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बांग्लादेश के जनविप्लव से शिक्षा और प्रेरणा लें भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल, मालदीव के लोकतंत्र प्रेमी

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चाहे बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान रहे हों या शेख हसीना का कालखंड हो या सैनिक जनरल जियाउर रहमान रहे हों या खालिदा जिया सबने बंगाल की श्रेष्ठतम सांस्कृतिक विकृत कर लोकतांत्रिक और सामाजिक सुधार की दिशा को पीछे ले जाने का प्रयास किया और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ विश्वास घात कर बांग्लादेश को एक कट्टरपंथी तानाशाही देश के रूप में बदलने की कोशिश की।पिछले 52 वर्षों की यात्रा अनेक तरह के दुख स्वपनों तनावों बर्बादियों नरसंहारों और क्रूरताओं से भरी है। यह एक महा दुखांत‌ वृतांत है। जिसकी करुण गाथा कोई नजरूल इस्लाम कोई रविंद्र नाथ टैगोर कोई शरद चंद और सुकांत भट्टाचार्य आने वाले समय में लिपिबद्ध कर आने वाले समय में बांग्लादेश के नागरिकों की गहन संवेदना पीड़ा और जिजीविषा का महावृतांत रचेगा।

जयप्रकाश नारायण

अभी 2 साल पहले हमने श्रीलंका मे गंभीर राजनीतिक संकट देखा था। जहां गोटा बाय राजपक्षे के विघटनकारी नस्लवादी तानाशाही के खिलाफ श्रीलंकाई नागरिक उठ खड़े हुए थे। आर्थिक संकट में घिरे श्रीलंका की आम जनता ने युवाओं और मजदूरों के नेतृत्व में राजपक्षे सरकार के खिलाफ विद्रोह कर  राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया था। राजपक्षे परिवार को सत्ता छोड़कर देश से भागना पड़ा था। उस समय एक वामपंथी पृष्ठभूमि के प्रधानमंत्री को नामित कर श्रीलंकाई संकट को हल करने की कोशिश की गई।

हालांकि लगता है यह  शांति क्षणिक ही होने वाली है। महिंद्रा और गोटा बाय राजपक्षे बंधुओं ने सिंघली राष्ट्रवाद को हिंसक बनाया और तमिलों का भारी जनसंहार कर राष्ट्र नायक बने। सिंघली राष्ट्रवाद उन्माद खड़ा कर तमिल जनता के जनसंहार की आड़ में फासीवादी निजाम जनता पर‌ थोप दिया गया था। बेरोजगारी आर्थिक संकट और रोजमर्रा की कठिनाइयों और नरसंहार की राजनीति से जूझती हुई श्रीलंकाई जनता के नीचे से उठे विद्रोह ने उनकी सत्ता को उखाड़ फेंका। अभी भी श्रीलंका आंतरिक मंथन से गुजर रहा है।

पाकिस्तान की स्थिति: 

50 के दशक के शुरुआत से दो साल पहले अगस्त 1947 में ही ब्रिटिश भारत के विभाजन के साथ भारत और पाकिस्तान नामक दो देश अस्तित्व में आए। विभाजन का आधार धार्मिक पहचान को बनाया गया था।जिन्ना जैसे करिश्माई नेता के मजबूत जनतांत्रिक प्रतिबद्धता के बावजूद उनके न रहते ही पाकिस्तान में लोकतंत्र ढह गया और सैन्य तानाशाही अस्तित्व में आई। दुनिया में धर्म के आधार पर राष्ट्र -राज्य का निर्माण एक अप्राकृतिक परिघटना है। इसलिए धार्मिक पहचान के नाम पर पश्चिमी भारत और पूर्वी बंगाल को मिलाकर बने पाकिस्तान में सांस्कृतिक भाषाई नस्लीय भौगोलिक और संवेदनात्मक भिन्नता थी। जिसके चलते 1971 तक आते-आते पाकिस्तान टूट गया। भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी खित्ते में बांग्लादेश नामक एक सर्वथा नया राष्ट्र-राज्य अस्तित्व में आया। 

