राजेंद्र शर्मा
संशयवादियों को भी अब तो मानना ही पड़ेगा कि अपने भारत में प्लेन डेमोक्रेसी नहीं, डेमोक्रेसी की मम्मीजी चल रही हैं। आखिर, डेमोक्रेसी की क्या पहचान है? डेमोक्रेसी में सरकार होती है, तो पब्लिक भी होती है। पब्लिक संतुष्ट नहीं होती है, तो शिकायत करती है। पब्लिक शिकायत करती है, तो सरकार सफाई देती है। फिर भी पब्लिक संतुष्ट नहीं होती है, तो सरकार और, और सफाई देती है। और सफाई से काम नहीं चले तो, सरकार माफी मांगती है। पर वह प्लेन डेमोक्रेसी में होता है। डेमोक्रेसी की मम्मीजी की यहां नहीं।
डेमोक्रेसी की मम्मीजी के यहां भी सरकार और पब्लिक, होते तो दोनों ही हैं। पर पब्लिक संतुष्ट नहीं होती है और शिकायत करती है, तो सरकार सफाई नहीं देती है बल्कि पब्लिक को समझाती है कि उसकी शिकायत गलत है। उसे गलतफहमी हो गयी है। सचाई वह नहीं है, जो उसे लग रहा है कि सचाई है। उसे देश यानी सरकार के विरोधियों ने भ्रमित किया है, वगैरह। इतना समझाने के बाद भी पब्लिक सरकार की दिखाई सच्ची सचाई नहीं देखती है, तो सरकार उसकी आंखों में उंगली डालकर, दूसरों का खतरा दिखाती है। फिर भी पब्लिक सरकार का दिखाया वैकल्पिक यथार्थ नहीं देखती है, तो सरकार उसे अपना रौद्र रूप दिखाती है। अब सरकार पब्लिक से माफी मंगवाती है और उसके बाद ही उसका रौद्र रूप शांत होता है।
तमिलनाडु में अभी एकदम दो-चार रोज पहले ही ठीक ऐसा ही हुआ है। सरकार ने अपना रौद्र रूप दिखाकर पब्लिक से माफी मंगवायी है। डेमोक्रेसी की मम्मी ने अपनी मम्मियत दिखाई है।
हुआ यह कि तमिलनाडु में मंझली सरकार यानी निर्मला ताई ने दरबार लगाया। पर तमिलनाडु ठहरा विरोधियों का इलाका। ताई ने लगाया दरबार और दरबार में पहुंचने वालों को लगा, सरकार से दो-चार होने का मौका। लगाना था जैकारा और लगे पब्लिक बनकर शिकायतें करने। कोई होटल वगैरह की चेन है अन्नपूर्णा ग्रुप, उसके मालिक ने सरकार के सामने जीएसटी का रोना, रोना शुरू कर दिया। रोने तक ही रहता तो फिर भी गनीमत थी, अगला यह गिनाने पर उतर आया कि सरकार की जीएसटी कितनी बेतुकी है। मसलन क्रीम बन जिन चीजों से बनता है, उन सब पर जीएसटी है 5 फीसद, पर उनसे बने क्रीम बन पर जीएसटी है 18 फीसद। निर्मला ताई ने उसकी बातों को मजाक में उड़ाने की कोशिश की। पर बंदे के सिर पर तो डेमोक्रेसी की पब्लिक सवार थी, सो नहीं माना और अपनी बात पर अड़ा रहा। पर बात खत्म होते ही उसे सरकार का रौद्र रूप नजर आने लगा। रात भर डरावने सपनों ने परेशान किए रखा।
अगले दिन मंझली सरकार ने उसे, माफी मांगने का मौका दिया, जिससे सरकार का रौद्र रूप शांत हो सके। कारोबारी इतना डर गया कि उसने दौडक़र सरकार के चरण गहे और अपनी जुर्रत के लिए माफी मांगी। तब सरकार ने अपना रौद्र रूप छोड़ा।
