नन्द किशोर सिंह
मेरी समझ से धर्म एवं जाति आधारित राजनीति दोनों बेहद ख़तरनाक हैं. धर्म की राजनीति जब साम्प्रदायिक राजनीति का रूप अख्तियार करती है तो देश को बंटवारे की विभीषिका का मुकाबला करना पड़ता है. लाखों परिवार जो उस दौरान विस्थापित हुए, नाना प्रकार की यातनाओं एवं प्रताड़नाओं के शिकार हुए और जिन्होंने मानवता को तार-तार होते देखा और साक्षात हैवानियत का दर्शन किया, उनकी पीड़ा बहुत दुःखदाई थी और आज भी उनके वारिसों में घनीभूत होकर जमी बैठी है.
साम्प्रदायिकता अक्सर संस्कृति का भेष धारण करके प्रकट होती है, लेकिन बुद्धिमान देशभक्तों को इससे भ्रमित होने की जरूरत नहीं है. धार्मिक उन्मादियों, साम्प्रदायिक हैवानियत के ‘पुजारियों’ और देश को मध्ययुगीन बर्बरता में ढकेलने की साज़िश में लगे ‘बजरंगियों’ का भंडाफोड़ कर उन्हें पूरी तरह जमींदोज किये बगैर देश का कोई भविष्य नहीं है.
जहां तक जाति आधारित राजनीति करने वाले सामाजिक न्याय के तथाकथित अनुयायियों का सवाल है, इसमें अधिकांश बिल्कुल प्रतिक्रियावादी सोच के लोग हैं, जो जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त ऐसे बीमार लोग हैं जिन्हें देशहित के पहले अपने जातीय कुनबे का निहित स्वार्थ दिखाई पड़ता है.
बिना कोई काम किये, महंगाई, बेरोजगारी, महंगी शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा, पुलिस दमन, महिला उत्पीड़न जैसे बुनियादी मुद्दों पर बिना कोई आन्दोलन किये बैठे बिठाए राजनीति का रोटी सेंकने और विधानसभा तथा लोकसभा का चुनाव जीत जाने की जादुई पुड़िया का नाम है जातिवादी राजनीति.
और यह महज संयोग नहीं है कि बिहार में पिछले 34 वर्षों से यह खेला चल रहा है, वह भी ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर. बिहार की मेहनतकश जनता को जातिवादी ‘सामाजिक न्याय’ के भंवर से निकलना होगा और वर्गीय सामाजिक क्रांति के प्रशस्त मार्ग पर आगे बढ़ना होगा. इसी में राज्य और देश का भविष्य है.
पूंजीवाद एवं जातिवाद का अन्तर्सम्बन्ध
पूंजीवाद एवं जातिवाद के रिश्ते को गहराई से समझने की जरूरत है. ऐसे घृणित एवं कुत्सित जाति व्यवस्था अस्तित्व में तो सामंती काल में आई थी, लेकिन पूंजीवादी वर्चस्व के काल में भी उसने अपने को समायोजित कर लिया. जब 1930 के दशक में बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने अंग्रेजी हुकूमत के कम्युनल अवार्ड का फायदा उठाते हुए दलितों के लिए पृथक प्रतिनिधियों के चुनाव पर जोर देना आरंभ कर दिया था तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे बड़े नेता मोहनदास करमचंद गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया.
वर्ष 1932 में पूना में महात्मा गांधी और अम्बेडकर के बीच एक समझौता हुआ था, जिसके तहत अनुसूचित जाति (दलितों) और अनुसूचित जनजाति (आदिवासियों) के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में केन्द्रीय असेम्बली और अन्य प्रतिनिधि संस्थाओं में प्रतिनिधित्व पर सहमति बनी. हम सभी जानते हैं कि संविधान सभा ने भी लोकसभा, विधानसभाओं और अन्य प्रतिनिधि मूलक संस्थाओं के साथ-साथ सरकारी नौकरियों में दलितों एवं आदिवासियों को आरक्षण प्रदान करने को मान्यता दी.
स्वयं महात्मा गांधी के सुझाव पर बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर को संविधान की प्राकल्लन समिति (ड्राफ्टिंग कमेटी) का अध्यक्ष बनाने में किसी को एतराज नहीं था. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बात छोड़ दीजिए, हाल के वर्षों एवं दिनों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपानीत केन्द्र सरकार को भी किसी दलित एवं आदिवासी को देश का राष्ट्रपति बनाने में कोई गुरेज नहीं है, बल्कि उन्हें यह सहर्ष स्वीकार्य है.