50 के दशक की शुरुआत से ही पाकिस्तान सैन्य तानाशाही और कमजोर लोकतंत्र के बीच में झूलते हुए आज अस्तित्व के गंभीर संकट से जूझ रहा है। चूंकि पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें गहरी नहीं हो सकी हैं। जिस कारण से पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों के राजनीतिक आर्थिक स्वार्थों का अखाड़ा पाकिस्तान बना हुआ है। अमेरिकी नेतृत्व में खड़े हुए सैन्य संगठन सीटो का सदस्य बन जाने से पाकिस्तान पर अमेरिका की‌ पकड़ बहुत मजबूत है।

चूंकि साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए सैन्य और मजहबी तानाशाही उनके आर्थिक और राजनीतिक स्वार्थ के लिए सबसे बेहतरीन मॉडल होती है। इसलिए उन्होंने पाकिस्तान में कभी भी लोकतंत्र की जड़ों को सुदृढ़ नहीं होने दिया। अमेरिकी घुसपैठ पाक सेना में बहुत अन्दर तक है। जिस कारण से आज तक पाकिस्तान का लोकतंत्र विकलांगता का शिकार है। सैन्य तानाशाही का पहला कुफल पाकिस्तान के पूर्वी भाग के अलग होने के रूप सामने आया।

नेपाल:

भारत के उत्तर में नेपाल लंबे समय से राणाशाही के लौह पंजे में कैद रहा है। भारतीय सत्ताधारियों के लिए जो स्वाभाविक रूप से सहज स्थिति थी। जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया जन गण में जमीनी सतह से बहुत धीमी गति से आगे थी।  1989 /90 में लोकतंत्र बहाली के लिए चले आंदोलन ने नेपाली समाज को नई ऊर्जा और आत्म विश्वास से भर दिया। राजशाही के प्रति उनका मोह भंग तेजी से बढ़ता गया था। नेपाल के इस नवजागरण में वामपंथी कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की केंद्रीय भूमिका थी। 90 के दशक में जब दुनिया में दक्षिण पंथ की आंधी चल रही थी। तो नेपाल वाम क्रांतिकारी तूफान के आगोश में घिर आया। जिसने राजशाही के अंत की पटकथा लिख दी।

यहां से नेपाल ने नई प्रगतिशील लोकतांत्रिक यात्रा शुरू की। हालांकि दो महाशक्तियों भारत और चीन के बीच में स्थित होने और समुद्री जल मार्ग से न जुड़े होने के कारण नेपाल दोहरे दबाव में जीने के लिए मजबूर है। फिर भी राजशाही के अंत के बाद नेपाल में एक नई लोकतांत्रिक यात्रा की शुरुआत हुई है। अभी भी नेपाल में लोकतंत्र के स्थायित्व को लेकर प्रश्न चिन्ह उठते रहते हैं। बार-बार सरकारों का बदलना वहां के आंतरिक जीवन में चल रहे सामाजिक राजनीतिक प्रक्रियाओं के योग फल के रूप में देखा जाना चाहिए और जिस पर भारत और चीन का भी असर होना स्वाभाविक है।

मालदीव:

श्रीलंका से उत्तर पश्चिम में स्थित नन्हा सा मुस्लिम बहुल मालदीव है। जो भारत का पड़ोसी होने के साथ भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। संकट के समय कई बार भारत ने मालदीव की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वहां सैन्य तख्तापलट भी हो चुका है। उस समय भारत के सहयोग से मालदीव को बचाया जा सका था। मालदीव में लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए एक लंबी जद्दोजहद चल रही है। जो इस समय महा शक्तियों के खेल का अखाड़ा बनने के खतरे के समक्ष खड़ा है। वर्तमान राष्ट्रपति मोईज्जू चीन समर्थक माने जाते हैं। उनके सत्ता में आने के बाद से भारत के साथ संबंधों में थोड़ा सी खटास आई है।

म्यांमार:

