अग्नि आलोक
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*राजेंद्र शर्मा के दो व्यंग्य*

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*1. ये लिंचिंग, लिंचिंग क्या है…?*

ये लिंचिंग-लिंचिंग, बला क्या है? बेचारे हरियाणा वाले नायब सैनी साहब सफाई दे-देकर परेशान हैं कि चरखी-दादरी में जो गोमांस खाने के शक में एक बंदे को गोरक्षकों ने पीट-पीटकर मार दिया और दूसरे को अधमरा कर के छोड़ गए, उसका किसी लिंचिंग-विंचिंग से कुछ लेना-देना नहीं है। और मॉब लिंचिंग का तो खैर कोई सवाल ही नहीं उठता है। सिंपल है, गोभक्तों की भीड़ भी हो, तो उसे मॉब नहीं कहते हैं। 

गऊ के हों या किसी और के, भक्त जो भी करें, भक्ति का ही मामला माना जाएगा। और भक्ति का मामला यानी हमारे धर्म, संस्कृति, परंपरा वगैरह का मामला। ऐसे मामलों में वैसे तो सब के लिए, पर खासतौर पर गैर-भक्तों के लिए, भाषा का संयम आवश्यक है। वर्ना लोगों की भावनाएं भड़क सकती हैं और जैसा कि सैनी साहब ने चेताया, भावनाएं भड़क जाएं तो फिर क्या कोई रोक सकता है! गोमांस खाने की अफवाह पर भावनाएं भड़कीं, तो क्या कोई रोक पाया? भावनाएं, एक कूड़ा बीनने वाले बंगाली मुसलमान मजदूर की जान लेकर और दूसरे को मरे के बराबर देखकर ही मानीं।

अब इन सेकुलर वालों की तरह ये मत कहने लगिएगा कि भावनाएं मानतीं तो तब, जब कोई उन्हें रोकने की कोशिश करता। सैनी साहब की सरकार ने भावनाओं को न रोका न टोका, खुली छूट दे दी। भावनाएं आगे-आगे और सरकारी अमला पीछे-पीछे! अव्वल तो इसमें सैनी साहब की सरकार कहां से आ गयी। फिर सरकार का काम लोगों की भावनाओं का आदर करना है या उनके मामले में टोका-टोकी करना है? पहले वाली सरकारें करती होंगी भावनाओं के साथ टोका-टोकी, अब भारतीय संस्कृति की पूजा करने वालों की सरकार है। 

डेमोक्रेसी की बहुत इज्जत करते हैं सैनी साहब और उनकी पार्टी वाले। चुनाव के टैम पर तो खैर डेमोक्रेसी की कुछ फालतू ही इज्जत करते हैं। चुनाव मुश्किल हो, तब तो खैर कहना ही क्या? गऊ हो, गोभक्त हों, गोभक्तों की भावनाएं हों, सब के लिए लाल कालीन बिछाने को हर दम तैयार रहती है, छप्पन इंच वालों की डबल इंजन सरकार। थोड़ा-बहुत खून-वून, तो लाल कालीन के नीचे खुद ही छुप जाता है। 

ऐसे सनातनमय मामले में लिंचिंग जैसे पाश्चात्य शब्द का क्या काम? कहां तो मोदी जी चुन-चुनकर भाषा तथा परंंपराओं से दासता के प्रतीकों को मिटा रहे हैं और सेंगोल को वापस ला रहे हैं, और कहां ये सेकुलर वाले मॉब और लिंचिंग जैसे विदेशी वाक्यांशों की मिलावट कर हमारी भाषा को अशुद्ध कर रहे हैं, उसका चरित्र खराब कर रहे हैं।