लेकिन इन सारी कवायदों से सिर्फ इस बात का खुलासा होता है कि साम्राज्यवादी प्रभुत्व की विश्वव्यापी पूंजीवादी व्यवस्था में भारत जैसे विकासशील देशों के शासक वर्गों-बड़ी पूंजी के स्वामियों एवं अर्ध सामंती भूस्वामियों के शासनकाल में पहचान की दावेदारी पेश करने से कोई परेशानी नहीं है.
इस शोषक व्यवस्था में यह लचीलापन है कि वह अपनी जमात में दबे-कुचले समुदायों तथा दलितों, आदिवासियों एवं अत्यंत पिछड़ों में जन्म लेने वाले अपने समर्थकों को समाहित कर ले. यह काम चतुर एवं शातिर भारतीय शासक वर्ग आजादी की लड़ाई के दौरान और 1947 में हुए सत्ता हस्तांतरण के बाद लगातार करता रहा है और आज भी कर रहा है.
शासक वर्गों को परेशानी एवं बेचैनी तब होने लगती है जब मजदूरों, किसानों एवं अन्य मेहनतकश वर्गों और सम्पूर्णता में तमाम शोषित-उत्पीड़ित वर्गों का क्रांतिकारी बदलाव का आन्दोलन परवान चढ़ने लगता है और वे एक जनवादी एवं समाजवादी समाज व्यवस्था के निर्माण के संघर्षों में पिल पड़के लग जाते हैं. तब इस सड़ी-गली आदमखोर शोषक व्यवस्था के रहनुमाओं की आंखों में खून उतर आता है और वे क्रांतिकारी आंदोलन को कुचल डालने के लिए सारी सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते हैं.
हाल के दिनों में पूंजीवादी-अर्ध सामंती व्यवस्था और जातिप्रथा के रिश्ते की शिनाख्त करते हुए कई लेख मैंने लिखे हैं. उसमें आधे-अधूरे पूंजीवादी जनतंत्र में हर किस्म के बुर्जुआ राजनीतिज्ञों पर भी मैंने टिप्पणियां की हैं. महात्मा गांधी से लेकर बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर को समेटते हुए सुश्री मायावती, मान्यवर कांसीराम और श्री लालू प्रसाद एवं श्री नीतीश कुमार का भी उन टिप्पणियों में उल्लेख हुआ है.
घृणित जाति प्रथा को समाप्त करने के उपायों पर चर्चा करते हुए क्रांतिकारी भूमि सुधार एवं प्रगतिशील सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों की बातें भी की गयी हैं. बार-बार मैंने वैज्ञानिक समाजवाद के पुरोधा कार्ल मार्क्स के उस अमर एवं विख्यात उद्धरण – ‘अभी तक आविर्भूत समस्त समाजों का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है’, की अन्तर्वस्तु के अनुरूप समकालीन भारतीय समाज के अन्तर्विरोधों को समझाने की कोशिश की है.
वर्ग एवं जाति के अन्तर्गुम्फित सम्बन्ध
मैं वर्ग एवं जाति के अन्तर्गुम्फित सम्बन्धों को मानता हूं. मैं यह स्वीकार करता हूं कि देश के मजदूरों, किसानों एवं अन्य मेहनतकश वर्गों का बड़ा हिस्सा दबे-कुचले समुदायों यानी दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, अत्यंत पिछड़े एवं अन्य पिछड़े समुदायों से बनता है. इसलिए जब कोई प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी संगठन मजदूरों, किसानों एवं अन्य मेहनतकश वर्गों को संगठित करने की कोशिश करता है तो उसे इन्हीं समुदायों के मेहनतकशों को गोलबंद करना पड़ता है.
लेकिन यह भी एक हकीकत है कि आज की तारीख में शासक वर्गों के सबसे विश्वसनीय सामाजिक आधार अगड़ी जातियों और मध्य (अन्य पिछड़ी जातियों का एक हिस्सा) जातियों में भी मजदूरों, गरीब एवं छोटे-मझोले किसानों का एक हिस्सा रहता है. भारतीय क्रांति के इस महत्वपूर्ण तबके एवं हिस्से को अपने पक्ष में करना एक महत्वपूर्ण कार्यभार है. इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती.
सम्पूर्णता में बात इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि हमें वर्ग को केन्द्र में रखकर ही राजनीतिक गतिविधियों को संचालित करने की कोशिश करनी होगी. जो लोग जाति, धर्म एवं पहचान को प्रमुखता देते हुए राजनीतिक क्रियाकलापों को आगे बढ़ाने का काम करते हैं, वे अंततः पूंजीवादी राजनीति में आत्मसात कर लिये जाते हैं. लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हम सामाजिक (जातीय), धार्मिक एवं लैंगिक शोषण, उत्पीड़न एवं दोहन के खिलाफ सशक्त आवाज बुलंद करने में रत्ती भर परहेज करेंगे.