भारत का पूर्वी पड़ोसी देश है। म्यांमार में आज तक राजनीतिक स्थिरता कायम नहीं हो सकी। लोकतंत्र की जड़ें बहुत कमजोर हैं। जनरल ऊ नू और नेविन के समय से ही म्यांमार में सैन्य‌ तानाशाही रही है। सैनिक तानाशाहों के क्रूर नियंत्रण में रहने वाला पड़ोसी देश इस समय गंभीर राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। लोकतंत्र वादी नेता आंग-शाग सू की” जो धीरे-धीरे कट्टर बौद्ध राष्ट्रवाद की तरफ बढ़ रही थीं” को अपदस्थ करके जेल में डाल दिया गया है।सैनिक तानाशाही ने म्यांमार को राजनीतिक अस्थिरता के रास्ते पर धकेल दिया है। ऐसी खबरें आ रही हैं कि विद्रोही राजनीतिक ग्रुपों ने म्यांमार के बहुत बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया है। इसी जुलाई महीने में उत्तरी म्यांमार के सबसे बड़े शहर पर विद्रोहियों का नियंत्रण हो चुका है। इस समय म्यांमार संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। सैनिक तानाशाही की शक्ति लगातार कमजोर हो रही है और जनता के अंदर विद्रोहियों की साख सम्मान और समर्थन बढ़ता जा रहा है। हालांकि म्यांमार की सैन्य तानाशाही चीनी गणराज्य के प्रभाव में है।

बांग्लादेश का अभ्युदय:

70 के दशक में तत्कालीन पाकिस्तानी सैन्य शासन के अन्तर्गत चुनाव हुआ।  पूर्वी पाकिस्तान में अवामी लीग को भारी सफलता मिली। उसके नेता मुजीबुर्रहमान पूर्वी पाकिस्तान के राष्ट्र नायक के रूप में उभरे। ‌चूंकि पश्चिमी पाकिस्तान ही राजनीतिक सत्ता का केंद्र था। जहां से पूर्वी भाग का संचालन होता था। चुनाव के परिणाम स्वरूप पाकिस्तान में शक्ति और सत्ता का बंटवारा  जरूरी हो गया। जिससे पश्चिमी पाकिस्तान के एकाधिकार को चुनौती मिल रही थी। इसलिए‌ पूर्वी पाकिस्तान में अवामी लीग को सत्ता का हस्तांतरण संभव नहीं हो सका और मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।

जनता के फैसले को सैन्य तानाशाही को अस्वीकार कर देने के कारण पाकिस्तान के पूर्वी भाग में गृह युद्ध शुरू हो गया और बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी  विद्रोह की नेतृत्व कारी केंद्र बनकर उभरी।पाकिस्तान ने सैन्य बल के द्वारा विद्रोह को कुचलने की कोशिश की। जनरल टिक्का खां के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना ने अपने ही देश के एक भाग में भारी नरसंहार, खून खराबा तथा कत्लेआम मचाया। जिससे विद्रोह की शक्ति बढ़ती गई। पाकिस्तान सरकार पर पूर्वी बंगाल के नागरिकों का विश्वास खत्म हो चुका था और वे एक स्वतंत्र मुल्क की मांग के साथ आगे बढ़े। पाकिस्तानी सेना की क्रूरता बर्बरता की कहानियां भारत सहित दुनिया भर में फैलने लगी और भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान अलगाव में चला गया। विद्रोहियों की केंद्रीय ताकत वामपंथी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी थे । इसमें राष्ट्रवादी शक्तियों के मिल जाने से विद्रोह की ताकत और आधार व्यापक हो गया ।

वामपंथी ताकतों के साथ हजारों छात्र युवा किसान मजदूर प्रोफेशनल (इंजीनियर प्रोफेसर )और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल होते चले गए। इसी समय पूर्वी पाकिस्तान के ठीक बगल में भारत के बंगाल प्रांत में 1967 में कम्युनिस्ट क्रांति की तूफानी लहर उठ खड़ी हुई थी। जिसे नक्सलवादी विद्रोह के रुप में जाना जाता है। इस विद्रोह का पूर्वी बंगाल की जनता पर गहरा असर पड़ा और बांग्लादेश में जन विद्रोह व्यापक जनवादी क्रांतिकारी चरित्र लेने लगा। प्रगतिशील राष्ट्रवाद के साथ वाम जनवादी क्रान्ति निश्चय ही भारतीय उप महाद्वीप के लिए सर्वप्रथम उन्नत किस्म का लोकतांत्रिक संघर्ष था।

