मनीष सिंह
लैटरल एंट्री एक शानदार विचार है…सारे ज्ञान और ईमानदारी का ठेका, 20-22 की उम्र में कालेक्स, करोला रटकर, छाप देने की एबिलिटी से जोड़ा नहीं जा सकता. प्रतिभा के मायने बहुतेरे हैं. आईएसएस, देश का स्टीली ढांचा है, जो मजबूती से देश को खड़ा रखता है, पर अपने ऊपर किसी को बढ़ने भी नहीं देता. दरअसल, बदलते राजनीतिक दुराग्रहों के बीच, ये पांच हजार लोग इस देश के असल जमींदार, रजवाड़े या नोबल्स बन गए हैं. आप राजनीतिकों का गुमाश्ता कह लें.
किसी विषय में कोई विशेषज्ञता नहीं है, पर हर विषय पर जिले और राज्य के सबसे बड़े विशेषज्ञ यही है. खेती, हेल्थ, एजुकेशन, रेवेन्यू, कानून व्यवस्था…साहब बहादुर चार्ज सम्हालते ही उस विषय के श्रेष्ठतम विशेषज्ञ बन जाते हैं. और हां, साहब हैं, तो पोस्टिंग नामक स्वर्गिक फल दिखाकर, जो मर्जी करवा लो.
लैटरल एंट्री, गैर सरकारी क्षेत्रों से, एलाइड सर्विसेज मिलिट्री से .. मैच्योर्ड लोगों की सेवा लेने का रास्ता खोलता है. नीति निर्माण, और प्रशासन में असली बौद्धिकों को लेने का अवसर देता है. अमेरिका सहित कई देशों में यह धड़ल्ले से चलता है. भारत में भी योजना आयोग इस तरह के टैलेंट को सरकारी तंत्र में लाने का एक रास्ता था.
कांग्रेस अध्यक्ष रहते सुभाष बोस ने इसकी नींव डाली थी. नेहरू ने उसे आजादी के बाद संस्थागत स्वरूप दिया. पर वह गैर निर्वाचित लोगों का निकाय था, तो संविधानेत्तर ही रहने दिया. फॉर्मल न बनाया, लेकिन खुद उसके अध्यक्ष बने. इससे आयोग को पीएम का संरक्षण मिला. भूमिका एग्जीक्यूटिव की नहीं, सिर्फ सलाहकारी थी. पर पीएम का थिंक टैंक बनकर वह ताकतवर होता गया.
राज्य और देश की हर स्कीम का एसेसमेंट, योजना आयोग करता. पैसा सैंक्शन करने के पहले उसकी राय ली जाती. वह स्टडी करता, रिपोर्ट बनाता, सुझाव देता. राज्यों की माली हालत पर निगाह रखता, और डायरेक्शन देता. इससे विपक्ष की राज्य सरकारों को बड़ी कोफ्त होती. आखिर ये ‘बंच ऑफ तथाकथित एक्सपर्ट्स’ है कौन…जो उनके ऊपर नकेल रखे.
ऐसे में मोदी सरकार ने आते ही पहले योजना आयोग खत्म किया तो आज मूर्खतापूर्ण पॉलिसीज, रोल बैक, गलत जीएसटी, गलत खर्चे करके अंधाधुंध कर्ज, गले में लटकाए बैठी है. आप गाड़ी का ब्रेक निकाल फेकेंगे, तो यही होगा लेकिन उसे दूसरे मतलब से प्राइवेट एक्सपर्ट चाहिए. सीधे, एग्जीक्यूटिव के भीतर. मंत्रालय में, सचिव बनाकर…
जिसमें भरे जाते हैं अम्बानियों और अदानियों के अफसर, जो वहां की नौकरी छोड़कर यहां 5 साल आते हैं, काम उन्हीं का करते हैं और फिर अवधि खत्म होने पर वापस उन्हें ही जॉइन करते हैं. तो अब एक ही मंत्रालय में, भारसाधक सचिव है, जो विभागीय, ऑथराइज्ड आदमी है.
उसके नीचे (सिर पर) एक गुजरात लॉबी का सहायक सचिव है. एक संघ का आदमी सहायक सचिव है. एक मोदी जी द्वारा स्पाई करने को बिठाया सचिव है. एक अम्बादानी का सहायक सचिव है. नीचे के ऑफिस में भी ऐसे ही कॉन्ट्रैक्ट पर बिठाये ओएसडी हैं. यह भाजपा की परंपरा है. हर सीएम के ऑफिस, घर, हर मंत्री के कार्यालय में दो चार ओएसडी हैं.
सारे बराबर के पॉवर सेंटर है, सबके कॉन्फ्लिक्टिंग इंटरेस्ट हैं. एक कुछ करता है, दूसरा तोड़ता मरोड़ता है, तीसरा अपने बाप को खबर करके अड़ंगा लगवाता है. अब मंत्रालय और विभागीय मंत्री क्या खाक काम करेगा. संस्थाओं का सत्यानाश, आप दूसरे संस्थानों का ऑब्जर्व करते हैं लेकिन पहला नाश तो सरकार नाम की संस्था का हुआ है.
लैटरल एंट्री उसका कॉन्ट्रीब्यूटिंग फैक्टर रही है. आप इससे रघुराम राजन की एंट्री करा सकते हैं. आप इसी रास्ते, निर्मला बुच की एंट्री करा सकते हैं. यह चयन, इन लोगों की नहीं, चयनकर्ताओं की नीयत और क्वालिटी को दर्शाता है.
उस्तरा होता है, शेविंग के लिए. अनचाहे बाल हटाओ, सुंदर और युवा बन जाओ. उसमें अच्छी धार हो, तो अच्छा काम करेगा, यदि उस काम को, ठीक से जानने वाले व्यक्ति के हाथ में हो. लेकिन बंदर के हाथ उस्तरा देना, कभी कान, कभी नाक काटता है. अभी तो सीधे गर्दन पर धर दिया गया है. ऐसे में बंदर के हाथ से उस्तरा छीन लेना चाहिए.
तो कई उस्तरों में से एक को फिलहाल विपक्ष ने छीन लिया है. यह सन्तोष की बात है. देश को बधाई.