और अगर गोभक्तों की मॉब और इंसानों की लिंचिंग में वाकई कोई कनेक्शन है, तो फिर वो क्या है, जो सैनी साहब के ही राज में आर्यन मिश्रा के साथ हुआ है। अब इससे तो सैनी साहब की पुलिस तक जोर लगाकर इंकार नहीं कर पा रही है कि अनिल कौशिक की जिस टोली ने आर्यन को दो-दो गोलियां मारी थीं, वह गोरक्षकों की टोली थी। और इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है कि आर्यन और उसके साथियों की कार का तीस किलोमीटर तक पीछा कर, बाकायदा गोलियां चलायी गयीं। पर अंगरेजी वाली मॉब यानी गिरोह का मामला अगर मान भी लिया जाए, तब भी इसमें लिंचिंग तो दूर-दूर तक नहीं है। इसमें भीड़ तो है ही नहीं, गोरक्षकों की भी भीड़ नहीं। बस छोटी-सी टोली है। फिर बंदूक भले ही गैर-कानूनी हो, पर बंदूक से भी कोई लिंचिंग होती है क्या? और इसमें भावनाएं भड़कने की तो छोड़िए, भावनाओं का तो कोई स्कोप ही नहीं था। बंगाली मुसलमान छोड़िए, बंदूक के निशाने पर ब्राह्मण आ गया। गोरक्षा का पुण्य तो खैर क्या मिलता, पर ब्रह्महत्या का पाप जरूर हो गया। और वह भी गो और ब्राह्मणों की रक्षा करने की संस्कृति का मंत्र जपने वालों के राज में!

इसीलिए, पुलिस ने सही कहा, यह किसी लिंचिंग-विंचिंग का नहीं, ‘‘मिस्टेक’’ का मामला है। और सच पूछिए तो मिस्टेक आर्यन मिश्रा की भी थी। उसकी और उसके दोस्तों की कार ने गोरक्षकों को क्यों भरमाया कि गाड़ी में हिन्दू नहीं, संभावित गोभक्षक थे? उनकी गाड़ी पर इसका कोई संकेतक भी तो नहीं था कि यह गोभक्षकों की कार नहीं है — न जय श्रीराम या मैं हिंदू हूं के उद्घोष का अंकन और न एंग्री हनूमान का चित्रांकन। और तो और, ब्राह्मणत्व का एलान तक नहीं। हो गयी बेचारों से मिस्टेक। चल गयी गलत निशाने पर गोली। भले लोग हैं। खुद उन्हें ब्रह्म हत्या का पछतावा है। खुद मान रहे हैं कि मिस्टेक हो गयी। बाबर की औलाद समझा था, ब्राह्मण का पूत निकला। बेचारों को आर्यन की दु:ख से पगलाई मां के मुंह से सेकुलर वालों जैसी बानी और सुननी पड़ रही है — गलती से मुसलमान समझ कर मार दिया? कोई मुसलमान है, तो क्या ऐसे ही मार दोगे? इंसान की जान की कोई कीमत ही नहीं है क्या!

वैसे आर्यन मिश्रा प्रकरण का गोरक्षकों के लिए एक सकारात्मक पहलू भी है। गोरक्षा और गोरक्षकों की बंदूकों को सांप्रदायिकता से जोड़ने वाले, एक ही झटके में गलत साबित हो गए हैं। काफी समय के लिए साबित हो गया है कि असली गोरक्षक, हिंदू-मुसलमान तक में भेद नहीं करते हैं, फिर दलित-ब्राह्मण वगैरह में भेद करने की तो बात ही कहां उठती है। गोभक्षक होने का शक होना चाहिए, फिर असली गोरक्षक कपड़ों वगैरह से हिंदू-मुसलमान के पहचाने जाने का इंतजार नहीं करता है। यानी गोरक्षक न देखे हिंदू-मुसलमान! गोरक्षकों को सांप्रदायिक कहकर झूठे बदनाम करने वालों पर, कम से कम अब तो लगाम लगनी चाहिए।