70 के दशक में एशिया में वियतनामी क्रांति की आवाज चारों तरफ गूंज रही थी। जिसका प्रभाव एशिया के उत्पीड़ित  जन-गण और मुल्कों पर पढ़ना स्वाभाविक था। उस समय कई एशियाई मुल्कों‌ में वाम क्रांतिकारी आंदोलन का विस्तार तेज गति से हो रहा था। दक्षिण पूर्व एशिया‌ के देशों में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन का ज्वार उफान पर था। इसलिए अमेरिका सहित अन्य महा शक्तियों का बांग्लादेश की जन क्रांति से भयभीत होना स्वाभाविक था।

 जहां एक तरफ अमेरिका पाकिस्तान को बचाने की कोशिश में था। वहीं दूसरी तरफ भारतीय सत्ताधारी वर्ग अपने पड़ोस में वाम क्रांतिकारी मुल्क के अभ्युदय से चिंतित थे। 

 पाकिस्तानी सेना द्वारा बंगाल में किए जा रहे नरसंहार बलात्कार और हत्याओं ने नये संकट को जन्म दिया। बड़ी तादाद में पूर्वी बंगाल के नागरिक भारत के पड़ोसी राज्यों में आने लगे। जिससे गंभीर शरणार्थी संकट खड़ा हो गया था। लगभग एक करोड़ की संख्या में पूर्वी बंगाल के नागरिक भारत में पलायन कर घुस आए।‌ गम्भीर शरणार्थी संकट खड़ा हो जाने से भारत को पूर्वी पाकिस्तान में हस्तक्षेप का मौका मिला और सब जानते हैं कि किस तरह से भारतीय सेना के सहयोग से 1971 के दिसंबर में बांग्लादेश अस्तित्व में आया।

2 हफ्ते के युद्ध के बाद 90 हजार पाकिस्तानी सैनिक जनरल टीका खान के नेतृत्व में भारतीय सेना के सामने आत्म समर्पण कर दिये । भारत-पाकिस्तान के बीच में वार्ता के द्वारा सैनिकों की अदला-बदली हुई और मुजीब- उर -रहमान की रिहाई के बाद बांग्लादेश नामक एक नया मुल्क दुनिया के नक्शे में जुड़ गया। 

बांग्लादेश के बनने से भारत में जश्न का माहौल था। इंदिरा गांधी महानायक के रूप में विश्व के राजनीतिक पटल पर उभरी थी। बांग्लादेश के निर्माण से भारत की वैदेशिक‌ कूटनीति सफलता के चरम पर थी। वही एक जन क्रांति के विदेशी सेना के द्वारा मंजिल तक पहुंचने से जो विकृतियां पैदा होती हैं। उसका शिकार बांग्लादेश को होना ही था। हम जानते हैं कि अमेरिकी सेना के बल पर टिका हुआ दक्षिणी कोरिया और ताइवान चाहे जितने भी टेक्नोलॉजिकली और आर्थिक रूप से उन्नत देश हो जाएं। लेकिन वे आज भी अमेरिका के संरक्षित देश‌ ही हैं।

 उस समय दुनिया ने इस अंतर-विरोध पर ध्यान नहीं दिया। बंगाली राष्ट्रवाद को अंततोगत्वा भारतीय महाशक्ति के साथ अंतर विरोध में आना स्वाभाविक था।इस अन्तर विरोध‌ को भविष्य में पूर्वी बंगाल में निर्णायक भूमिका अदा करना था। बंग बंधु मुजीब के नेतृत्व में बांग्लादेश की यात्रा शुरू हुई। लेकिन जो रिपोर्ट आ रही हैं।

उससे जानकारी मिल रही है कि शेख मुजीब धीरे-धीरे अपने हाथ में सत्ता का केंद्रीकरण करने लगे और प्रगतिशील वामपंथी ताकतों को कमजोर और खत्म करने की दिशा में आगे बढ़ गये। उन्होंने कई बड़े लोकप्रिय मुक्ति युद्ध के नायकों को रास्ते से हटा दिया। सरकार और पार्टी पर अपना एक अधिकार कायम कर लिया। 