पर इसके बाद भी कुछ कसर रह गयी। दरबार पब्लिक के बीच था। पब्लिक बनकर कारोबारी ने बाकी पब्लिक के सामने शिकायत की थी। और माफी मांगी बंद दरवाजे के पीछे। सरकार को इसका मलाल फिर भी रह गया कि शिकायत कर के उसकी शान में गुस्ताखी भरे दरबार में की गयी थी। माफी भी भरे दरबार में ही होनी चाहिए थी। जंगल में मोर नाचा, किसी ने ना देखा। पर आसान था। रौद्र रूप के सामने माफी मांगने का मार्मिक दृश्य वीडियो कैमरे में कैद हुआ ही था। बस उसे सार्वजनिक कर दिया गया। माफी का वीडियो ऐसा वायरल हुआ, ऐसा वायरल हुआ कि दरबार में हुई गुस्ताखी पर उससे टनों मिट्टी पड़ गयी। माफी मंगवाने वाली सरकार के तौर पर, मंझली सरकार की शान और भी बढ़ गयी।
पर किस्सा इतने पर भी खत्म नहीं हुआ। हमने शुरू में ही कहा, विरोधियों का इलाका था। वहां अब भी डेमोक्रेसी ही चल रही थी, मम्मीजी का उतना जोर नहीं चलता था। हल्ला मच गया कि ये कैसी सरकार है, जो पब्लिक से माफी मंगवा रही है। लगी जिंदाबाद-मुर्दाबाद होने। खैर! मंझली सरकार का तो क्या बिगडऩा था, पर माफी का वीडियो जारी करने के लिए एक दरबारी कर्मचारी की नौकरी चली गयी। यानी माफी मंगवाने तक तो ठीक था, पर उसका वीडियो बनाना और उसे वायरल कराना ज्यादा हो गया। सरकार पब्लिक से माफी मंगवाए, पब्लिक माफी मांगे यहां तक तो ठीक है, पर इसे बाकी पब्लिक के लिए सबक बनाने का टैम अभी नहीं आया है। मोदी जी के तीसरे कार्यकाल में तो और भी नहीं, जहां सरकार तो है, पर परायी बैसाखियों पर टिकी है। कौन सी बैसाखी कब खिसक जाए, कोई नहीं कह सकता।
पर सरकार तो फिर भी सरकार है। और डेमोक्रेसी की मम्मी जी फिर भी मम्मी जी हैं। पब्लिक से माफी सिर्फ निर्मला ताई ही नहीं मंगवा रही हैं। पब्लिक से माफी मंगवाने में आदित्यनाथ, किसी ताई-वाई से पीछे नहीं हैं। गोरखपुर में दीनदयाल विश्वविद्यालय में एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए, योगी जी ने एलान कर दिया कि ज्ञानवापी मस्जिद को मस्जिद कहना दुर्भाग्यपूर्ण है। यानी जो मस्जिद को मस्जिद बताएगा, कसकर रगड़ा जाएगा। अब मस्जिद को मस्जिद कहने की जुर्रुत कौन करेगा? अब बाबरी मस्जिद को मस्जिद कहने की जुर्रत कौन करता है? और अब तक जिन्होंने मस्जिद को मस्जिद कहने की जुर्रत की भी है, वे भी फौरन माफी मांग लें, तो माफी शायद मिल भी जाए। वर्ना बाद में न जाने क्या हो।
मुसलमानों, दलितों और औरतों को तो खैर हर वक्त अपने होने की ही माफी मांगने की जरूरत होती है और विपक्ष वालों को भी। उत्तराखंड के बाद अब हिमाचल में भी मुसलमान, अपनी मस्जिदों के होने के लिए माफी मांग रहे हैं। और देश भर में बहुत सारी संपत्तियां वक्फ किए जाने की भी। और अपने निजी कानूनों पर चलने की भी। पब्लिक के लिए माफियां ही माफियां हैं, मांग तो लें।
माफियां मंगवाने का यह सिलसिला तब तक रुकने वाला नहीं है, जब तक पब्लिक इस सरकार से ही माफी नहीं मांग लेती है–अब, दफा हो भी जाओ!
(इस व्यंग्य के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)