा कि इन कानूनों को “हमारे अपने राज्य अधिनियमों द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना आवश्यक है।”

अनुच्छेद 371 में इसी प्रकार के प्रावधान मिज़ो समुदाय (371जी) के  प्रथागत कानून की रक्षा करते हैं।

अब दो बातों पर विचार करने की जरूरत है। पहली बात, प्रधानमंत्री के समान या सेक्युलर नागरिक संहिता के आह्वान का विरोध करने या उस पर टिप्पणी करने का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक कि वह इसका मसौदा तैयार नहीं कर देते। उन्हें बार-बार इसे दिखाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, भले ही उन पर यह स्पष्ट करने के लिए दबाव न डाला जाए कि उन्होंने बहुमत के समय 10 साल तक कानून क्यों नहीं बनाया और पारित क्यों नहीं किया।

विपक्ष और उनके इस भाषण से चिंतित हुए समुदायों को तब तक अपनी प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए जब तक वे यह न देख लें कि भाषण के अलावा वास्तव में उन्होंने क्या कुछ किया है।

दूसरी बात यह है कि वे इस मुद्दे को क्यों उठा रहे हैं, जबकि उनकी पार्टी अब अल्पमत में है। इसी तरह, वक्फ बिल क्यों पेश किया गया, जबकि यह स्पष्ट था कि 240 सीटों वाली बीजेपी इसे पारित नहीं करवा सकती और उसके सहयोगी दलों की हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं है? डंके की चोट पर अपनी बात कहने वाले स्वतंत्र पत्रकारों का लोगों का गला घोंटने के लिए तैयार किया गया ब्रॉडकास्ट बिल क्यों बनाया गया, जबकि स्पष्ट था कि यह बिल भी मुश्किल में पड़ जाएगा? ये दोनों प्रस्तावित कानून 4 जून 2024 के बाद भारत की वास्तविकता से टकरा रहे हैं।

सेक्युलर सिविल कोड पर भाषण से साफ हो गया है कि प्रधानमंत्री के फीके पड़ते आभामंडल और चुनावी नतीजों के असली अर्थ शायद बीजेपी को समझ ही नहीं आए हैं।

इस भाषण से असली भारत को समझने की स्वीकृति भी नहीं दिखती, इसीलिए सरकार ऐसे जुमले और वादे गढ़ रही है जिन्हें संसदीय अल्पमत में लागू नहीं किया जा सकता।

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