शेख मुजीब की सरकार 4 साल भी नहीं चल पाई और 15 अगस्त, 1975 को उनके ही सैन्य अधिकारियों ने उनकी हत्या कर दी। जिसमें बड़े पैमाने पर मुजीब के समर्थक अधिकारी और कार्यकर्ता मारे गए। शेख मुजीब के परिवार के 13 सदस्य तख्ता पलट के दौरान मार दिए गए। उनकी दो बेटियां शेख हसीना और रेहाना विदेश में रहने के कारण जिंदा बच गईं। जिसमें बाद में शेख हसीना अवामी लीग की अध्यक्ष और पांच बार बांग्लादेश की राष्ट्रपति बनीं। 

बंगबंधु शेख मुजीब की हत्या के बाद से बांग्लादेश लोकतंत्र और सैनिक तानाशाही के बीच आवाजाही करता है। जनरल जियाउर्रहमान की हत्या के बाद उनकी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और अवामी लीग की प्रबल प्रतिद्वंदी बनकर उभरी। जनरल रहमान की विधवा खालिदा जिया ने पार्टी की कमान संभाली और वह देश की राष्ट्रपति की बनी जो कट्टर दक्षिण पंथी पार्टी है। जिसका जमाते इस्लामी पार्टी के साथ मधुर संबंध देखा गया। 

यहां याद रखना चाहिए कि ईस्ट इंडिया कंपनी की जड़ें बंगाल से ही फैली है। कंपनी ने 1757 में प्लासी की लड़ाई में सुजाउद्दौला को हराकर बंगाल से ही अपनी विजय यात्रा शुरू की थी। जिस कारण भारतीय नवजागरण का प्रारंभ बंगाल से ही हुआ था। जिससे बंगाली अस्मिता को बल मिला तथा वहां आधुनिकता के मूल्य और सामाजिक सुधार जैसे शती प्रथा का विरोध, आधुनिक शिक्षा जैसे क्षेत्रों में बंगाल में भारी प्रगति की थी। जिससे महिलाओं से लेकर गरीबों मजदूरों और कमजोर वर्गों के बीच में आधुनिक राजनीतिक चेतना का विकास हुआ था। ब्रह्म समाज सहित अनेक संस्थाएं वहां अस्तित्व में आई।

सामाजिक सुधार से लेकर राजनीतिक संघर्षों की समृद्ध परंपरा बंगाल में रही है। जिसमें क्रांतिकारी आंदोलन से लेकर सुधारवादी नेता राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर और रविंद्र बाबू नजुरूल इस्लाम और विवेकानंद जैसे महान लोगों की महान विचारों संघर्षों द्वारा निर्मित आधुनिकता बोध की परंपराएं बंगाली समाज में बहुत गहरे तक घुसी हुई हैं। जिस कारण बंगाल आधुनिक भारत के सांस्कृतिक सामाजिक चेतना का केन्द्र बना था। इसलिए ब्रिटिश शासन ने ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति के तहत बंगाल का विभाजन कर बंगाल को सांस्कृतिक सामाजिक रूप से विकलांग बनाने की कोशिश की।

विभाजन के  बाद पूर्वी पाकिस्तान बनने, पाकिस्तान के इस्लामी राष्ट्र होने तथा सैनिक तानाशाही जैसे क्रूर निजाम के आने के बावजूद बंगाल अपनी बौद्धिक सांस्कृतिक चेतना के उच्चतम मूल्यों को किसी न किसी रूप में अभी भी संजोये हुए है इसलिए 1971/72 में बांग्लादेश बनने के बाद अनेक तरह के खतरनाक दौरों जैसे गृह युद्ध सांप्रदायिकता सैनिक तानाशाही तथा लोकतंत्र के बीच में चल रहे अघोषित युद्ध के इस पूरे काल में बांग्लादेश का एक बड़ा हिस्सा आज भी लोकतांत्रिक मूल्यों समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और भाई चारा के विचारों के साथ संघर्षरत रहा है और कुर्बानियां दे रहा है।

चाहे बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान रहे हों या शेख हसीना का कालखंड हो या सैनिक जनरल जियाउर रहमान रहे हों या खालिदा जिया सबने बंगाल की श्रेष्ठतम सांस्कृतिक विकृत कर लोकतांत्रिक और सामाजिक सुधार की दिशा को पीछे ले जाने का प्रयास किया और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ विश्वास घात कर बांग्लादेश को एक कट्टरपंथी तानाशाही देश के रूप में बदलने की कोशिश की।