और महाराष्ट्र में ट्रेन में मुस्लिम बुजुर्ग की पुलिस भर्ती के लिए जा रहे नौजवानों के हाथों पिटाई क्या दिखाती है? नौजवानों की मॉब भी थी, बुढ़ऊ की लिंचिंग भी हुई, फिर भी बुढ़ऊ जिंदा रह गए, बाद में अपनी आपबीती सुनाने को। वह भी तब, जबकि भैंस का ही सही, बुढ़ऊ के पास तो मांस भी था। यानी हमारे यहां लिंचिंग अगर हो भी रही है, तो यह उतनी भयानक चीज भी नहीं हैं, जितना लिंचिंग की पश्चिमी संज्ञा दिखाने की कोशिश करती है। लिंचिंग में मरने की खबरें खूब उछलती हैं, पर जो लिंचिंग के बाद भी बच जाते हैं, उसकी खबर क्यों दबा दी जाती है? गोरक्षकों को बदनाम करने की इस अंतरराष्ट्रीय साजिश को मोदी जी कामयाब होने नहीं दे सकते।  

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*2. जैनुइन मिस्टेक*

अब क्या करें, बेचारे गोरक्षकों से मिस्टेक तो हो गयी। गोरक्षा के चक्कर में, ब्रह्म हत्या हो गयी। गोली दागी गो-तस्करों के लिए, लेकिन जा लगी आर्यन मिश्रा को। गोली अंदर और दम बाहर। हो जाती है कभी-कभी बंदूक से निकली गोली से भी मिस्टेक, हो जाती है। यहां तो डबल-डबल मिस्टेक हो गयी। पहली – गोली चली, पर किसी अब्दुल को नहीं लगी। दूसरी – गोली आर्यन मिश्रा को लगी। गोरक्षा तो हुई नहीं, ऊपर से ब्रह्म हत्या और हो गयी। उफ…सिली मिस्टेक!

पर ये मर्डर-मर्डर का शोर मचाना सही नहीं है। अनिल कौशिक और उसके गिरोह भाइयों ने कोई मर्डर-वर्डर नहीं किया है। किसी को मार देने से ही मर्डर नहीं हो जाता है। मर्डर तो तब माना जाएगा, जब मारने वाले ने मारने की नीयत से मारा हो। अनिल कौशिक का गिरोह तो आर्यन मिश्रा को ठीक से जानता तक नहीं था, उसका मर्डर क्यों करने लगा। उन बेचारों ने तो गोली तक गलतफहमी में चलायी। निशाने पर समझा अब्दुल, निकला आर्यन। कोई हिंदू यह नहीं भूले कि गोरक्षा गिरोह, धर्म के सिपाही हैं। वे हिंदू धर्म की रक्षा की लड़ाई लड़ रहे हैं। गोरक्षा को गोभक्ति से कन्फ्यूज कोई नहीं करे। गोभक्ति, कमजोर दिल वालों का शगल है। गोरक्षा, छप्पन इंच की छाती वालों के लिए है। गोरक्षा, भक्ति नहीं, युद्घ है। और युद्घ में गोली चलाने को वीरता कहते हैं। मिस्टेक युद्घ में भी होती है, बार-बार होती है, पर उसे कोलेटरल डैमेज यानी अनचाहा नुकसान कहते हैं। जब बार्डर वाले युद्घ में कोलेटरल डैमेज मंजूर है, तो गोरक्षा युद्घ में क्यों नहीं? सिर्फ इसलिए कि मरने वाले का नाम आर्यन मिश्रा का था? या उसकी उम्र सिर्फ अठारह-उन्नीस साल थी? या सिर्फ इसलिए कि गोली चलाने वाली बंदूक सरकारी नहीं थी? बंदूक अवैध सही, हरियाणा में गोरक्षा सेनाएं तो सरकारी हैं!

पुलिस की बात एकदम सही है। जिसके हाथों से गोली चली, भला आदमी है। गलतफहमी में बेचारे ने आर्यन को अब्दुल समझ लिया और बंदूक से मिस्टेक हो गयी। तीस किलोमीटर तक पीछा किया, मिस्टेक। गाड़ी रुकवाने के बाद बगल से दूसरी गोली मारी, मिस्टेक। जैनुइन मिस्टेक। इन दिनों कपड़े देखकर पता ही कहां चलता है कि कौन अब्दुल और कौन आर्यन! हर बार होती थी, बस इसी बार एक्शन के समय अनिल कौशिक गिरोह के साथ पुलिस नहीं थी — सरकारी मिस्टेक!

*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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