जातीय, धार्मिक एवं लैंगिक समानता एवं बराबरी के लिए हमारा जनतांत्रिक संघर्ष अबाध रूप से चलता रहेगा. शासक वर्गों की पार्टियों को तो जाति एवं धर्म आधारित राजनीति करने में ही अपना फायदा नजर आता है, भले इससे मुल्क का भारी नुक्सान हो जाए. एक बार धर्म, धार्मिक उन्माद एवं साम्प्रदायिकता की राजनीति ने द्विराष्ट्रवाद के गलत सिद्धांत के आधार पर देश का बंटवारा तक करवाया है.
कुछ लोग आज भी उससे उचित सबक नहीं निकालना चाहते. वे पूरे देश के सामाजिक माहौल को दूषित करने के लिए धार्मिक नफरत, विद्वेष एवं असहिष्णुता के वातावरण का निर्माण करना चाहते हैं और रात-दिन इन्हीं नापाक कारगुज़ारियों में संलिप्त हैं. ऐसे कठिन समय में समाज के प्रगतिशील खेमे के एक छोटे से हिस्से की यह नादानी भरी समझ कि हमें उत्पीड़क, अगड़ी एवं दबंग जातियों को शासक वर्गों का सामाजिक आधार मानते हुए उनके खिलाफ खुल्लमखुल्ला संघर्ष का एलान कर देना चाहिए, एक नासमझी भरा बचकाना मर्ज है, जिसकी कड़े शब्दों में आलोचना की जानी चाहिए.
हम मार्क्सवाद-लेनिनवाद के क्रांतिकारी सिद्धांतों एवं नीतियों के कायल हैं. हमारा मानना है कि साम्राज्यवाद, दलाल नौकरशाह पूंजीवाद (बड़ी पूंजी) एवं सामंतवाद (अर्ध सामंती भूस्वामियों एवं कुलकों) के गठबंधन के खिलाफ भारतीय जनता का अंतर्विरोध ही आज का बुनियादी एवं प्रधान अंतर्विरोध है. और इस अन्तर्विरोध के समाधान पर ही भारतीय क्रांति का भविष्य निर्भर करता है.
इसलिए भारत की आसन्न जनक्रांति के समर्थक सभी ईमानदार जनवादपसंद, प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी शक्तियों को देश के तमाम मजदूरों, मेहनतकश किसानों, अन्य मेहनतकश वर्गों, दबे-कुचले समुदाय के लोगों और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को गोलबंद करना चाहिए और साम्राज्यवाद, बड़ी पूंजी एवं अर्ध सामंती भूस्वामियों के नापाक गठजोड़ को परास्त कर देश की मुक्ति के रास्ते को प्रशस्त करना चाहिए.
मेरी समझ से जाति विहीन समाज बनाने के लिए वामपंथी पार्टियों को क्रांतिकारी वर्ग संघर्षों को तेज करना चाहिए. क्रांतिकारी भूमि सुधार के आन्दोलन को अग्रगति प्रदान करना चाहिए और वर्ग एवं जाति के अन्तर्गुम्फित सम्बन्धों को समझते हुए सामाजिक व सांस्कृतिक आंदोलन को तेज करना चाहिए ताकि वह माहौल पैदा हो सके जिसमें बड़े पैमाने पर अन्तर्जातीय व अन्तर्धार्मिक शादी-विवाह संभव हो पाये.
ऐसी शादियों की बहुलता के लिए प्रेम विवाह का होना अनिवार्य है और वह एक शिक्षित एवं सुसंस्कृत समाज में ही संभव है. इसके साथ ही लड़कियों एवं महिलाओं के प्रति समाज में व्याप्त दकियानूसी एवं कठमुल्लावादी सोच को भी बदलने की आवश्यकता है. और यह काम सुलझे हुए एवं समझदार जनवादी, प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी शक्तियों के नेतृत्व में ही संभव है.
वामपंथी व कम्युनिस्ट पार्टी में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने के लिए सैद्धांतिक एवं वैचारिक प्रतिबद्धता एवं ज्ञान के अलावा क्रांतिकारी वर्ग संघर्षों में गंभीरता से भाग लेने एवं नेतृत्व करने का माद्दा भी होना चाहिए. यह काम आरक्षण देकर नहीं होता लेकिन कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन में दबे-कुचले समुदायों के प्रतिनिधि ज्यादा से ज्यादा नेतृत्वकारी भूमिका में आयें, इसके लिए सजग प्रयास किया जाना चाहिए.
