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सुरक्षित रहना है तो प्रकृति के साथ अपने मधुर रिश्ते रखने होंगे

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सुसंस्कृति परिहार

इन दिनों वर्षा से देश में चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है जबकि पुराने वक्त में इससे ज्यादा वर्षा दर्ज़ होती रही है लेकिन इस तरह कभी शहर नदी नहीं बने, ना ही कभी पहाड़ सैलाब बने। जबकि मंद गति से प्रकृति अपना कार्य करती रही। वस्तुत: सच्चाई यह है कि हमने प्रकृति का जिस तरह दोहन किया है, वह अक्षम्य है। इसलिए सावन-भादो की वर्षा हमें कहर नज़र आ रही है। यह तो वरदान है तमाम कायनात के लिए, जल है तो जंगल है। पानी है तो किसानी है। जल है तो जीवन है।आज़ इस जल को कोसा जा रहा है क्योंकि उसका रौद्र रूप पहाड़ों से लेकर मैदानों तक हमें सता रहा है। हमारे धन-जन और जीवन छीन रहा है।

इस मसले पर हमें गहराई से सोचना होगा। तथाकथित विकास की दौड़ ने हमें अंधा कर दिया है। सघन आबादी पहाड़ों से लेकर मैदानों पर एक महत्वपूर्ण तथ्य है जिसके कारण सघन कई मंजिला इमारतों की बस्तियां बसाई गई। इस अंधाधुंध निर्माण ने जलप्रवाह प्रणाली को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है। इसलिए पहाड़ दरक रहे हैं, और जल निकासी के वे नवीन रास्ते जब बनाते हैं, तो तबाही आनी स्वाभाविक है। प्रकृति की अपनी जलप्रवाह प्रणाली है, उसमें जब हस्तक्षेप होता है तो इस तरह की घटनाएं होंगी ही।

दूसरी बात यह है प्रकृति ने हर क्षेत्र के लोगों को अपने मकान बनाने का सामना मुहैय्या कराया है। पहाड़ी क्षेत्रों में हल्की विलो और देवदार जैसी लकड़ियां बहुतायत से मिलती हैं। जिससे पहले वहां मकान बनाने में इनका ही इस्तेमाल होता था, कंक्रीट और सीमेंट की अट्टालिकाएं नहीं बनती थी। इसलिए प्राकृतिक आपदा के समय नाममात्र की धन-जन की हानि होती थी। आज वायनाड की त्रासदी ऐसी ही त्रासदी है। पहाड़ी क्षेत्र पर बसे गांव जिस तरह बहे उसकी वजह प्रकृति में उपलब्ध भवन सामग्री का इस्तेमाल ना किया जाना भी है। ऊंचाई वाले क्षेत्रों से गिर कर आए वजनी मकानों ने कतार दर कतार नीचे तक सब साफ़ कर दिया।

मैदानी क्षेत्रों में भी सैलाब जब आता है, तो वह मिट्टी या घासफूस से बने मकानों से ज्यादा पक्के बने मकानों के ज़रिए धन-जन की बहुत हानि करता है। इसलिए मैदानी क्षेत्रों में लोग पहले इसी तरह के घरों में रहते थे। वे नष्ट होते थे, तो उन्हें आसानी से बना लेते थे। सरकारी मदद का वे इंतजार नहीं करते थे।

समुद्र तटीय क्षेत्रों में चूंकि हमेशा आंधी तूफान आते रहते हैं, इसलिए वहां के लोग कम ऊंचाई वाले समुद्र विमुख द्वार वाले घर बनाते थे। उन्हें नारियल की टहनियों से इस तरह संगठित करके छा देते थे कि वे बड़े-बड़े तूफान बारिश सह लेते थे। कभी इस तरह की बड़ी त्रासदियां देखने नहीं मिली।

विकास की इस अंधी दौड़ ने प्रकृति के उपादानों की अवहेलना जिस तरह की है, वह एक बड़ी वजह है इन दर्दनाक घटनाओं के लिए। होना यह चाहिए कोई बस्ती, गांव या नगर बसाने या कहीं बसने से पहले उस क्षेत्र की जलप्रवाह प्रणाली को भली-भांति समझ लिया जाए। उसका मार्ग ना बदला जाए, तथा प्रवाह क्षेत्र में घर वगैरह बनाकर अवरोध पैदा ना करें। प्रकृति अपना कार्य दीर्घ कालीन और अल्पकालीन दोनों तरह से करती है।

अल्पकालीन घटनाएं भूकंप और ज्वालमुखी के रूप में सामने आती है, जिसका समय आज तक कोई निर्धारित नहीं कर पाया है। जो प्रकृति के मूल ढांचे में यकायक परिवर्तन लाती है। दूसरा दीर्घ कालीन परिवर्तन हैं, जो नदी, वर्षाजल, समुद्र, जीव-जंतु और हवाओं के द्वारा मंदगति से चलता रहता है। मसलन द्वारिका का डूबना या गंगासागर का उभरना। इन मंद गति की परिवर्तन कारी शक्तियों ने विंध्याचल, सतपुड़ा और अरावली को आज पठार में परिवर्तित कर दिया है, जबकि हिमालय मंदगति से अपनी ऊंचाई बढ़ा रहा है।

कहने का आशय यह है कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ मसलन, जंगल ख़त्म करना, जलबहाव को बांधों में रोकना, मनमाने क्षेत्र में बस्तियां बसाना, पर्वतों पर सड़कों का बनाना, भीड़ जुटाना सब विनाश के लिए जिम्मेदार हैं। हमें सुरक्षित रहना है तो प्रकृति के साथ अपने मधुर रिश्ते रखने होंगे। आदिवासियों से सीखिए वे प्रकृति के अनुरूप चलते हैं जो सहजता से मिलता है, उसके लिए प्रकृति को धन्यवाद स्वरुप पूजा करते हैं। लालच और संग्रह वृत्ति से दूर हैं, तभी इन आपदाओं से बचें हुए हैं।

हमें आदिवासी नहीं बनना है किंतु उनकी जीवनशैली से सीखना होगा। इन घटनाओं से सबक लेकर सरकार को भी चाहिए कि वे जलप्रवाह क्षेत्र का निर्धारण करवाए। जहां इस तरह की आवासीय व्यवस्था है उसे हटवाए। बड़े बांधों की जगह छोटे-छोटे खेतों में मेड़ बनाकर जल रोके। इससे मिट्टी संरक्षण भी होगा। पर्वतीय तीर्थ क्षेत्रों में हवाई सेवा शुरू करें। सड़कें ना बनाए तथा जनसंख्या नियंत्रण हेतु सक्रियता से काम करें। प्रकृति से सहयोग और तादात्म्य ही हमें इन आपदाओं से सुरक्षित रख सकता है।

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