,मुनेश त्यागी
हिंदी हमारी मातृभाषा मातृभाषा
करना बहुत जरूरी है,
अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में
पढ़ाना हमारी मजबूरी है।
आज हमने अखबारों में पढ़ा कि सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने पक्षों द्वारा हिंदी में अपनी याचिकाएं दायर की थीं और हिंदी में कागजात दाखिल किए थे, जिस पर सुप्रीम कोर्ट की बैच के जजों ने आपत्ति जताई है और कहा है कि यहां सारा काम अंग्रेजी में ही होगा हिंदी में नहीं। इस खबर को सुनकर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि आज हिंदी दिवस के मौके पर सुप्रीम कोर्ट ने यह क्या कह दिया? क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कई बार यह बात कहते रहे हैं कि जनता को उसकी मातृभाषा में न्याय मिलना चाहिए
हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने पर बड़ी जोरों की चर्चा है। कोई कह रहा है कि हमें अपने बच्चों को हिंदी पढ़ाना चाहिए, कोई कह रहा है कि हमें अपने बच्चों को अपना इंट्रोडक्शन हिंदी में देना सिखाना चाहिए। कई सारे हिंदी बोलने वाले, हिंदी बोलने वालों के सामने भाषण दे रहे हैं कि उन्हें हिंदी में बोलना चाहिए। कोई कह रहा है की सारी परीक्षाएं हिंदी में होनी चाहिए। कोई कह रहा है कि जजों को अपने फैसले हिंदी में देने चाहिए। कोई कह रहा है कि अदालतों की भाषा हिंदी होनी चाहिए।
भारत के संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रावधान किए गए हैं, मगर आजादी प्राप्ति के छियत्तर साल बाद भी हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बना पाया गया है और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के बजाय विदेशी भाषा अंग्रेजी आज भी लगातार बढ़ रही है और बलवती होती जा रही है। अंग्रेजी के प्रति लोगों की ललक लगातार बढ़ती जा रही है। यहीं पर अहम सवाल उठता है कि हमारी हिंदी, भारत की राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पाई है?
अगर हम इस तरफ केंद्र सरकार की भूमिका और प्रयासों पर नजर डालें तो हमें यहां पर हताशा और निराशा ही नजर आती है। आखिर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का कोई विज्ञानिक फार्मूला आज तक भी क्यों तैयार नहीं किया गया? इसका सारा दोष अभी तक की सारी केंद्रीय सरकारों के हिंदी विरोधी रवैए पर जाता है। कांग्रेस ने अपने साठ साल के शासन में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया। भाजपा भी इस दोष से बरी नहीं हो सकती। भाजपा तो हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान की सदा से बात करती आई है, पर उसने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए क्या काम किया? जबकि वह पांच साल पहले और अब पिछले दस साल से भी ज्यादा समय से केंद्र सरकार में आरूढ़ है।
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने पर उसने भी कोई ब्लूप्रिंट तैयार नहीं किया है। हां भाषणबाजी और जुमलेबाजी जरुर की है। हमारी सरकारों द्वारा अंग्रेजी को हटाने का कोई कार्यक्रम या नीतियां नहीं बनाई गई हैं। अधिकांश उच्च संस्थानों में शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून, परीक्षाओं और प्रौद्योगिकी में आज भी अंग्रेजी का साम्राज्य कायम है। इन सभी क्षेत्रों और विभागों में जनता द्वारा बोली और समझे जाने वाली हिंदी या हिंदुस्तानी भाषा का कोई प्रयोग नहीं किया गया है।
दुख देने वाले हालात यहां तक खराब है कि अधिकांश कानूनों की किताबें अंग्रेजी में हैं। भारत के अधिकांश उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय आज भी अंग्रेजी में फैसले दे रहे हैं। वादकारियों को पता ही नहीं चलता कि उसके वकील और न्यायालय में क्या बहस कर रहे हैं और न्यायमूर्ति क्या कह रहे हैं? मेडिकल की किताबें अंग्रेजी में है। यही हाल प्रौद्योगिकी और इंजीनियरिंग का है। हमारे देश में सारी परीक्षाएं अंग्रेजी माध्यम में होती हैं, इसीलिए जनता किसी भी तरह से अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाना चाहती है। भाजपा और कांग्रेस की सरकारें अपने-अपने राज्यों में हिंदी भाषी स्कूल न खोलकर, अंग्रेजी भाषा के स्कूल खोल रही हैं। यह कौन सी मानसिकता है? क्या ऐसा करके अंग्रेजी की गुलामी से निजात पाई जा सकती है और हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जा सकता है?
वैसे तो मोदी अंग्रेजी दासता के सबूतों को मिटाने की बात करते हैं। उन्होंने इंडिया की जगह भारत का प्रयोग करने की बात कही है। मगर उनकी नीतियां अंग्रेजी भाषा की गुलामी और दासता से निजात पाने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने पिछले दस सालों में इस बारे में विपक्षी राजनीतिक पार्टियों और देश विदेश के भाषा विशेषज्ञों से कोई बात नहीं की है, कोई चर्चा नहीं की है। कोई बैठक इस बारे में नहीं बुलाई गई है। कोई सरकारी ब्लूप्रिंट इस बारे में नहीं बनाया है। सरकार की इस बेरुखी के चलते, हिंदी या हिंदुस्तानी कभी भी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती।
यहीं पर सवाल उठता है कि जब रूस, चीन, जापान, इटली, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, कोरिया, वियतनाम, क्यूबा और दक्षिणी अमेरिका के अनेक देशों में अपनी-अपनी भाषाओं को राष्ट्रीय भाषा बनाकर अपनी जनता में ज्ञान विज्ञान, प्रौद्योगिकी और साहित्य का विस्तार और प्रचार प्रसार किया गया है और इसी आधार पर उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में विकास के झंडे गाड़ दिए हैं, तब भारत की सरकार ने ऐसा क्यों नहीं किया?