मजदूरों, किसानों एवं अन्य मेहनतकश वर्गों के नेतृत्व में जनक्रांति
कोई भी लेख एक खास संदर्भ एवं परिप्रेक्ष्य में लिखा जाता है. उपर हमने पूंजीवाद एवं जातिवाद के रिश्ते की बात की है. हम यह मानते हैं कि घृणित एवं कुत्सित जाति व्यवस्था को अपने पूंजीवादी शोषण व्यवस्था के अनुकूल बना लेने में भारतीय शासक वर्गों को महारत हासिल है. हमारे कुछ प्रगतिशील सोच के बुद्धिजीवियों को यह बात समझकर भी समझ में नहीं आती कि भारत के शासक वर्गों में देश का बड़ा पूंजीपति वर्ग और बड़े भूस्वामियों का वर्ग शामिल है. और इस वर्ग का अधिकांश हिस्सा अगड़ी जातियों एवं दबंग पिछड़ी जातियों या मध्य जातियों से आता है.
लेकिन साथ ही यह भी सच है कि अगड़ी जातियां एवं दबंग पिछड़ी जातियां भले ही शासक वर्गों का सामाजिक आधार बनाती हों, लेकिन उनका एक अच्छा-खासा हिस्सा गरीब एवं छोटे-मंझोले किसानों एवं अन्य मेहनतकश वर्गों एवं तबकों का है, जिन्हें हमें क्रांतिकारी आंदोलन के पक्ष में लाना है. यह भारतीय क्रांति का एक महत्वपूर्ण कार्यभार है जिसे हमें पूरा करना है.
जो लोग राजनीतिक विमर्श में वर्ग से ज्यादा जाति पर जोर देते हैं और वर्ग एवं जाति के अन्तर्गुम्फित सम्बन्धों को न समझने की नादानी करते हैं, वे अंततः पूंजीवादी-अर्ध सामंती व्यवस्था द्वारा फैलाये गये भ्रमजाल का शिकार बनते हैं और अपनी मित्र शक्तियों को दुश्मन के खेमे में और दुश्मन वर्ग के एक हिस्से को मित्र शक्तियां समझने की भूल करते हैं.
आम तौर पर दबे-कुचले समुदाय में संयोग या दु:योग से जन्म लेने वाले लोगों या बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा अंत तक यह हठधर्मिता करते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी वर्ग संघर्ष की क्रांतिकारी लाइन को तिलांजलि दे दे और उनके द्वारा सुझाए गए वर्ण संघर्ष या जाति संघर्ष के अवसरवादी सुधारवादी लाइन को स्वीकार कर ले. लेकिन मार्क्सवाद-लेनिनवाद के वैज्ञानिक समाजवादी सिद्धांतों में भरोसा करने वाले हम कम्युनिस्ट क्रांतिकारी सुधारवाद एवं संशोधनवाद के भ्रमजाल में नहीं फंसेंगे और जाति को केन्द्र में रखकर राजनीतिक एवं वैचारिक विमर्शों को आगे बढ़ाने वाले बुद्धिजीवियों की ग़लत समझ का पर्दाफाश करते रहेंगे.
एक बात और, हमने चालाक एवं धूर्त्त भारतीय शासक वर्गों द्वारा दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़ों में सामाजिक आधार बढ़ाने के लिए उसके एक छोटे से हिस्से को शासक वर्गों में शामिल करने की बात की है. और माफ करेंगे बाबू जगजीवन राम, माननीय रामविलास पासवान जी, बहन मायावती, मान्यवर कांसीराम जी, आदरणीय कर्पूरी ठाकुर, श्री मुलायम सिंह यादव, श्री नीतीश कुमार, श्री लालू प्रसाद यादव, श्री अखिलेश यादव, श्री तेजस्वी प्रसाद यादव आदि इसी श्रेणी में आते हैं.
मैंने कभी नहीं कहा कि दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों एवं महिलाओं की मुक्ति इस सड़ी-गली आदमखोर शोषक व्यवस्था में होगी. इस मानवद्रोही आदमखोर शोषक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव लाकर ही हम उन करोड़ों-करोड़ भारतवासियों के जीवन में उजाला ला सकते हैं, जो इस व्यवस्था के जुए तले पीस रहे हैं. और इस काम को अंजाम देने के लिए हमें हर जाति, धर्म, समुदाय, भाषा एवं सांस्कृतिक समूह के भले एवं मेहनतकश लोगों का साथ चाहिए. तभी हम भारत में मजदूरों, किसानों एवं अन्य मेहनतकश वर्गों के नेतृत्व में एक सच्ची जनक्रांति को सफल बनाने में सक्षम हो पाएंगे.
- लेखक, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के बिहार प्रांतीय कमिटी के सचिव हैं. सम्पर्क : 9931857997