फिर भी बांग्ला समाज का आधुनिकताबोध जीवित रहा। उसकी लोकतांत्रिक समावेशी चेतना अंदर-अंदर शक्ति ग्रहण कर फलती फूलती रही और आज 16 साल के शेख हसीना के एक छत्र तानाशाही राज व भेदभाव भ्रष्टाचार और  लोकतंत्र की हत्या के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है।

बंगबंधु मुजीब साहब के समय में भी बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी के योद्धाओं की हत्याएं हुईं,  प्रगतिशील बुद्धिजीवी लेखकों, कम्युनिस्ट योद्धाओं और नेताओं के साथ-साथ मानवाधिकार और लोकतांत्रिक संस्थाओं को दबाया गया। मुजीब काल में ही बांग्लादेश की महान क्रांति (अधूरी) की उपलब्धियों की चमक फीकी पड़ गई‌ और वह क्रांतिकारी आवेग खो बैठी। बंगबंधु मुजीब के सर्व सत्तावाद ने इस खतरे को और बढ़ा दिया। बांग्लादेश सैन्य तानाशाही और इस्लामी कट्टरवाद के दोहरे खतरे के करीब पहुंचता गया। जो शेख मुजीब की हत्या के रूप में सामने आया।

उसके बाद पिछले 52 वर्षों की यात्रा अनेक तरह के दुख स्वपनों तनावों बर्बादियों नरसंहारों और क्रूरताओं से भरी है। यह एक महा दुखांत‌ वृतांत है। जिसकी करुण गाथा कोई नजरूल इस्लाम कोई रविंद्र नाथ टैगोर कोई शरद चंद और सुकांत भट्टाचार्य आने वाले समय में लिपिबद्ध कर आने वाले समय में बांग्लादेश के नागरिकों की गहन संवेदना पीड़ा और जिजीविषा का महावृतांत रचेगा।

भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा भूभाग महान भारत आज के समय शायद इन्हीं सब जटिलताओं से गुजर रहा है। आज जो कुछ इस महादेश के राजनीतिक सामाजिक मंच पर घटित हो रहा है। वह भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों की कथाओं का ही पुनर्मंचन जैसा दिख रहा है। भारतीय रंगमंच पर भी आने वाले समय में शायद इसी तरह के दुखांत नाटक खेले जाने हैं। वे खौफनाक मंज़र जो पाकिस्तान श्रीलंका नेपाल से लेकर बांग्लादेश तक देखे हैं। शायद भारतीय रंगमंच पर भी दिखने लगे हैं। यहां भी घटना चक्र तेजी से घूम रहा है उनके अंदर छिपे सत्ताधारियों के खौफनाक इरादे लाख छुपाने की कोशिशों‌ के बावजूद बीच-बीच में फूटकर बाहर आ जा रहे हैं।

इसलिए भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न देशों के लोकतांत्रिक प्रगतिशील जन गण के सामने इतिहास की जो सबसे विकराल चुनौतियां खड़ी हैं। उनका जवाब बांग्लादेश के छात्र नौजवानों के नेतृत्व में महिलाओं, किसानों, मजदूरों व प्रगतिशील बुद्धिजीवियों और लोकतंत्र चाहने वाले लोगों ने साझा प्रयास से दिया है।

हो सकता है आने वाले समय में लगभग दो अरब आबादी वाले भारतीय उपमहाद्वीप के देश भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल, मालदीव के लोकतंत्र प्रेमी जनगण बांग्लादेश के जनविप्लव से शिक्षा और प्रेरणा लें। बांग्लादेश में वर्तमान तूफानी काल में घटित हो रही घटनाएं हमारे लिए यही संदेश दे रही हैं  कि सत्ता तंत्र का लौह जाल पूंजी का षड्यंत्रकारी खेल और बंदूक फौज जासूस दलाल सब कुछ के बावजूद अंततोगत्वा निर्णायक शक्ति लोकतांत्रिक जनगण के अंदर ही अंतर्निहित होती है। 

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

जारी।

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