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के मामले में हमारा कहना है कि यह काम जोर जबरदस्ती से नहीं किया जा सकता। ऐसा करने के लिए सरकार को सभी राज्यों को विश्वास में लेकर, सर्वसम्मत त्रिभाषा फार्मूला लागू करना होगा। हमारी राष्ट्रीय भाषा हिन्दी, संस्कृतनिष्ठ नहीं, बल्कि जनता की भाषा यानी बुद्ध, कबीर, प्रेमचंद, फैज, निराला, साहिर लुधियानवी, सुभद्रा कुमारी चौहान और दिनकर वाली, “आम जनता की बोलचाल की भाषा” को अपनाना पड़ेगा। पूरे देश की जनता को इस राष्ट्रीय अभियान में लगाना होगा, और उसे पूरी तरह से विश्वास दिलाना होगा कि इसमें कोई जोर जबरदस्ती नहीं की जाएगी।
हमने देखा है कि हमारे यहां कानून की शब्दावली तैयार की गई है। वह इतनी जटिल और संस्कृतनिष्ठ है कि उसे समझना और इस्तेमाल करना लगभग असंभव है। वह इतनी अवैज्ञानिक है कि उसे न्यायालय और आम बोलचाल की भाषा में समझना और प्रयोग नहीं किया जा सकता है। उसमें ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है कि उन्हें अदालतें, वकील और जनता समझ पाने और इस्तेमाल करने में बिल्कुल असमर्थ हैं और उन्हें कानूनी क्षेत्र में इस्तेमाल करना लगभग नामुमकिन है।
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए विदेशों के तौर तरीकों और अनुभवों से सबक लेने होंगे और उनसे सीखना होगा कि कैसे राष्ट्रभाषा विकसित की जाती है। इस विषय में सरकार को हिंदी और हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाने में अपनी बेरुखी छोड़नी होगी। ऐसा करके ही हमारे देश और समाज में हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिल सकता है। तभी जाकर अंग्रेजी की गुलामी और जंजाल से निजात पाई जा सकती है। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है। यहां पर यह समझना भी सबसे ज्यादा जरूरी है कि हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाकर नहीं, बल्कि हिंदुस्तानी बनकर ही राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जा सकता है।
हमने अपने चेन्नई और केरल भ्रमण के दौरान देखा है कि वहां के अधिकांश व्यापारी और दुकानदार हिंदी में बात करते हैं, हिंदी में सौदेबाजी करते हैं। वहां के रिक्शा चालक भी हिंदी समझने और बोलते हैं। वे हिंदी फिल्में देखते हैं, उन्हें समझते हैं। हिंदी गानों को समझते और गाते भी हैं और जब हमने अपने वकीलों के राष्ट्रीय सम्मेलन में एक क्रांतिकारी गीत पेश किया, जिसके बोल थे,,,,,
नफ़स नफ़स कदम कदम है एक फिक्र दम बे दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब दर सवाल है कि इंक़लाब चाहिए
इंकलाब जिंदाबाद जिंदाबाद इंकलाब।
तो उसे सबसे ज्यादा गैर हिंदी में बोलने वाले वकील ही समझ रहे थे, ताली पीट रहे थे, नाच रहे थे। तब हमारे दिमाग में सवाल उठा कि जब ये लोग हिंदी बोल सकते हैं, समझ सकते हैं, गा सकते हैं तो फिर ये हिंदी अपनाने से क्यों डरते हैं? और आजकल तो हिन्दी सिनेमा, टेलीविजन और मोबाइल ने हिंदी को सारे देश में प्रचार और प्रसारित किया है। हमें इसी सबसे सीखने की जरूरत है। हम हिंदी को गैर हिंदी भाषियों पर थोप कर नहीं, बल्कि सोच समझकर और राजी राजमा से ही हिंदी को राष्ट्रभाषा और लिंक भाषा का दर्जा दिया जा सकता है।
वैश्विक स्तर पर हम देख रहे हैं की रूस चीन कनाडा अमेरिका ऑस्ट्रेलिया ब्राज़ील जापान आदि देश हमसे कई कई गुना बड़े हैं पर उन्होंने अपनी एक देसी भाषा तैयार की है जिसे वहां के सभी लोग बोलते हैं। यहीं पर हमें इन देशों से सीखने की जरूरत है। ऐसा करके ही हिंदी को पूरे देश की एक सर्व सम्माननीय भाषा बनाया जा सकता है। इस पर हमारी केंद्र और राज्य सरकारों को राष्ट्रीय स्तर पर एक सर्वमान्य हिंदी नीति बनानी पड़ेगी, जिसमें जोर जबरदस्ती का कोई स्थान नहीं होगा और हिंदी की बात केवल हिंदी दिवस पर ना करके, हमें पूरे साल हिंदी को सर्वमान्य भाषा बनाने की मुहिम जारी रखनी चाहिए।